समस्त अपने,मेरे स्नेहादरणीयो ! सब समाज, सपरिवार नववर्ष मंगलमय हो!
! 🙏 ! 🌿🌺🌿 #उचतवक्ताडेस्क।
समस्त अपने,मेरे स्नेहादरणीयो ! सब समाज, सपरिवार नववर्ष मंगलमय हो!
! 🙏 ! 🌿🌺🌿 #उचतवक्ताडेस्क।
🔥 🔥|
साहित्य अकादेमी समेत समस्त
मैथिली सम्मान आ पुरस्कार पर घिनमो घिनमी सँ बाढ़ि गूहांँ गीज्जनिक आब हद्द भ' गेल !
🙏!🙏!
हे हमर स्नेही ओ आदरणीय मैथिली-लोक,समाज !
एक रती ठंढा मन सँ शान्ति पूर्वक विचार करै जाइ ! कृपया,चंचल चित्तें नहिं।
हमहूँ व्यग्र चिन्तातुर छी।अपने
सभक संगे बैसि क' 'सोच'-बूझ'
चाहैत छी। विचार कर' चाहैत छी।
रुचि हो आ दायित्व बुझाय तँ आइ
साँझ सात बजे हमरा फेसबुक
जीवन्त (फेसबुक लाइव )मे
आबी। आग्रह आ विनती !
आइ बृहस्पति,29 दिसम्बर,',22.
साँझ खन सात बजे। आदर पूर्वक
हमर आमंत्रण निवेदित !
💐। 💐
#उचितवक्ताडेस्क।
•• ग़ज़ल नुमा ••
मेरे हाथों में दे के क़लम मुझे भेजा है
हरेक सिम्त जहाँ सब के हाथ नेजा है।
•
बहुत महीन मुहावरे का करता है प्रयोग
कहे ग़रीब और चूहे का मिरा कलेजा है।
•
तहस नहस किये दे रहा है इक चुटकी में
बाग़ सदियों में हमने ये जो सहेजा है।
•
मरीज़ ढो-ढो कर थकते रहे थे जो काँधे
आज अपनी हसरतों का जो जनाज़ा है।
•
अजब तड़प है आग-सी लगी है सीने में
और ये सामने जम्हूरियत का तक़ाज़ा है ।
💥
गंगेश गुंजन,
रूढ़ विचारधारा की राजनीति साहित्य में ऊर्ध्वश्वाँस ले रही है।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
. ।°। .
डरा हुआ सच तो फ़रार है
झूठ हर जगह बरक़रार है।
•
लिपटा है अवसर का बिस्तर
दे धोखा कब से तैयार है।
•
जन साधारण को समझाने
तर्क पास में बेशुमार है।
•
बॉल्कनी के गमले सूखे
पॉर्कों में पसरी बहार है।
•
मस्तमना हैं सोच-सोच कर
विरोधियों का बंँटाढार है।
•|•
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
ग़ज़लनुमा
🌼 || 🌼
दिलों का डाक्टर है
हुनर का मास्टर है।
•
बोलने में लिखे में
अदब का नामवर है।
•
सियासत को अदब के
कौन गुस्से का डर है।
•
जहाँ वो है न होता
वजह ये ही अगर है।
•
उसे क्यों ख़ौफ होगा
जिसे रोटी न घर है।
•
टूटता भी दिखे है
हौसले में मगर है।
•
ठंड ठिठुरा रही जो
रात क्या,क्या सहर है।
•
आदमी से भी मुश्किल
य' सूरज का सफ़र है।
•
प्रेम को पूछे कौन
नफ़रतें भर नगर है।
••
🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵
|| सत्ता का पंचरंगी विविध भारती ||
यह भ्रम है कि सत्ता का खेल सिर्फ़ राजनीतिक राजकाज की सत्ता व्यवस्था अर्थात् सरकारें ही खेलती हैं। नहीं।
अपवाद छोड़ कर सत्ता सामर्थ्य का खेल वे तमाम संगठन और समाज साँस्कृतिक संस्थासँ भी अपनी शक्ति भर उसी तरह करती हैं। वे ग़ैर सरकारी कला-साहित्य
के संस्थान भी अपनी-अपनी सत्ता का मज़बूत केन्द्र हैं तथा अपने हित में अपनी पसन्द और निर्णय का खुल कर उपयोग करते रहते हैं जो सम्बन्धित अध्यक्षों-सचिव-
महासचिवों के क्रियाकलापों में प्रगट होते रहते हैं।
इन संस्थाओं से उपकृत होने की प्रत्याशा में भी लोग क़तारों में खड़े हैं। प्रौढ़,पुरानी पीढ़ी को तो छोड़ें तेज़ तर्रार नयी प्रतिभा की पीढ़ी के युवा भी 'जी,सर' की मुद्रा में खड़े
रहते हैं।
यह विडंबना बहुत नयी भी नहीं लेकिन इसका ऐसा उग्र संगठनात्मक उतावलापन नया है। उससे भी चिन्ताजनक यह है कि
यह प्रवृत्ति कोई भाषा या क्षेत्र विशेष भर की नहीं सार्वदेशिक प्रतीत हो रही है।
👣 । 👣
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। २३.११.'२२.
🔥 | प्रतिरोध
कुछ कवि के पास
बड़े आराम से आती है कविता !
जैसे इंडिया इन्टरनेशनल सेन्टर,
इंडिया हैबिटैट और विशाल
सम्भ्रांत होटलों के पोर्टिकों में
आकर लगती है
मिलने आये उनके दोस्तों की
दामी मोटर गाड़ी। तीव्र वेग से छलकता है कविताओं में
दीन हीन शोषित वंचित जन की
यातना- कथाओं का दर्द !
बड़ी सहजता से आ मिलता है
उनकी कविता में प्रकृतिस्थ
प्रामाणिक यथार्थ
अगले दिन विमर्श के केन्द्र में पहुँच
जाता है इत्मीनान से।
उठे हुए हाथ के तीखे तेवरों की
फ़ोटो सहित अख़बार और चैनेलों
में छा जाता है उनके प्रतिरोध का
प्रारूप।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
| 🌔 |
हर मुसीबतकी घड़ी में होगा उसका आसरा
अब कहाँ मानेगा वो ये था उसीका फैसला।
•
लौट कर तूफ़ाँ से लड़ कर बहुत ख़ुश था कारवाँ
क्या ख़बर थी बाद में बे इन्तिहा था रास्ता।
•
अब तो सब क़िस्से हुए रिश्तों से लेकर सरज़मीं
माज़ीए मायूस तेरा सिलसिला बाज़ाप्ता।
•
मौत से है रंज हमको भूल से मत सोचिये
हर जनम उससे है मेरा दोस्ताना राब्ता।
•
मखमली आग़ोश में जो लेट कर सोने में है
मज़ा तो बस है उसी को जिसको है इसका पता।
•
हर जुदाई इन्तिहाई हो रही जैसे रिवाज
देखते हैं अपने ही लोगों में जैसा फासला
•
मौज के जिस हादसे ने डुबो दीं वे कश्तियाँ
मुकम्मल रौशन जहाँ में सियासी था मामला
•
मुसीबत थी पाँव की जूती मेरी पूरे सफ़र
रात भर था साथ अपने हौसले का काफ़िला
•
जब तलक बदले नहीं अब सल्तनत का ढब मिज़ाज
आम जन के दु:ख का आता रहेगा ज़लज़ला।
••
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
...तो आप भी चले ही गये
प्रो.पाण्डेय जी.
बहुत दुखद हुआ।
नमन स्मरणाँजली 🙏 ! सादर,
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। ०६.११.'२२.
