Monday, December 24, 2018

सब्सिडी सिर्फ वित्तीय अनुदान ही नहीं !

सब्सिडी सिर्फ वित्तीय अनुदान ही नहीं !
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सब्सिडी का स्वरूप आज की तारीख में सिर्फ वित्तीय और सरकारीअनुदान ही नहीं है। मुझे लगता है सब्सिडी कई रूपों में समाज के संपन्न लोग भी प्राप्त करते हैं।और उसे अपनी संपन्नता बढ़ाते हैं किंतु अंततः सरकारी जो संगठन है जो संकाय और विभाग हैं उन पर किसी न किसी रूप में पड़ता  उसका बुरा प्रभाव पड़ता रहता है।

जहां तक कम्प्यूटर और नागरिक निजता का प्रश्न है उस संदर्भ में जो सच वे कह रहे हैं और कहे जा रहे हैं उनका औचित्य देश की स्वतंत्रता देश के संग सुरक्षा और जनताके कल्याण से बड़ा नहीं है। हम जैसे नागरिकों के मन में यह भी एक प्रश्न उठता है कि जनसाधारण कम्प्यूटर धारी जनसाधारण भी उसे इस निजता स्वतंत्रता के सवाल पर सशंकित होने और डरने की क्या जरूरत है ? डरने की क्या जरूरत है ?और जो अन्य तबका है समाज का बुद्दिजीवी वर्ग तवक़ा उसमें,समृद्धि की और बढ़ने वाले लोगों का तवक़ा उनकी गतिविधियां राष्ट्र विरोधी ना भी हो सकती हैं तो भी कुछ अनियमितताओं से भरी हुई रह सकती हैं। इसीलिए उन्हें सशंकित होना पड़ रहा है।जनसाधारण किसी भी दुराचरण में क्यों पड़ेगा ? उसे तो अपना छोटा सा घर-परिवार, दिन और रात सुचारू चलाने की चिंता रहती है ।और सामान्यत: नियम के दायरे में रहकर जीवन यापन करने का स्वभाव होता है ,जबकि बड़े-बड़े एन.जी.ओ. वाले,बड़े अखबार, बड़ी संस्थाएं, बड़े ट्रस्ट बगैरह इन सबों में बहुत प्रतिशत अवश्य ही ऐसे होंगे जो राष्ट्र विरोधी नहीं होकर भी देश की विधि व्यवस्था विरोधी गतिविधियों में संलग्न हो सकते हैं और अपने को समृद्ध कर रहे होंगे। तो यह निगरानी भी क्योंकि उनके सरकारी विज्ञप्ति के दायरे में आ जा सकती है इसलिए उनका चिंतित और चौकन्ना होना स्वाभाविक है।

परंतु एक बार फिर बड़ी चतुराई से उच्च मध्यवर्गीय और उच्च वित्तीय लोग जो अपने स्वार्थ और उसी के अनुसार समझ के दायरे में जनसाधारण के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं। इसका क्या औचित्य है ? मुझे नहीं लगता कि सरकार की इस नई विज्ञप्ति में,जिसे तमाम नागरिकों की निजता पर हमला बताया कर प्रचारित और हल्ला बोल दिया गया है वह उचित या सही है। भारतीय समाज की आज भी यही वास्तविकता है । अधिकांश प्रतिशत लोगों की जिन्हें हम सचमुच जनसाधारण कहते हैं सामान्य जनता कहते हैं उनकी चिंताओं में बहुत पारंपरिक और पवित्र रूप से देश की चिंता है और वे अपने अपने स्तर से नियमानुसार सीधा साधा और सच्चा जीवन यापन करते रहते हैं। वे हमारे नियम मुताबिक संविधान के अनुसार और दायरे में ही अपना स्वार्थ तय करते हैं और उसे सिद्ध करने की मशक़्कत में लगे रहते हैं ।इसीलिए यह धारणा फालतू है कि इस सूचना के तहत सारे कम्प्यूटर धारी लोग भारत में निजता खो देंगे । ऐसा नहीं है । क्योंकि अभी भी बड़ी-बड़ी संस्थाएं अधिकांश बहुत नियमानुसार और राष्ट्रीय स्वास्थ्य को अपने एजेंडा में रखकर नहीं चल रहे हैं यह तो सर्वविदित है। राष्ट्रीय सुरक्षा सिर्फ सीमा सुरक्षाबल से नहीं देशप्रेमी नागरिकों पर भी टिकी होती है। संस्थागत संहिता एवं वित्तीय अनियमितता से भी देश दुर्बल होता है। संविधान कमज़ोर होता जाता है।

