Tuesday, November 22, 2022

सत्ता का पंचरंगी : विविध भारती

🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵🌵

  ||  सत्ता का पंचरंगी विविध भारती  ||

  यह भ्रम है कि सत्ता का खेल सिर्फ़ राजनीतिक राजकाज की सत्ता व्यवस्था अर्थात् सरकारें ही खेलती हैं। नहीं।
अपवाद छोड़ कर सत्ता सामर्थ्य का खेल वे तमाम संगठन और समाज साँस्कृतिक संस्थासँ भी अपनी शक्ति भर उसी तरह करती हैं। वे ग़ैर सरकारी कला-साहित्य
के संस्थान भी अपनी-अपनी सत्ता का मज़बूत केन्द्र हैं तथा अपने हित में अपनी पसन्द और निर्णय का खुल कर उपयोग करते रहते हैं जो सम्बन्धित अध्यक्षों-सचिव-
महासचिवों के क्रियाकलापों में प्रगट होते रहते हैं।
  इन संस्थाओं से उपकृत होने की प्रत्याशा में भी लोग क़तारों में खड़े हैं। प्रौढ़,पुरानी पीढ़ी को तो छोड़ें तेज़ तर्रार नयी प्रतिभा की पीढ़ी के युवा भी 'जी,सर' की मुद्रा में खड़े
रहते हैं।
   यह विडंबना बहुत नयी भी नहीं लेकिन इसका ऐसा उग्र संगठनात्मक उतावलापन नया है। उससे भी चिन्ताजनक यह है कि
यह प्रवृत्ति कोई भाषा या क्षेत्र विशेष भर की नहीं सार्वदेशिक प्रतीत हो रही है।
                   👣 । 👣
                   गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।                                     २३.११.'२२.

Sunday, November 20, 2022

प्रतिरोध की कविता

                      🔥 |                                                 प्रतिरोध
   कुछ कवि के पास
  बड़े आराम से आती है कविता !
  जैसे इंडिया इन्टरनेशनल सेन्टर,
  इंडिया हैबिटैट और विशाल 
  सम्भ्रांत होटलों के पोर्टिकों में
  आकर लगती है
  मिलने आये उनके दोस्तों की
दामी मोटर गाड़ी।                                  तीव्र वेग से छलकता है कविताओं में
  दीन हीन शोषित वंचित जन की
यातना- कथाओं का दर्द !
बड़ी सहजता से आ मिलता है
उनकी कविता में प्रकृतिस्थ
प्रामाणिक यथार्थ
अगले दिन विमर्श के केन्द्र में पहुँच
जाता है इत्मीनान से।
उठे हुए हाथ के तीखे तेवरों की
फ़ोटो सहित अख़बार और चैनेलों
में छा जाता है उनके प्रतिरोध का
प्रारूप।

              गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Sunday, November 13, 2022

हर मुसीबत की घड़ी में: ग़ज़लनुमा।

                      | 🌔 |
हर मुसीबतकी घड़ी में होगा उसका आसरा
अब कहाँ मानेगा वो ये था उसीका फैसला।
                        •
लौट कर तूफ़ाँ से लड़ कर बहुत ख़ुश था कारवाँ
क्या ख़बर थी बाद में बे इन्तिहा था रास्ता।
                       •
अब तो सब क़िस्से हुए रिश्तों से लेकर   सरज़मीं
माज़ीए मायूस तेरा सिलसिला बाज़ाप्ता।
                      •
मौत से है रंज हमको भूल से मत सोचिये
हर जनम उससे है मेरा दोस्ताना राब्ता।
                      •
मखमली आग़ोश में जो लेट कर सोने में है
मज़ा तो बस है उसी को जिसको है इसका पता।
                     •
हर जुदाई इन्तिहाई हो रही जैसे रिवाज
देखते हैं अपने ही लोगों में जैसा फासला
                     •
मौज के जिस हादसे ने डुबो दीं वे कश्तियाँ
मुकम्मल रौशन जहाँ में सियासी था मामला
                    •
मुसीबत थी पाँव की जूती मेरी पूरे सफ़र
रात भर था साथ अपने हौसले का काफ़िला
                   •
जब तलक बदले नहीं अब सल्तनत का ढब मिज़ाज
आम जन के दु:ख का आता रहेगा ज़लज़ला।
                     ••
               गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

 

Saturday, November 5, 2022

प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय जी का जाना...