।। सपने में मार्क्स और नागार्जुन ।।
⚡🌺⚡
मैंने देखा कि बहुत बूढ़े हो गये संत कार्ल मार्क्स एक पुराने जर्जर घर में तनिक चिंतित से बैठे थे। उनकी गोद में उनकी अधखुली किताब रखी है। सहमे-सहमे आगे से मुझे गुजरते हुए देखा।और पास बुलाया। मैं डरा हुआ पास गया तो पूछा -'किधर जा रहे हो ?’
मैं तो यह जान कर कि मार्क्स जी हिन्दी बोलते हैं ख़ुशी से चकित था किंतु तुरत सहज हो गया। मैंने उनके पैर छूकर प्रणाम किया और कहा-
-मधुबनी जा रहा हूँ दादा जी। कोई काम है ? आज्ञा करिये।’ कहकर मैं इंतज़ार करने लगा कि क्या कहते हैं। दादा एक पल चुप रहे। फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा -‘सुना है नागार्जुन वहीं रहते हैं आज कल?’
'जी दादाजी।’ मैंने ख़ासे उत्साह से कहा।
'कहना जरा कि मैंने उसे बुलाया है।खोज रहा हूंँ बहुत दिनों से। उससे बहुत ज़रूरी काम है। उससे कहो जितनी जल्दी हो मुझसे मिले।’
मैं तो उनका कहा सुनकर खुशी से स्टेशन की तरफ़ ही दौड़ पड़ा। कि अचानक क्या देखता हूंँ कि जब तक मैं स्टेशन जाऊं उससे पहले रिक्शे की तरह लुढ़कता हुआ हवाई जहाज आकर सामने में खड़ा हो गया। हवाई जहाज चलाने वाले ने खिड़की से झांक कर मुझे इशारा किया और पूछा कहां जाओगे मैंने बताया मधुबनी जाना है।
-मधुबनी का रास्ता आपको मालूम है?’ बोला-’बैठ जाओ।’और मैं ऐसे बैठ गया हूं। जैसे नोयडा में तिनपहिया पर बैठता हूँ। पलक झपकते ही हवाई जहाज मुझे लेकर मधुबनी पहुंच भी गया। स्थानीय दबंगों द्वारा गंगा सागर पोखरे की कब्जा़ ली गई ज़मीन पर हवाई जहाज़ हेलिकॉप्टर की तरह उतरा। अब झटपट बाबा की तलाश की। यहीं की एक मुड़ी-घुघनी की दूकान पर बैठ कर तो मां उम्र की बुढ़िया दुकान मालकिन से बाबा तमाम तरह की बातें बतियाते रहते हैं। पता चला वहां से अपने गांव तरौनी चले गए थे। मैंने हवाई जहाज वाले से कहा-’मुझे वहां ले चलते हो?’
‘दिखाओ रास्ता। मुझे नहीं मालूम है।’
‘मैं दिखाऊंगा मार्ग । उसने मुझे अपने बगल वाली सीट पर ही बिठा लिया। मैं रास्ता बताने लगा।
तभी देखता हूँ कि नीचे मेरे मित्रम का गांव दहौड़ा पीछे छूट रहा है।बड़ी इच्छा हुई दो मिनट मित्रम से क्यों न मिलता चलूँ . लेकिन तत्काल ध्यान आया - अब कहां रहता है गांव में वह . वहभी तो विराट नगर ही रहने लगा है.....| कि तबतक देखता हूँ हम बहुत जल्दी ही तरौनी पहुंच गये। अपने छोटे-से दालान में बैठे बाबा,साहर का दतुअन कर रहे थे। दतुअन की कुच्ची के कुछेक रेशे बाबा की दाढ़ी पर चिपक रहे थे। उन्हें प्रणाम किया और बहुत हड़बड़ में ही कह डाला-
‘बाबा आपको कार्ल मार्क्स ढूंढ़ रहे हैं। उन्होंने बुलाया है। बहुत जरूरी काम है उनको।’
बाबा अपनी दाढ़ियों के बीच मुस्कुराए और बुदबुदाये -‘लगता है बुढ्ढा बहुत गुस्साया हुआ है। बहुत खुखुआयगा। क्या करूंगा डांट सुन लूंगा।’
-ठीक है। देह पर जरा दो लोटा पानी ढार लेते हैं । जर्जर हो गये पुराने कुएं से डोल से पानी ख़ुद निकाला। सीधे माथे पर उड़ेला। जल्दी-जल्दी गमछा से शरीर पोछा। कुर्ता धोती पहन,चप्पल पहनी और झटपट निकल पड़े। जाते-जाते मुझे हिदायत देने लगे- ‘बुढ़िया को तो गोतिया गांव की बहू-बेटी का कल्याण करने से फ़ुर्सत हो तब न। सुबह-सुबह टहल जाती है। कह देना शाम तक लौट आऊंगा। हमको ढूंढने शोभाकांत को मत भेजने लगे...।’
बुढ़िया माने हम लोगों की बाबी-काकी !
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि देखा एक पेड़ के नीचे हवाई जहाज वाले पसीना पोछते हुए खड़े हैं। जैसे ही बाबा आए उनको उठाया और लेकर उड़ गया।
जाते-जाते बाबा बोले: गुंजन तुम अभी मेरे गांव में ही रहो। तुम्हारा स्पोण्डोलाइटिस कैसा है,किस डाक्टर से इलाज करवाया,आकर पूछूंगा। अभी मैं तुरंत लौटता हूं।’
और आश्चर्य ! मैं आस-पास इधर-उधर आंखें दौड़ा ही रहा था कि इसी बीच में बाबा सच में लौट आए । हालांकि मुझे थोड़े चिंतित लगे। मुस्कुरा नहीं रहे थे। उनके हाथ में वही किताब देखी जो मैंने कार्ल मार्क्स के हाथ में देखी थी।
-तुमको किसी ने खाना-वाना भी दिया या नहीं?’ यह पूछते के साथ ही खुद ही कहने लगे- कौन देगा यहां अब खाना खाने किसी को। रहता ही कहां हैं कोई अब।’
बाबा उदास हो गये। लेकिन तभी जैसे अचानक उन्हें याद आया और बगल के थैले से बिस्कुट का एक पैकेट निकाला।डिब्बा खुला हुआ था।
और कहा- ‘लो,यह खाओ। आते समय बुढ़उ ने मुझे रास्ते में खाने के लिए दिया था। मैं पूरा नहीं खा पाया। खा लो कार्ल मार्क्स का नैवेद्य समझो!' कहकर तनिक बिहुंसे।
-‘क्या काम था बाबा ?आप बड़े चिंतित लग रहे हैं। और यह किताब तो थोड़ी देर पहले मैंने कार्ल मार्क्स की गोद में देखी थी।’ मैंने कहा तो बाबा ने जवाब दिया-उन्हीं की पुस्तक है। अब वह कहते हैं कि इस किताब में मेरा कहा हुआ बहुत कुछ इसमें पुराना हो गया है।जैसे बहुत दिनों तक रखे-रखे हंसिया-कुदाल भोथ हो जाती है न। ज़ंग लग जाती है न? लगता है मेरी सुझाई बातों का वही हाल हो गया है सो अब नये औजार गढ़ने की ज़रूरत है। इसलिए किताब का थोड़ा परिवर्तन-परिवर्धन करना है। दूसरा संपादित संस्करण निकालना है। सो इसे तुम पूरा करो। इसका संपादित परिवर्तित संस्करण निकालने की जिम्मेदारी तुम्हारी है।’
अब यह काम कोई मामूली,छोटा-मोटा है?इस महान किताब का परिवर्धन,परिवर्तन और संपादन ? कितनी बड़ी चुनौती है ? कितना जोखिम है बताओ ?और बहुत समय साध्य है सो अलग। किसी तरह तो कविता लिख कर अपना गुजर करता हूँ। ऊपर से यह …।’ बाबा सचमुच चिंतित हो गये।
-आपने कहा क्यों नहीं कि आप यह काम नहीं कर सकते। बहुत थक भी तो गये हैं।अब इस उमर में...।’
‘ये सब मैंने क्या कहा नहीं उनको। मगर मानने को तैयार ही नहीं।कहने लगे- देखो उम्र में तुमसे मैं तो कितना-कितना बड़ा हूं,तो मैं काम कर रहा हूं कि नहीं। हमलोग सेहत,अभाव और उम्र की लाचारी नहीं दिखा सकते यात्री ! हम आख़िरी सांस तक रेंगते हुए भी मिहनत करने के लिए तबतक मजबूर हैं जब तक अपनी सबसे अच्छी दुनियां रचने का हमारा सपना पूरा नहीं हो जाता ! यह क्यों भूल जाते हो?’ अब इस पर क्या कहता,तुम्हीं बोलो। अब बुड्ढे ने कहा है तो हुकुम तो मानना होगा। आखिर वो जनक समान है हमारा।’बाबा चुप हो गये।
‘लेकिन आपने उनसे पूछा नहीं कि यह संपादन करने का ख़्याल कैसे आया उनके दिमाग में और क्यों ?’ मैंने जो पूछा तो बाबा जरा खीझ से गए-
‘अरे सो तो और हैरान करने वाला जवाब दिया उन्होंने।कहने लगे- पिछले दिनों दो-तीन नौजवान मेरे पास आये। सभी खद्दर पजामा जेपी कुर्ता पहिने हुए थे। खुंटिआई दाढ़ी वाले। आदर्शवादी से बड़े बेचैन-से लेकिन प्यारे लगे। मुझे देखकर एक छूटते ही बोला-हमने किताबों में आपकी फोटो देखी है।आप कार्ल मार्क्स ही हैं न? ’
एक नौजवान ने उनको टोक दिया ‘बाबा आपने यह किताब लिखी तो हमारे गुरु ने तो कहा था इस किताब के सिद्धांत से पूरी दुनिया बदल जाएगी। सभी सामाजिक भेदभाव-जात-पांत,ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी,सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। सभी तरह का शोषण बन्द हो जाएगा। दुनिया भर मनुष्य का समाज बदल कर एक समान हो जाएगा। आपने ऐसे वैज्ञानिक मार्ग का सिद्धांत बना दिया है। लेकिन इतने दिनों से मैं देख रहा हूं कि- कहां बदल रहा है समाज ? सब जो जैसा चल रहा था वैसा ही चल रहा है।बचपन से ही देखता आ रहा हूँ। अभी बाईस बरस के हो गये हैं,तब भी वही सब देख रहा हूं। बल्कि अब तो बुराइयां,झगड़ा- झंझट,ज़मीन- -मुकदमा, कोर्ट-कचहरी, जाति-धर्म का हल्ला-गुल्ला,सब कुछ और बढ़-चढ़ कर होता हुआ लगता है।फिर तो आपकी किताब गलत साबित हुई। कुछ तो लोचा रह गया है उसमें।वरना फेल क्यों होती?तो अपनी किताब को फिर से पढ़कर इसमें बदलिए और काम की जरूरी बातें जोड़िये।
ज़ाहिर है युवक की उस “ किताब में ...लोचा रह गया है” वाली बात पर मेरा चेहरा तमतमाया होगा। अब ये गुस्सा गया सा चेहरा जो देखा तो वे सभी सहम गये और डर से जल्दी-जल्दी भाग गये। उनके इस तरह भाग जाने के बाद मैं बहुत सोच में पड़ गया। बहुत बेचैन रहा। लेकिन दिल ने यह कहा- अपनी ही लिखी हुई है तो क्या,मुझे किताब फिर ज़रूर से पढ़नी चाहिए।और तब बहुत कुछ सोचता रहा और तब नौजवानों पर क्रोध भी होता रहा, वे भागे क्यों? अगर कोई विचार है मन में तो निडर भी होना चाहिए। भयमुक्त होकर उसका पालन- पोषण करना चाहिए। इस तरह उनका डर जाना मुझे ज्यादा बुरा लगा। मुझसे बहस करते। मेरा भी पक्ष सुनते .भाग गये। उनमें से कोई एक भी अभी मिल जाए ना तो मैं अपनी इसी छड़ी से उसे पीटूं। सो युवकों के संवाद से विचलित हो गये मन के इसी द्वन्द्व भरे दौर में सोचता रहा,याद करता रहा। लोगों को याद करते हुए इस सिलसिले में मुझे तुम्हारा ध्यान ही आया। सो मुझे लगता है यह निर्णय मैंने सही निर्णय लिया है। अब यह काम तुम झटपट कर दो। मैं थोड़ा निश्चिंत होकर देखता जाऊं।तुम समझ रहे हो न मेरी बात?’
बाबा ने सुस्ताने की तरह एक लंबी सांस ली और जैसे स्वीकारात्मक थकान से भरे कहा-
‘अब तुम ही कहो मैं क्या करता ? बुढ्ढे का हुक्म है तो मानना ही पड़ेगा ना। अब रहूंगा तरौनी ही जबतक पुस्तक का संपादन काम पूरा नहीं हो जाता।’ कंधे से चरखाना लाल गमछा उतार कर बाबा ने चेहरा और गर्दन का पसीना पोछा।
-लेकिन कब तक चलेगा किताब संपादन का यह काम,बाबा ? आप कब तक संपादित परिवर्तित कर देंगे?’ मैंने युवकोचित उतावलेपन से पूछा।
बाबा ने कोई जवाब तो नहीं दिया लेकिन मैं बहुत खुश हुआ कि बाबा अब कार्ल मार्क्स की इस ऐतिहासिक किताब संपादन कर लेंगे और नया परिवर्तित संस्करण निकलेगा ऐसा बाबा कार्ल मार्क्स ने हुकुम दिया है उन्हें।आख़िर यह काम कार्ल मार्क्स ने बाबा को ही क्यों सौंपा ? देश- दुनिया भर एक से एक बड़े लेखक भरे-पड़े हैं ! कि तभी मुझे याद आया दादा की छड़ी वाली बात सुनते ही मैं परेशान क्यों हो उठा ? अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा- ‘बाबा वो छड़ी कहीं शिमला वाली तो नहीं थी ? अच्छी लकड़ी वाली कत्थई कत्थई रंग की ?’
-हां,लेकिन तुम कैसे जानते हो ?’ इस बारी बाबा ने ही शक से तमकते हुए पूछा ! मैं जैसे चोरी पकड़ ली गयी हो,घबड़ाया और जल्दी-जल्दी बोल बैठा- वह छड़ी तो दुर्गा पूजा में एक बार मेरे पिता जी के लिए शिमला से मेरे जीजा जी ले आये थे। लेकिन वो तो उस दिन मैंने दादा मार्क्स जी के पास देखी थी। हमें लगा कि गुस्से में उनका हाथ अपनी छड़ी की तरफ बढ़ रहा है सो हम डरकर भागे...कहते हुए बाबा से भी डर कर भागने लगे . बाबा ने ज़ोर से कहा-रुक रे गुंजन रुक जा रे। डर मत। मत डर ।’ मैं सहसा वहीं का वहीं रुक गया। मुंडी झुका कर खड़ा हो गया। मेरा बायां हाथ हाफ़शर्ट की बायीं जेब में था।हाथ में छड़ी लिए धीरे-धीरे बाबा मेरे क़रीब आ गये।
‘बताओ क्या बात है ?’ बाबा ने हड़काते हुए पूछा। तुम भागे क्यों ?और ये तुम्हारी जेब मैं क्या है? दिखाओ।’उन्होंने फिर मेरी जेब में हाथ डाला और पूछा क्या है यह?’