...तो आप भी चले ही गये
प्रो.पाण्डेय जी.
   बहुत दुखद हुआ।
  नमन स्मरणाँजली 🙏 ! सादर,

               गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।                                     ०६.११.'२२.

सपने में कार्ल मार्क्स और नागार्जुन

।।      सपने में मार्क्स और नागार्जुन     ।।
                  ⚡🌺⚡

मैंने देखा कि बहुत बूढ़े हो गये संत कार्ल मार्क्स एक पुराने जर्जर घर में तनिक चिंतित से बैठे थे। उनकी गोद में उनकी अधखुली किताब रखी है। सहमे-सहमे आगे से मुझे गुजरते हुए देखा।और पास बुलाया। मैं डरा हुआ पास गया तो पूछा -'किधर जा रहे हो ?’
मैं तो यह जान कर कि मार्क्स जी हिन्दी बोलते हैं ख़ुशी से चकित था किंतु तुरत सहज हो गया। मैंने उनके पैर छूकर प्रणाम किया और कहा-
-मधुबनी जा रहा हूँ दादा जी। कोई काम है ? आज्ञा करिये।’ कहकर मैं इंतज़ार करने लगा कि क्या कहते हैं। दादा एक पल चुप रहे। फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा -‘सुना है नागार्जुन वहीं रहते हैं आज कल?’
'जी दादाजी।’ मैंने ख़ासे उत्साह से कहा।
'कहना जरा कि मैंने उसे बुलाया है।खोज रहा हूंँ बहुत दिनों से। उससे बहुत ज़रूरी काम है। उससे कहो जितनी जल्दी हो मुझसे मिले।’
मैं तो उनका कहा सुनकर खुशी से स्टेशन की तरफ़ ही दौड़ पड़ा। कि अचानक क्या देखता हूंँ कि जब तक मैं स्टेशन जाऊं उससे पहले रिक्शे की तरह लुढ़कता हुआ हवाई जहाज आकर सामने में खड़ा हो गया। हवाई जहाज चलाने वाले ने खिड़की से झांक कर मुझे इशारा किया और पूछा कहां जाओगे मैंने बताया मधुबनी जाना है।
-मधुबनी का रास्ता आपको मालूम है?’ बोला-’बैठ जाओ।’और मैं ऐसे बैठ गया हूं। जैसे नोयडा में तिनपहिया पर बैठता हूँ। पलक झपकते ही हवाई जहाज मुझे लेकर मधुबनी पहुंच भी गया। स्थानीय दबंगों द्वारा गंगा सागर पोखरे की कब्जा़ ली गई ज़मीन पर हवाई जहाज़ हेलिकॉप्टर की तरह उतरा। अब  झटपट बाबा की तलाश की। यहीं की एक मुड़ी-घुघनी की दूकान पर बैठ कर तो मां उम्र की बुढ़िया दुकान मालकिन से बाबा तमाम तरह की बातें बतियाते रहते हैं। पता चला वहां से अपने गांव तरौनी चले गए थे। मैंने हवाई जहाज वाले से कहा-’मुझे वहां ले चलते हो?’
‘दिखाओ रास्ता। मुझे नहीं मालूम है।’
‘मैं दिखाऊंगा मार्ग । उसने मुझे अपने बगल वाली सीट पर ही बिठा लिया। मैं रास्ता बताने लगा।
तभी देखता हूँ कि नीचे मेरे मित्रम का गांव दहौड़ा पीछे छूट रहा है।बड़ी इच्छा हुई  दो मिनट मित्रम से क्यों  न मिलता चलूँ . लेकिन तत्काल ध्यान आया - अब कहां रहता है गांव में वह . वहभी तो विराट नगर ही रहने लगा है.....| कि तबतक देखता हूँ हम बहुत जल्दी ही तरौनी पहुंच गये। अपने छोटे-से दालान में बैठे‌ बाबा,साहर का दतुअन कर रहे थे। दतुअन की कुच्ची के कुछेक रेशे बाबा की दाढ़ी पर चिपक रहे थे। उन्हें प्रणाम किया और बहुत हड़बड़ में ही कह डाला-
‘बाबा आपको कार्ल मार्क्स ढूंढ़ रहे हैं। उन्होंने बुलाया है। बहुत जरूरी काम है उनको।’