-लताम,बाबा !’ मैंने सहमते हुए जवाब दिया।
तीन डम्हक अमरूद थे।
-वह तो मैं भी देख रहा हूं! किसके पेड़ से चुरा कर तोड़े हैं?' उन्होंने मेरे बालपाठ कक्षा के समय मेरे गार्डियन बड़का भैया की तरह बनावटी कठोरता से पूछा।
-चुराये नहीं,तोड़े हैं। आपके गाछ से,बाड़ी के गाछ से बाबा ।’ मैंने जवाब दिया।
-अरे मगर तीन-तीन अधपके ही अमरूद क्यों तोड़ लिए ?’ बाबा ने पूछा।
-हम लोगों को एकदम पका हुआ लताम(अमरूद) अच्छा नहीं लगता है। डम्हक ही अच्छा लगता है। आपके तो अब दांत दुरुस्त नहीं रहे ना बाबा। इसीलिए।
-उन दोनों के लिए भी ले जाऊंगा। दोनों कितने ख़ुश होंगे जब मालूम होगा कि ये लताम बाबा- गाछ के हैं!
बाबा हंस पड़े। और हंसी के साथ उनकी दाढ़ी भी झूल कर हंसने लगी ठीक जैसे उनकेे चिढ़ने या ग़ुस्साने समय उनकी दाढ़ी-मूंछ भी चिढ़ी और ग़ुस्साती हुई लगती है। हालांकि बाबा ने अपनी छड़ी संभाली थी लेकिन मैं इतना उद्वेलित हो गया कि नींद खुल गयी।
तब से मैं जगा ही हुआ हूँ।
*
-गंगेश गुंजन 30 मार्च 2019.
🐾। ।🐾
ज़िन्दगी रात भर है
इक मुलाक़ात भर है।
•
प्यार के मौसम की
हिज्रे सौग़ात भर है।
•
अस्ल तो दिन न रहे
बस ख़यालात भर है।
•
रात अब जुगनू की
कोई बारात भर है।
•
चाहिए रुपया-पैसा
पास जज़्बात भर है।
••
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। (पुनः प्रदत्त)
🐾। ।🐾
ज़िन्दगी रात भर है
इक मुलाक़ात भर है।
•
प्यार के मौसम की
हिज्रे सौग़ात भर है।
•
अस्ल तो दिन न रहे
बस ख़यालात भर है।
•
रात अब जुगनू की
कोई बारात भर है।
•
चाहिए रुपया-पैसा
पास जज़्बात भर है।
••
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
⚡ दु:ख छोड़ि क' सब किछु बाँटल !
**
कोन इलाका छूटल अछि सब दिसि सबटा बांँटल अछि।
व्यर्थ वस्तु सब बात
-विचार नीकहुंँ तंँ
सब काटल अछि ।
दु:ख आब करबे लए की
युगेक माथ जे
साटल अछि।
बर्खहुंँ संयोगल पोथी
कोनो कोन में
राखल अछि।
बहुते दिन पर गप्प भेलय
एकसर मीत
निरासल अछि।
भरि पृथ्वीक
सुखाएल समुद्र
मेघ अपने पियासल अछि।
गामक लोक बताह हमर
एहन खेत कें चासल अछि।
कष्टक आगिक तापे दिव्य
दग्ध लोक
किछु बॉचल अछि ।
सात रंग सब मिज्झर भेल
सबहक संस्कृति
भासल अछि।
महगीक विपदा मे बेहाल
देशक दिने
हतासल अछि।
सब बूझय अपने कें महान्
की मिथिलाँचल
भासल अछि।
*
।गंगेश गुंजन। #उचितवक्ताडेस्क।
किसी का ये बहाना है किसी का वो बहाना है
सियासत तो सियासत हमनवाँओं का
पुराना है।
शगल क्या है हुकूमत की इनायत चैनेलों पर ये
हक़ीक़त को छुपाना झूठ को दुल्हन बनाना है।
हमें कबतक बना रखेंगे अपने रेस का घोड़ा
बताए रहनुमा कबतक हमें बुद्धू बनाना है।
हुकूमत और जनता में ठनी रहती तो है अकसर
मगर क्या दिन दहाड़े आम जन यूँ बरग़लाना है।
ग़ज़ब है हुक्म में जादू अजब माया ज़ुबाँ में है
मगर मुतमइन हैं गुंजन कि अब जन-जन सयाना है।
💥 गंगेश गुंजन। #उचितवक्ताडेस्क।
🐾🐾
किसी का ये बहाना था किसी का वो बहाना था
यहांँ उनका न आना था वहांँ उसका न जाना था।
*
इस ग़ज़लनुमा रचना में एक छन्द के लिए दुष्यंत कुमार जी का कृतज्ञ हूँ।
दूसरे,
इस तरह की रिकॉर्डिंग से बच नहीं सकता था क्योंकि मैं जिसओसारे में बैठा हूंँ ठीक मेरे पीछे और दाहिनी ओर गांँव की मुख्य सड़कें हैं...🙏!
प्रस्तुति :
#उचितवक्ताडेस्क।
🐾 🐾
किसी का ये बहाना था किसी का वो बहाना था यहाँ उनका न आना था वहाँ उसका न जाना था।
गिले-शिकवे बहुत से रूहके कितने फ़सानो में किसी का दिल दुखाना था किसी का मुस्कुराना था।
मुरादें कर चुके ख़ुद क़त्ल किस वीरान में जा कर जहाँ प्रेतों के डेरे हैं उन्हीं से सब निभाना था।
फ़क़त अब सब गए माज़ी हुए हम भी तो सब खो कर किसे मंज़िल प' होना औ किसे चलते ही जाना था।
नसीबे ज़िन्दगी सब का जुदा है और अपना ही .....
सफ़र में इश्क़ मिल जाए मुक़द्दर है बड़ा लेकिन उसे पुल से गुज़रना था किसी का थरथराना था। फ़क़त गुज़रे,गए सब,अब खड़ेहैं फ़िक्र में गुंजन बला से है रहा जो भी किसी का हो बहाना था।
गंगेश गुंजन, २९.०३.'२२.गाम।
#उचितवक्ताडेस्क।💥 विद्यमान भारतीय काल !
वर्तमान विद्यमान भारतीय काल,
काँग्रेस-भाजपा-वामपंथ-सपा-
विचार से बहुत आगे निकल गया
है।इसके बरक्स अभी यहाँके शेष
विशेष प्रबुद्धोंके भोथड़े कालबोध
पर शगल-चिन्तन और विमर्श का
समय चल रहा है। जटिल रफ़्तार
वाले इस वैश्विक परिवर्तन के दौर
में यह वास्तव में है या भ्रम मेरा ?
🌒| गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क। १६ अक्तूबर,२०२२.
• •
पीले गुलाब से क्या कम हैं ये
भिंडी जैसी स्वादिष्ट सब्ज़ी के
प्यारे फूल! आप ही देखें तो।
गाँव में : #उचितवक्ताडेस्क। १५.१०.'२२
⚡ रडार से बाहर ⚡
एक दिन अपने ही सुखों की जेल
में बन्द रह कर वे सब सड़ जाएंँगे,
देख लीजिएगा
उनकी खुशियों की आंँधी उन्हें ही
बहाकर सात समुन्दर में डाल
आएगी
वे सभी खुशियांँ हमारे सुखों को
हड़प कर पैदा की गई हैं
ख़ुद मालिक बन कर अपनी
अलमारियों में जमा की हुई हैँ।
वक्त की भी अपनी तरह से ईडी है
अवसर पर सब का हिसाब बराबर
कर ही देती है।
कुछ तो बड़ा ज़बर्दस्त है कि पैदा करके दिखाये जा रहे इस तिलिस्म में भयावह फ़रेब है जो
उनके भी रडार से बाहर
अभी पोशीदा है।
ग़नीमत कि फ़ोटो ग्राफ़र है,
निगेटिव को पॉज़िटिव करना
जानता है
डार्क रूम में मौजूद है जो
किसी घड़ी कर ले सकता है यह
काम।
और लोगों के साथ,मन में कविता
है जो
आदमी के मन का बैरोमीटर है,
और जो सदा उनके रडार से
बाहर रहती है।
*
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
।🌔 अष्टदल ! 🌔।
हम बोलते रहे मगर समझा न वो ज़ुबाँ
ख़ामोश इक ज़रा हुए औ' सब समझ गया।
•
इश्क़ से इश्क़ किसको नहीं है
पता चलता है जब होता है।
•
इश्क़ में मुआवज़ेदारी
ग़ज़ब है दौर अजब यारी।
•
सफ़र में सामांँ समेट रहा है वो यूंँ कि जैसे बहुत पास हो उसका स्टेशन।
•
रोने लगो तो दिल भी रम जाए उसी में।
लेकिन खु़शी भी आएगी आंँसू में नहायी।
•
सफ़र में साथ नहीं ख़ास कुछ मेरे असबाब
एक जुदाई है दूसरा मिलने का ख़्वाब।
•
दु:खकी गाड़ीपर सुख इक थका हुआ सफ़र
ज़िन्दगी अजब उलटबांँसी है तमाशा घर। •
लालसा हर पल जीने की यूँ न की जाये।
कभी मरने का हौसला भी रक्खा जाये।
**
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। १०.१०.२०२२
असर ही छीन ले दरकार नहीं है वो बहर,
न हो ग़ज़ल सुन्दर कविता हो ये ज़रूरी है।
🌿🌿 गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
लेखक,कवि नायक तो हो सकते हैं कोई साधारण और कोई महान् लेकिन खलनायक नहीं हो सकते।
🌀 गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
🌿 'संवेदना शिशु'
संवेदनशीलता जन्मौटी बच्चा जकाँ होइत अछि जे कहियो जवान नहिं होइअय। तें सृजनशील रचनाकारकें ओ बच्चा सतत अपना अपना कोरामे राखि क' पोस' पड़ैत छैक।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
🌀
एक तो बहुत पुरानी सड़ी-गली
बात,उससे भी ज़्यादा घिसी-पिटी
भाषा में जाने कैसी लालसा है कि
कुछ लोग...फेसबुक को टॉयलेट बना देने की सीमा तक कुछ भी लिखते रहते हैं...
💤
#उचितवक्ताडेस्क। २९.०९.'२२.
🏘️🏡
सौभाग्य से उनकी सोलह
बेटियाँ हैं। आठ तो सहज ही घर
में थीं। चार बेटियों को उनके
समधी-समधन पाल-पोस
रहे थे। अपने चार बेटों को
बारी-बारी भेज कर वहाँ से वे
सबको अपने घर लिवा आये।
और इस अनुभव से समृद्ध वे
अब अपने आप को बहुत
वैभवशाली समझते हैं।
#उचितवक्ताडेस्क।
🌿
२२ सितंबर,२०२२.
प्रकाशक कविता की पुस्तक नहीं छापेंगे तो कविता मर जाएगी?
जो कवि ऐसा सोचते हैं वे कविता नहीं, समय के अनुसार कोई धंधा ढूँढ़ लें।
💫
#उचितवक्ताडेस्क। गंगेश गुंजन
*
ऐसा नहीं कि हम में कुछ दाग़ नहीं है
ये भी नहीं मगर कोई आग नहीं है।
करने से बहुत कमतर करके भी कौंधें
कुछ हुनरमन्द जैसा हाँ,भाग नहीं है।
जैसा भी है गाँव उस प' है बहुत गुमान
होता हो जहाँ हो,मिरा प्रयाग यहीं है।
खु़द लोक के रचे हैं गायें भी उसे ही
ये लोकगान है पकिया राग नहीं है।
गढ़ते रहें बैठे हुए नव परिभाषाएँ
विप्लव कि प्रेम अपना अभिराग* वहीं है।
सूखी हुई सियासत के सुनो मुरीदो
सम्मुख खड़ा बन्दा उसका भाग नहीं है।
--------------------
*अतिशय प्रेम।
🛖🛖
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
हिन्दी दिवस
हिन्दी ही जीता - मरता हूँ
बतियाता-गाता हूँ हिन्दी।
💥 गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क
।। किताब से बाहर किताब ।।
बहुत प्रचलित-प्रसार चर्चित
किताबों से बाहर भी समानान्तर
कुछ किताबें होती ही हैं जिनका
कोई वर्तमान नहीं होता। जो होता
है वह उनका अनन्त भविष्य होता
है।
#उचितवक्ताडेस्क। गंगेश गुंजन १४सितम्बर,'२२.
मनुष्यता और कविता
कविता के बदन पर जिस दिन कोई घाव नहीं होगा उस दिन सम्पूर्ण मनुष्यता स्थापित हो जाएगी।
#उचितवक्ताडेस्क। गंगेश गुंजन
! 💐 !
शीश झुका जाता है मन ही मन
चरणों में।
ज़िक्र चला है शायद कहीं मिरे
गुरुजन का।
! 💐 !
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨
चन्द दू पँतियाँ
१.
थके हुए शब्दों को कुछ विश्राम
चाहिए
चूर-चूर है जिस्म ज़रा आराम
चाहिए।
२.
तोड़-फोड़ कर बड़े टावरों को
खुश तो हैं इतने वो
जैसे ख़त्म हुऐ जाते हों पूँजी,
भ्रष्ट कारनामे
३.
चलेगी और बहुत दिन न अब
यह मनमानी
अब और न आगे बढ़ेगी यह
मनहूस कहानी।
४.
बहुत कुछ अब नहीं है ज़िन्दगी
में,है एहसास
मिले तो 'कैसे हो' पूछ लेना तो
बचा है।
५.
मुझसे शिकायत है उन्हें वो
शौक़ से रखें
है वक़्त भी कम साथ वो दिल
भी कहाँ रहा।
६.
झुक कर के सरे राह एहतराम
कर गया
इक अजनबी क्यूँ कर मुझे
सलाम कर गया।
७.
किस मुहब्बत की बात करते हो
वो जो शादी के मण्डप तक पहुंँची।
८.
मत रहने दे अनबोला
बेज़ुबान से बोला कर।
९.
संगम है प्रयाग का इश्क़
धर्मों में मत घोला कर।
१०.
हम भी ख़ुश थे सोच-सोच कर
दुनिया कितनी प्यारी है
समाचार सब पढ़ और सुन कर
जाना कि अख़बारी है।
११.
कुछ तो थी साहिल की ही
मजबूरी
और कुछ दूर थी कश्ती भी
दरिया में।
१२.
निभाते हैं वफ़ा हम अपनी ऐसे
निभाए पुरखों ने मज़हब जैसे।
☘️🌼☘️
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
⚡⚡
सोच समझ कर लिक्खा कर
दिल से दिल तक बोला कर।
•
लफ़्ज़ों को ख़ंज़र न बना
लहू न' काग़ज़ उजला कर।
•
रस्ते और हैं इफ़रात
काँटों पर क्यूंँ टहला कर।
•
जो भी कर रूहानी कर
वफ़ा यार भी पहला कर।
•
तुल जा ख़ुद यही बेहतर
रिश्ते ना यूंँ तोला कर।
•
घर,मन्दिर मस्जिद गुम्बद
ऊँचा तनिक मझोला कर।
•
मौसम अपने हाथ में धर
जी को उड़न खटोला कर।
•
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। ३० अगस्त,२०२२.
|⛺|
यह तो कुछ भी नहीं उस दिन
देखना रुतवा मेरा
उठाने आएगा ख़ुद आसमां
मुझको हथेली पर।
.