बाबा अपनी दाढ़ियों के बीच मुस्कुराए और बुदबुदाये -‘लगता है बुढ्ढा बहुत गुस्साया हुआ है। बहुत खुखुआयगा। क्या करूंगा डांट सुन लूंगा।’
-ठीक है। देह पर जरा दो लोटा पानी ढार लेते हैं । जर्जर हो गये पुराने कुएं से डोल से पानी ख़ुद निकाला। सीधे माथे पर उड़ेला। जल्दी-जल्दी गमछा से शरीर पोछा। कुर्ता धोती पहन,चप्पल पहनी और झटपट निकल पड़े। जाते-जाते मुझे हिदायत देने लगे- ‘बुढ़िया को तो गोतिया गांव की बहू-बेटी का कल्याण करने से फ़ुर्सत हो तब न। सुबह-सुबह टहल जाती है। कह देना शाम तक लौट आऊंगा। हमको ढूंढने शोभाकांत को मत भेजने लगे...।’
बुढ़िया माने हम लोगों की बाबी-काकी !
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि देखा एक पेड़ के नीचे हवाई जहाज वाले पसीना पोछते हुए खड़े हैं। जैसे ही बाबा आए उनको उठाया और लेकर उड़ गया।
जाते-जाते बाबा बोले: गुंजन तुम अभी मेरे गांव में ही रहो। तुम्हारा स्पोण्डोलाइटिस कैसा है,किस डाक्टर से इलाज करवाया,आकर पूछूंगा। अभी मैं तुरंत लौटता हूं।’
और आश्चर्य ! मैं आस-पास इधर-उधर आंखें दौड़ा ही रहा था कि इसी बीच में बाबा सच में लौट आए । हालांकि मुझे थोड़े चिंतित लगे। मुस्कुरा नहीं रहे थे। उनके हाथ में वही किताब देखी जो मैंने कार्ल मार्क्स के हाथ में देखी थी।
-तुमको किसी ने खाना-वाना भी दिया या नहीं?’ यह पूछते के साथ ही खुद ही कहने लगे- कौन देगा यहां अब खाना खाने किसी को। रहता ही कहां हैं कोई अब।’  
         बाबा उदास हो गये। लेकिन तभी जैसे अचानक उन्हें याद आया और बगल के थैले से बिस्कुट का एक पैकेट निकाला।डिब्बा खुला हुआ था।
और कहा- ‘लो,यह खाओ। आते समय बुढ़उ ने मुझे रास्ते में खाने के लिए दिया था। मैं पूरा नहीं खा पाया। खा लो कार्ल मार्क्स का नैवेद्य समझो!' कहकर तनिक बिहुंसे।
-‘क्या काम था बाबा ?आप बड़े चिंतित लग रहे हैं। और यह किताब तो थोड़ी देर पहले मैंने कार्ल मार्क्स की गोद में देखी थी।’ मैंने कहा तो बाबा ने जवाब दिया-उन्हीं की पुस्तक है। अब वह कहते हैं कि इस किताब में मेरा कहा हुआ बहुत कुछ इसमें पुराना हो गया है।जैसे बहुत दिनों तक रखे-रखे हंसिया-कुदाल भोथ हो जाती है न। ज़ंग लग जाती है न? लगता है मेरी सुझाई बातों का वही हाल हो गया है सो अब नये औजार गढ़ने की ज़रूरत है। इसलिए किताब का थोड़ा परिवर्तन-परिवर्धन करना है। दूसरा संपादित संस्करण निकालना है। सो इसे तुम पूरा करो। इसका संपादित परिवर्तित संस्करण निकालने की जिम्मेदारी तुम्हारी है।’
अब यह काम कोई मामूली,छोटा-मोटा है?इस महान किताब का परिवर्धन,परिवर्तन और संपादन ? कितनी बड़ी चुनौती है ? कितना जोखिम है बताओ ?और बहुत समय साध्य है सो अलग। किसी तरह तो कविता लिख कर अपना गुजर करता हूँ। ऊपर से यह …।’ बाबा सचमुच चिंतित हो गये।
-आपने कहा क्यों नहीं कि आप यह काम नहीं कर सकते। बहुत थक भी तो गये हैं।अब इस उमर में...।’