मुल्क को मिल्कियत समझें कुछ
सियासी लोग अपनी।
बाख़बर हुशियार रहिएगा शरीक़े
ग़ालिबों से। .
लोग अपना ही बदल लेते हैं
उन्वाने किताब
मुल्क में अब नहीं बिकने लगे हैं
उनकेे रिसाले
.
बाज़ार में आया नहीं है कोई नया
ब्राण्ड
नया एक दिल है मेरा मैं इसे
बेचूंँगा नहीं।
.
चल तो जाती है किसी तरह से
रोटी और दाल
मगर रिश्ते मेरी क्रय-शक्ति के
बाहर हो गये हैं।
.
हमारे दौर में सबसे बड़ा ईमान
ग़ायब है।
बची मोटर में आदमी की पेट्रोल
नहीं है।
.
कोई दुखड़ा लगे सुनाने तो
इज़्ज़त से सुनना
मत करना नाराज़ दुःख ख़ुद्दार
बहुत होता है।
.
हाथ में लिफ़ाफ़ा देखा नहीं कि
दोस्त कुछ अपने
झपट के हाथ से ख़त भाग जाते
थे कहीं, कैंटीन।
**
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
कहीं से ढूँढ़ कर लाओ मुझको लोगो !
सुबह ही निकला था लौट कर नहीं आया।
🏚️
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
मैं पन्द्रह अगस्त मनाता हूंँ
जैसे कोई बहुत ग़रीब बाप क़र्ज़ लेकर भी बेटी का व्याह धूमधाम से करता है, मैं १५ अगस्त मनाता हूँ।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडैस्क। १५.०८.२०२२
* लेखक-आलोचक विवाद-संवाद !
|🌀|
जिस क्षुब्ध मनोयोग और जितनी
गंभीरता से आजकल लेखक-
आलोचक-धर्म और परस्पर
सम्बन्ध पर चर्चा चल पड़ी है इन्हें
देखते और पहचानने की कोशिश
करते हुए मेरे मन में यह प्रश्न उठा
है कि आख़िर इसकी ज़रूरत क्या
है ? और जैसा समय चल रहा है
उसमें कहने की आवश्यकता
नहीं,मन में यह भी सवाल उठता
है कि व्यापार जगत में घमासान
चल रहे कॉर्पोरेट और ब्रॉडिंग
की लड़ाई के समान ही तो नहीं
यह भी।
अर्थात उत्पाद और विज्ञापन के
पारस्परिक संबंध के आधार पर
बाजार या पाठक-निर्माण की
प्रतिद्वन्दिता ? और ऐसा सोचना
कोई अस्वाभाविक भी नहीं लगता
है। क्यों न मान लेना चाहिए।
तो आलोचना के लिए लेखक
ऐसी बेचैनी क्यों महसूस करता
है ? बुनियादी प्रश्न है कि उसने
जब लिखना शुरू किया तो क्या
आलोचक से पूछ कर?हाँ लेखक
कई बार प्रकाशक की मांँग पर भी
सप्लाई-लेखन किताब करता है
जिसे प्रकाशक सज धज सेछापते
हैं। सब जानते हैं।
आजकल बाजार में कोई सामान/
वस्तु संबंधित व्यापारी पहले
उपभोक्ता-रुचि,रुझान का
सर्वेक्षण करवाता है तभी बाज़ार
में माल उतारता है।
लेखक क्या अपने पाठक की रुचि
का ऐसा पूर्व सर्वेक्षण का कार्य
करके लिखता है ? और अगर
नहीं तो फिर उसे इसकी क्या
अपेक्षा रहती है कोई आलोचक
उसकी किताब की आलोचना
करें ? लोकप्रिय साहित्य का
विचार दीगर क्षेत्र है। ऐसे में मांँग
और आपूर्ति के कार्य-कारण
संबंधित रचना और आलोचना का
लगभग वैसी ही युक्ति बनने लगती
है और तब दोनों में जिसका पलड़ा
भारी हुआ उपभोक्ता उसकी तरफ
आते हैं।
इसीलिए बतौर लेखक मैं ख़ुद से
यह प्रश्न सख़्ती से करने लगा हूंँ
कि
'आलोचना आवश्यक ही क्यों है ?'
यद्यपि,
आलोचना भी किसी रचना का
अपरिहार्य आनुषंगिक अंग है,मैं
इस मर्यादा को जानते और मानते
हुए यह प्रश्न उठा रहा हूँ।
आज के परिवेश/वातावरण में
प्राचीन और नैतिक मानस को
उत्तरोत्तर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
समझने और बरतने की जरूरत
है। लेकिन किस समझ के साथ ?
रचना-आलोचना-पाठक परिप्रेक्ष्य
में याकि जिनीस-बाज़ार-उपभोक्ता
के दायरे में? यह लेखक को तय करना है। आलोचक या पाठक की
इसमें कोई ख़ास भूमिका नहीं अतः दोष नहीं है।
यदि आपका लिखा साहित्य है तो
वह आलोचना-विवेचना के बिना
भी साहित्य ही रहेगा क्योंकि वह
अक्षरों में लिखा जा चुका है।
प्रकारान्तर से काल पर उत्कीर्ण
है। और यदि उपभोग की वस्तु है
तो अपने टिकाऊपन अर्थात आयु-
सीमा के साथ लोकरुचि-बाज़ार और सप्लाई के दायरे में
तो चलती रहेगी फिर एक दिन
सनलाइट साबुन या कोई कच्छा-
बनियाइन हो जाएगी। चुनना आपको है।
*
बहरहाल मैं तो आज अपनी ऐसी
ही आत्मग्लानि और पछतावे में
यह लिखने को विवश हुआ कि
मेरा हिन्दी कथा संग्रह 'भोर' भी है
जिसका लोकार्पण कुछ वर्ष पहले
प्रो०नामवर निवास पर उनके ही
द्वारा हुआ था और सौभाग्य से
डॉ.गंगा प्रसाद विमल,प्रो०
देवशंकर नवीन,प्रशस्त कवि मदन
कश्यप जी,जेएनयू के प्रो. सुशान्त
प्रो.सविता ख़ान समेत अन्यान्य
विशिष्टों की उपस्थिति में सम्पन्न
हुआ था।
कालान्तर में पुस्तक कुछेक तो
विद्वानों के औपचारिक स्नेहाग्रह
पर और कतिपय महोदयों को मैंने
अपने आग्रह से स्वयं पुस्तक दी
थी।कतिपय अनुज पीढ़ीके लेखक
को भी।
अब उसके कई वर्ष बीत चुके।
इन महानुभावों को पुस्तक की सुध
न रही। लिखना या कुछ कहना भी
ज़रूरी नहीं लगा। अतः अब
स्वच्छ मन और स्वविवेक से मैं उन
कुल चार-छ: विद्वान आलोचकों से
इस पर लिखना स्थगित कर देने के
विनम्र आग्रह के साथ अपना उक्त
हिन्दी कहानी संग्रह सादर वापिस
लेता हूँ जो विद्वान कदाचित् देखते
ही देखते स्वर्गीय आचार्य नलिन
विलोचन शर्मा,डॉ.नामवर सिंह,
डॉ.राम विलास शर्मा,प्रो.नगेन्द्र
और प्रो.सुरेंद्र चौधरी से भी बड़े हो
गये।
साथ ही,
उन विद्वान आलोचकों एवं प्रमुख
हिन्दी पत्रिकाओं के सम्पादकों का
हृदयसे कृतज्ञ हूँ जिन्होंने
यथासमय 'भोर' पुस्तक पर लिखा
और प्रकाशित करने का सहयोग
किया। स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएंँ !
💐💐
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। १४ अगस्त,२०२२.
🛖
ग़ज़लनुमा! एक पुरानी
क़िस्मत क़िस्मत रो-रो कर के
जीना भी क्या जीना है।
ज़हर को आशीर्वाद समझ कर
पीना भी क्या पीना है।
जो कहते हैं पूर्व जनम के कर्मों
का फल भोगते तुम
दोस्त समझ लो उन्होंने ही
सबकुछ तुमसे छीना है।
मौसम की रंगीन मिज़ाजी कुछ
दीवारों में है रखेल
उसे मुक्त करने का यारो यही तो
सही महीना है।
इनके सुनहले जाल को समझो
मंदिर-मस्जिद-गिरजा घर
इनके धर्म अँधेरे में अब ख़ूब
सम्भल के चलना है।
|🔥|
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
💐
एक मित्र सलाह !
ख़ामख़्वाह घर में बैठे बोर हो रहे
हों चाहे ज़बरदस्ती भी बौद्धिकता
न उपज पा रही हो,दाम्पत्य क्लेश
से,मित्र की उदासीनता से या
जिस भी स्थिति में हों कुछ नहीं
सोचिए बस फेसबुक पर हिंदी-उर्दू
भाजपा-कांग्रेस-कम्यूनिस्ट,आदर्श
और बिक गई पत्रकारिता पर एक
दो जुमले छोड़ दीजिए। बस।
दो-तीन दिन आराम से रहिए
साहित्य संस्कृति और राजनीति
के सब रस की हज़ार दो हज़ार
फेसबुक प्रतिक्रियाएँ पढ़ते हुए
चैन से पान-ज़र्दा चबाइए,मनमर्जी
खाइए पीजिए मस्त रहिए।
तब तक तेज़ प्रगति कर रहे
देश काल में मौजूद शैक्षणिक
पतन, स्कूलों में छुट्टी का दिन
सरकारी जीएसटी की गूढ़
विसंगति भ्रष्टाचार आदि पर कई
जलते-उबलते हालात पैदा हो
लेंगे। कोसते रहिएगा।कोई चिन्ता
नहीं। गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
🔥| ..
इससे पहले कि खु़शामद लगे
लगने यारी
बदल लेना चाहिए लहजा और
वफ़ादारी।
.
ज़रा से शौक़ में ज़्यादा मगर
सदाक़त में
हम भी मारे गये फ़ितरते
वफ़ादारी में।
.
उतने बेचारे भी नहीं हैं जितना
उन्हें समझते हो
किसी सुबह उठ्ठेंगे लेंगे अंगड़ाई
इन्क़्लाब होगा।
.....🔥..
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
🌖 जनहित याचिका 🌖
घनी बरसात में बदहाल
कामवालियों को
सुबह-सुबह गीले वस्त्रों में देख
कर दु:ख बुरा लगता है।
बहुत ग़ुस्सा आता है।
इस मौसम में इतनी ज़रूरी
उनके पास छतरी क्यों नहीं
रहती है अथवा रेन कोट?
ऐसे ही जाड़ों में भी,इसी तरह
कड़कती ठंढ के बीच सोसायटी
में आवश्यकता से बहुत कम वस्त्र
पहने सुबह-सुबह ठिठुरती हुई
कामवालियों को देख कर कलेजा
जलता रहता है और क्रोध में
ख़ुद ही निर्वस्त्र होने लगता हूँ ।
क्यों नहीं होने चाहिए हैं ज़रूरत
भर गर्म कपड़े इनके पास ?
तो कोई क़ानून पण्डित बतायेंगे
कि बतौर नागरिक अकारण यह
दु:ख उठाने के अभियोग में इन
काम वाली के मालिकों पर
जनहित याचिका का मेरा वैध
आधार बनता है या नहीं ?
या कि जैसा समय चल रहा है
कहीं,
मानवाधिकार वाले भी तो इसे
अपने चिन्ता-क्षेत्र से बाहर नहीं
रखे रहते ?
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
|| 🔥 ||
पूरी तरह अभी मिरा मरना नहीं
हुआ है
कहना अभी बाक़ी है,सबकुछ
नहीं कहा है।
.
नहीं अजब कि लगती हुईं हारी
ये साँसें
तूफ़ान ही बन जायें सिंहासन हिला दें ।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ता।
🏘️। ग़ज़लनुमा ।
मौत की हिचकी पर अट्टहास
इस ज़माने की बात है ख़ास।
बैठकों के सामांँ सोफों-से
देश का बदला जाए इतिहास।
किस प' करिए और नहींं किस पर
यार,भाई,समाज पर विश्वास।
देर तक टिकती थी तब उम्मीद
अब बिखर जाए पल भर में आस।
सूखता जाए है कुआँ जितना
और उतनी लगती है प्यास।
चला पता तक ना इतनी दूर
गया साथी कब अभी था पास।
बेकसी तो गुंजन उसको भी
मिरी तरह ही आई है रास।
⛺
गंगेश गुंजन,5मई, 2016. #उचितवक्ताडेस्क।
🌓
रूपक साहित्य
⚡
तो क्या साम्प्रत्तिक हिन्दी
साहित्य भी वर्तमान भारतीय
राजनीति के सत्ता और विपक्ष
का रूपक है ?
जब आदर्श का एक भी
उदाहरण बेदाग़ नहीं माना जाये
तो ऐसे वर्तमान का साहित्य
भी,इसी की फ़सल होगा न।
लगता है कि देश में विद्यमान
राजनीति की तरह साहित्य में भी
अपने प्रकार की इडी-सीबीआइ
इत्यादि ताक में और सक्रिय रहती हैं।
ऐसे में किन्हीं लेखक के 'जन्म
अमृत महोत्सव प्रकरण' का ऐसा
अखिलभारतीय कठविवाद तो
सहज स्वाभाविक ही है।
इस पर समग्र सम्यक विचार भी होगा क्या ? गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क। २७.०७.'२२
🌼 ग़ज़लनुमा 🌼
•
ठगी मुहब्बत में है
कुछेक फ़ितरत में है।
•
कम न दु:ख महलों के
बेहद ग़ुरबत में है
•
छीन कर क्या तारीफ़
असल मुरव्वत में है
•
हुस्न रख़्शांँ* है अच्छा
नहीं घूँघट में है।
•
उसे मना कर हारे
मज़ा वुस्लत* में है।
•
झूठ है कितना बुलन्द
सच जो ख़िदमत में है।
••
^ दीप्त,प्रकाशित,
* मिलन,वस्ल
.
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। २३.०७.'२२.
🌀। ! ।🌀
ग़ज़लनुमा
रोज़ -रोज़ मजबूर करेगा
हमको ख़ुद से दूर करेगा
सब्र छोड़ दे साथ हमारा
कुछ तरकीब ज़रूर करेगा।
देखें कबतक बुन कर रेशम
धोखे और मग़रूर करेगा।
छोड़ेगा जा कर सहरा में
इक दिन यही हजू़र करेगा
मरना तो है ही उसको भी
धतकरमी में ज़रूर मरेगा।
*
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
दो दू पँतिया
अस्सी पर आयाजो डॉलर बरपा हंगामा है
फीट-फाट के अर्थतंत्र का घाट मोकामा है।
रोटी पानी तक पर जीएसटी का पहरा जब साँसोंकी गिनती पर भी आ चला ज़माना है
🦩✨🦩
#उचितवक्ताडेस्क। गंगेश गुंजन
🦩। ✨ ।🦩
नया बरतना आना है
बाक़ी क्या समझाना है।
उनको आग लगानी है
हमको उसे बुझाना है।
नक़ली अँधियारे हैं कुछ
लोगों को बतलाना है।
फिर वो काँटे बोता है
पथ पर से चुनवाना है।
जग-जग कर आँखें हैं लाल
रहम किसे अब आना है।
क्या थे अपने बचपन के
और बुज़ुर्ग ज़माना है।
चलते हुए बहुत गुज़री
अब कुछ पल सुस्ताना है।
आये भी जो याद कोई
किसको भला सुनाना है।
इश्क़ सियासत एक समान
वादा और बहाना है।
**
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
🍁। |🍁
ग़ज़लनुमा
*
सियासत में यहांँ जबसे बखेड़े
हो गए हैं
गांँव के गांँव तब से ही अंँधेरे हो
गए हैं।
विचारों में यहाँ जब से हुई है
सेंधमारी
दलों मे ज़ात औ' मज़हबी फेरे
हो गये हैं।
रात खा और पीके सभी सोये
एक ही घर
इबादत और पूजाघर सबेरे हो
गये हैं।
कहांँ थी बात ऐसी दूरियांँ भी
इतनी तब
कहांँ ये थे कि जैसे मेरे-तेरे हो
गये हैं।
अगरचे उखड़ने ही हैं तम्बू
राजनीतिक
अभी ख़ूंँख़्व़ार नफ़रत के बसेरे
हो गये हैं।
*
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
💤
कितनी बेतुकी बहसों से घिरा हूँ
मैं भी कैसी सदी का सिरफिरा हूँ।
*
भूल जाना बड़ा सवाल रहा
याद आये सो तबीयत न बची।
*
आत्मा ख़ाली हो जिसमें
देह तो भारी होगी ही न।
*
सच बहुत वज़नी है घर में रक्खें
जेब में ख़ुशामद रखते हैं लोग
*
भूल गये सब कुछ तो यादें रखा करो तन्हा सन्नाटे में यौं मत मरा करो।
*
दोस्त भी चाहे अब हाँ में हाँ
पाक यारी को तरसते हैं लोग
*
चलने लगे तो देखिए हम आ गये कहांँ तक
थक गये तो रास्ते के बीच में नीन्द आ गई।
*
भूल जाना बड़ा सवाल रहा
याद आये सो तबीयत न बची
*
मुश्ताक़ों के गये ज़माने याद कर
इन्तज़ार अब कौन किसी का करता है।
***
गंगेश गुंजन,
#उचितवक्ता डेस्क।
. ✨ .
जज़्ब करना नहीं आया होता
दुख से कब के न मर गया होता
उसे चिढ़ थी मिरी ख़ुद्दारी से
मैं ही ख़ुद्दार क्यों हुआ होता।
मेरे पसीने पर हो भी उसका
ख़ून पर तो न हक़ हुआ होता
देखिए बदनसीबी कि हमसे
कोई जो बावफ़ा हुआ होता
आँख भर नम होती मान लिया
दिल तो पगला नहीं हुआ होता
किस मुहब्बत को रोता है वो
और बदहाल क्या हुआ होता
इश्क़ की जंग अब सियासत से
मुख्य मंत्री मजनूँ हुआ होता।
🌼 गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
⚡⚡ डर ⚡⚡
उन्हें डर है कि कभी भी उनकी हत्या कर दी जाएगी
मगर नियमानुसार सुबह की
सैर,शाम की महफ़िलें करके
अपनी सहूलियत से बेख़ौफ़
बहादुर लगते हुए घर लौटते हैं,
अपने सपने में खो-सो जाते हैं वे
झूठ बोलते हैं कि असुरक्षित हैं
कभी भी उनकी हत्या हो सकती है।
ऐसा क्या है कि सफ़दर जंग,राम
मनोहर लोहिया या एम्स
अस्पतालों में नहीं,ज़्यादातर हत्या
का मृत्यु-भय
सम्भ्रान्त आइ आइ, हैबीटेट और
नगर महानगरों की प्रेस क्लब
टाईप जगहों पर ही फैल कर पूरे
माहौल में पसर जाता है जो
नित्य समय पर ही खोले और
सुरक्षित बन्द किए जाते हैं ?
तो क्या हत्या अब इतना
दुस्साहसी नाटकीय हो गयी है
अथवा क़ाबिल किरदार या कि
नगर-महानगर के राष्ट्रीय रंगमंच
टाईप सभागारों मे निर्देशक इतने
असहाय हो गये हैं?
कैसा बदल गया वक़्त का
मिज़ाज !
लोगों की समझ,सोच,मन-मानस
सब तब्दील हो गये हैं-
शहादतों के क़िस्से भरे महान
देश के दहशतों की दुर्दान्त
पटकथाओं में।
सम्प्रति,
शहीद होने के अवसर ग़ायब हैं
यह किससे कौन पूछे,कहे-
शहादतों के क़िस्से भरे महान् देश में। !🌺! गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
⬛
ये कैसा डर सता रहा है मुझे
वक़्त किस सू ले जा रहा है मुझे
अभी कल तक यक़ीन था उस पर
आज फिर क्यों न आ रहा है मुझे।
एक बेख़्वाब आदमी मुझमें
बैठ कर के घुमा रहा है मुझे।
आँख की रौशनी दिल की धड़कन
हड़प कर ज़िन्दा बता रहा है मुझे।
काफ़िला बदहवास रूहों का
मेरे दिल में दिखा रहा है मुझे।
🌼 गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
🌼
दु:ख से दोस्ती जो कर ली
जल गया सुख,भागता आया।
.
सुबह रफ्त़ार से यूंँ आई।
रात चुपचाप घर से भागी।
.
पत्थरों से हल नहीं होता।
यों मुकम्मल नहीं होता। . दिल जब पत्थर हो जाता है
ताज तोड़ने लग जाता है।
.
अजब वक्त है ग़ज़ब सियासत
झगड़े को दंगा करते हैं।
बांँट - बांँट कर भाई-भाई
घर-घर भिखमंँगा करते हैं।
.
ज़िन्दगी की तमाम तीरगी। सामने एक जुगनू उम्मीद ।
.
ज़िन्दगी से डर गये तुम भी।
रास्ते में ठहर गये तुम भी ।
.
यह जीवन इतना भर अपना।
रिश्तों का अनुदान रह गया ।
.
उनकी बावस्तगी भी न रही ।
और हम भी अब कहांँ जाते !
.
गंगेश गुंजन
अन्याय भी कभी थकता है।
थका हुआ अन्याय ही कोई लंका-दहन और महाभारत होता है।
💤 गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
🛖
१.
जान गिरवी रख दी मैंने
क़बाला दिल छुड़ाने के लिए।
२.
भूल जाता है आना भी, मुन्तज़िर हो गए हम किसके। ३.
सुख काग़ज़ दु:ख पेपरवेट
अनुभव यह होता है लेट। ४.
नक़ली बातों का बाज़ार सुन्दर ग़ज़ब दिखावा है। ५.
स्वर्ग लिखे तो क़लम हिन्दू , लिख के जन्नत मुसलमान है
६.
देख-सोच कर बेहद चिंतित,
मन विचलित ये परेशान है।
७.
यक़ीन कर हम पर नज़र रख।
सहर हूंँ ज़रूर आऊंँगा।
. . गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
🌓
गर्दिश में गुल के अफ़साने कहते रहते हैं
तूफ़ाँ में बेख़ौफ़ तराने गाते चलते हैं।
।२।
तुम्हारे ज़ेह्न में आता कहाँ से मैं कैसे
सदा तो रखा गया हूँ किताब से बाहर। गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
मन की मिट्टी ख़राब है वरना
कौन हिन्दू और कौन मुसलमाँ ।
🌓 गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
निरभिमान इतना कि मुझे दूब भर समझें।
स्वाभिमान में पर्वत पर मैं देवदार हूंँ
| गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।