‘ये सब मैंने क्या कहा नहीं उनको। मगर मानने को तैयार ही नहीं।कहने लगे- देखो उम्र में तुमसे मैं तो कितना-कितना बड़ा हूं,तो मैं काम कर रहा हूं कि नहीं। हमलोग सेहत,अभाव और उम्र की लाचारी नहीं दिखा सकते यात्री ! हम आख़िरी सांस तक रेंगते हुए भी मिहनत करने के लिए तबतक मजबूर हैं जब तक अपनी सबसे अच्छी दुनियां रचने का हमारा सपना पूरा नहीं हो जाता ! यह क्यों भूल जाते हो?’ अब इस पर क्या कहता,तुम्हीं बोलो। अब बुड्ढे ने कहा है तो हुकुम तो मानना होगा। आखिर वो जनक समान है हमारा।’बाबा चुप हो गये।
‘लेकिन आपने उनसे पूछा नहीं कि यह संपादन करने का ख़्याल कैसे आया उनके दिमाग में और क्यों ?’ मैंने जो पूछा तो बाबा जरा खीझ से गए-
‘अरे सो तो और हैरान करने वाला जवाब दिया उन्होंने।कहने लगे- पिछले दिनों दो-तीन नौजवान मेरे पास आये। सभी खद्दर पजामा जेपी कुर्ता पहिने हुए थे। खुंटिआई दाढ़ी वाले। आदर्शवादी से बड़े बेचैन-से लेकिन प्यारे लगे। मुझे देखकर एक छूटते ही बोला-हमने किताबों में आपकी फोटो देखी है।आप कार्ल मार्क्स ही हैं न? ’
एक नौजवान ने उनको टोक दिया  ‘बाबा आपने यह किताब लिखी तो हमारे गुरु ने तो कहा था इस किताब के सिद्धांत से पूरी दुनिया बदल जाएगी। सभी सामाजिक भेदभाव-जात-पांत,ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी,सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। सभी तरह का शोषण बन्द हो जाएगा। दुनिया भर मनुष्य का समाज बदल कर एक समान हो जाएगा। आपने ऐसे वैज्ञानिक मार्ग का सिद्धांत बना दिया है। लेकिन इतने दिनों से मैं देख रहा हूं कि- कहां बदल रहा है समाज ? सब जो जैसा चल रहा था वैसा ही चल रहा है।बचपन से ही देखता आ रहा हूँ। अभी बाईस बरस के हो गये हैं,तब भी वही सब देख रहा हूं। बल्कि अब तो बुराइयां,झगड़ा- झंझट,ज़मीन- -मुकदमा, कोर्ट-कचहरी, जाति-धर्म का हल्ला-गुल्ला,सब कुछ और बढ़-चढ़ कर होता हुआ लगता है।फिर तो आपकी किताब गलत साबित हुई। कुछ तो लोचा रह गया है उसमें।वरना फेल क्यों होती?तो अपनी किताब को फिर से पढ़कर इसमें बदलिए और काम की जरूरी बातें जोड़िये।
ज़ाहिर है युवक की उस “ किताब में ...लोचा रह गया है” वाली बात पर मेरा चेहरा तमतमाया होगा। अब ये गुस्सा गया सा चेहरा जो देखा तो वे सभी सहम गये और डर से जल्दी-जल्दी भाग गये। उनके इस तरह भाग जाने के बाद मैं बहुत सोच में पड़ गया। बहुत बेचैन रहा। लेकिन दिल ने यह कहा- अपनी ‌ही लिखी हुई है तो क्या,मुझे किताब फिर ज़रूर से पढ़नी चाहिए।और तब बहुत कुछ सोचता रहा और तब नौजवानों पर क्रोध भी होता रहा, वे भागे क्यों? अगर कोई विचार है मन में तो निडर भी होना चाहिए। भयमुक्त होकर उसका पालन- पोषण करना चाहिए। इस तरह उनका डर जाना मुझे ज्यादा बुरा लगा। मुझसे बहस करते। मेरा भी पक्ष सुनते  .भाग गये। उनमें से कोई एक भी अभी मिल जाए ना तो मैं अपनी इसी छड़ी से उसे पीटूं। सो युवकों के संवाद से विचलित हो गये मन के इसी द्वन्द्व भरे दौर में सोचता रहा,याद करता रहा। लोगों को याद करते हुए इस सिलसिले में मुझे तुम्हारा ध्यान ही आया। सो मुझे लगता है यह निर्णय मैंने सही निर्णय लिया है। अब यह काम तुम झटपट कर दो। मैं थोड़ा निश्चिंत होकर देखता जाऊं।तुम समझ रहे हो न मेरी बात?’
बाबा ने सुस्ताने की तरह एक लंबी सांस ली और जैसे स्वीकारात्मक थकान से भरे कहा-
‘अब तुम ही कहो मैं क्या करता ? बुढ्ढे का हुक्म है तो मानना ही पड़ेगा ना। अब रहूंगा तरौनी ही जबतक पुस्तक का संपादन काम पूरा नहीं हो जाता।’ कंधे से चरखाना लाल गमछा उतार कर बाबा ने चेहरा और गर्दन का पसीना पोछा।
-लेकिन कब तक चलेगा किताब संपादन का यह काम,बाबा ? आप कब तक संपादित परिवर्तित कर देंगे?’ मैंने युवकोचित उतावलेपन से पूछा।
बाबा ने कोई जवाब तो नहीं दिया लेकिन मैं बहुत खुश हुआ कि बाबा अब कार्ल मार्क्स की इस ऐतिहासिक किताब संपादन कर लेंगे और नया परिवर्तित संस्करण निकलेगा ऐसा बाबा कार्ल मार्क्स ने हुकुम दिया है उन्हें।आख़िर यह काम कार्ल मार्क्स ने बाबा को ही क्यों सौंपा ? देश- दुनिया भर एक से एक बड़े लेखक भरे-पड़े हैं ! कि तभी मुझे याद आया दादा की छड़ी वाली बात सुनते ही मैं परेशान क्यों हो उठा ? अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा- ‘बाबा वो छड़ी कहीं शिमला वाली तो नहीं थी ? अच्छी लकड़ी वाली कत्थई कत्थई रंग की ?’
-हां,लेकिन तुम कैसे जानते हो ?’ इस बारी बाबा ने ही शक से तमकते हुए पूछा ! मैं जैसे चोरी पकड़ ली गयी हो,घबड़ाया और जल्दी-जल्दी बोल बैठा- वह छड़ी तो दुर्गा पूजा में एक बार मेरे पिता जी के लिए शिमला से मेरे जीजा जी ले आये थे। लेकिन वो तो उस दिन मैंने दादा मार्क्स जी के पास देखी थी। हमें लगा कि गुस्से में उनका हाथ अपनी छड़ी की तरफ बढ़ रहा है सो हम डरकर भागे...कहते हुए बाबा से भी डर कर भागने लगे . बाबा ने ज़ोर से कहा-रुक रे गुंजन रुक जा रे। डर मत। मत डर ।’ मैं सहसा वहीं का वहीं रुक गया। मुंडी झुका कर खड़ा हो गया। मेरा बायां हाथ हाफ़शर्ट की बायीं जेब में था।हाथ में छड़ी लिए धीरे-धीरे बाबा मेरे क़रीब आ गये।
‘बताओ क्या बात है ?’ बाबा ने‌ हड़काते हुए पूछा। तुम भागे क्यों ?और ये तुम्हारी जेब मैं क्या है? दिखाओ।’उन्होंने फिर मेरी जेब में हाथ डाला और पूछा क्या है यह?’
-लताम,बाबा !’ मैंने सहमते हुए जवाब दिया।
तीन डम्हक अमरूद थे।
-वह तो मैं भी देख रहा हूं! किसके पेड़ से चुरा कर तोड़े हैं?' उन्होंने मेरे बालपाठ कक्षा के समय मेरे गार्डियन बड़का भैया की तरह बनावटी कठोरता से पूछा।
-चुराये नहीं,तोड़े हैं। आपके गाछ से,बाड़ी के गाछ से बाबा ।’ मैंने जवाब दिया।
-अरे मगर तीन-तीन अधपके ही अमरूद क्यों तोड़ लिए ?’ बाबा ने पूछा।
-हम लोगों को एकदम पका हुआ लताम(अमरूद) अच्छा नहीं लगता है। डम्हक ही अच्छा लगता है। आपके तो अब दांत दुरुस्त नहीं रहे ना बाबा। इसीलिए।
-उन दोनों के लिए भी ले जाऊंगा। दोनों कितने ख़ुश होंगे जब मालूम होगा कि ये लताम बाबा- गाछ के हैं!
बाबा हंस पड़े। और हंसी के साथ उनकी दाढ़ी भी झूल कर हंसने लगी ठीक जैसे उनकेे चिढ़ने या ग़ुस्साने समय उनकी दाढ़ी-मूंछ भी चिढ़ी और ग़ुस्साती हुई लगती है। हालांकि बाबा ने अपनी छड़ी संभाली थी लेकिन मैं इतना उद्वेलित हो गया कि नींद खुल गयी।
तब से मैं जगा ही हुआ हूँ।
                       *
-गंगेश गुंजन 30 मार्च 2019.

Friday, November 4, 2022

मुहब्बत भर मुहब्बत कीजिएगा

                    🌼||🌼
       बहुत जो लोग महरूमे वफ़ा हैं...   
                       **                         
     मुहब्बत भर मुहब्बत कीजिएगा।
     ज़रूरत भर  मुरव्वत कीजिएगा।

     कोई जिनिस नहीं कि जमा कर लें 
     थोक में कर न आफ़त कीजिएगा।

     बहुत से लोग महरूमे वफ़ा हैं      
     जाइए तो वसीयत कीजिएगा।

     बहुत कुछ है अभी दरकारे दुनिया 
     एक ये भी शरीअत* कीजिएगा।

     इश्क़ कंजूस भी कोई नहीं है
     तबीयत से मुहब्बत कीजिएगा।
 
     किसी को दें अगर कुछ भी कभी जो
     तवक़्को फिर कभी मत कीजिएगा।

     यहाँ मायूस क्यों हैं लोग इतने
     जानिए जो मुहब्बत कीजिएगा।     
   
                   🌿। || ।🌿 
                   गंगेश गुंजन,                                    #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, November 3, 2022

ग़ज़लनुमा

 🐾।                        ।🐾

      ज़िन्दगी  रात भर  है
      इक मुलाक़ात भर है।
                   •
      प्यार के  मौसम की
      हिज्रे सौग़ात भर  है।
                   •
      अस्ल तो दिन  न रहे
      बस ख़यालात भर है।
                    •
      रात  अब  जुगनू की
      कोई  बारात भर   है।
                    •
      चाहिए  रुपया-पैसा
      पास जज़्बात भर है।
                    •• 
             गंगेश गुंजन                                        #उचितवक्ताडेस्क।                                     (पुनः प्रदत्त) 




 


     

ज़िन्दगी रात भर है : ग़ज़लनुमा

 🐾।                        ।🐾

      ज़िन्दगी  रात भर  है
      इक मुलाक़ात भर है।
                   •
      प्यार के  मौसम की
      हिज्रे सौग़ात भर  है।
                   •
      अस्ल तो दिन  न रहे
      बस ख़यालात भर है।
                    •
      रात  अब  जुगनू की
      कोई  बारात भर   है।
                    •
      चाहिए  रुपया-पैसा
      पास जज़्बात भर है।
                    •• 
             गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।