यह प्रश्न जनसाधारण की निजता के दायरे का बिल्कुल नहीं है। अपितु यह समाज के कुछ प्रतिशत समृद्धि लोग, परिवार और कुनबे के संदिग्ध विमति समूह का प्रायोजित हल्ला बोल है जो सरकार की सुविधा और मिलने वाले संरक्षण के रूप में सब्सिडी लाभ उठाने के आदी हो चुके हैं। संविधान प्रदत्त निजता के अधिकार की आड़ में सब्सिडी अपना विशेषाधिकार मानते हैं और स्वतंत्र भारत में गत कितने ही दर्शकों से निर्विरोध और सुविधा पूर्वक प्राप्त कर रहे हैं ।

अतः मुझे तो लगता है कि यह विज्ञप्ति उनके सब्सिडी छीनने की घोषणा है और वह सहन कर हर बार की तरह हर मुद्दे की तरह इसे भी जनसाधारण से जोड़कर उनका स्वार्थ बता कर अपना युद्ध जीतना चाहते हैं जो प्रकार अंतर से राष्ट्र की प्रगति के अनुकूल नहीं है देश की सुरक्षा के भी अनुकूल नहीं है।        **
-गंगेश गुंजन. 22 दिसंबर, 2018.

Friday, December 14, 2018

हम इतने करुणाहीन क्यों हो रहे हैं

हम करुणाहीन क्यों होते जाते हैं।
                  🌻
करुणा मनुष्यता का दिव्य गुण है। स्वयं को असमर्थ और दयनीय होने से बचा कर,इस अनमोल मानवीय धन-करुणा का अपने लिए ख़र्च होने से बचा कर हम समाज का मूल्यवान सहयोग कर सकते हैं।पड़ोस और समाज को दयनीय पर ही दया आती है। स्वस्थ और सक्रिय मनुष्य पर समाज की सदा संतोष और सराहना की दृष्टि पड़ती है। अपने-अपने यत्न और रखरखाव से हम स्वस्थ रहें तो समाज की करुणा बचेगी।
    वृद्ध जन वृद्ध तो दिखें लेकिन असहाय और बीमार नहीं।ऐसी चिन्ता रखने से सामाजिक करुणा का अपव्यय बच सकता है।
मुझे लगता है अन्य भंडारों की तरह ही मनुष्य में करुणा का भंडार भी सीमित है अतः करुणा का भी प्रयोग और ख़र्च भी बहुत विवेक के साथ ही होना चाहिए अन्यथा यह पृथ्वी धीरे-धीरे अपने इस दिव्य मानवीय गुण करुणा से रिक्त हो जाएगी और मनुष्यता निष्करुण।
                 🌳🌳
-गंगेश गुंजन। १५.१२.’१८.

Saturday, December 8, 2018

सही मन से लिखा

सही मन से लिखा !

सही मनसे लिखी गई या की गई टिप्पणी आपके मन के विरुद्ध भी है तो आप को प्रभावित करती है। यह आज भी सच है कि आप उस से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते।
कहना यह चाहता हूं Facebook पर कई ऐसी टिप्पणी आती है जो उस लेखक की ईमानदारी और सदाशयता की,विवेक से भरी हुई टिप्पणियां लगती हैं। कई बार विचार आता है जो आपके अनुकूल नहीं होने पर भी प्रभावित करता है और यह विशेष बात लगती है।
   युवतर पीढ़ी में यह गुण मुझे कुछ अधिक देखार लगता है। इसका स्वागत होना चाहिए।स्वागत हो भी रहा है। कभी लिखा था कि भाषा चुग़लख़ोर होती है। चुग़ली करती है। बेईमान लेखन इसका जल्द और ज्यादा शिकार होते हैं।भाषा भी आईना है !
-गंगेश गुंजन।

Thursday, December 6, 2018

कुछ ज़रूरी टिप्पणियां !

सत्ता से बाहर सत्ताभोगी और सत्ताधारी रानीतिक दल !
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सत्ताभोगी किसी रानीतिक दल का कार्यकर्ता या नेता अगर दूसरे सत्ताधारी दल के नेता की‌ खिंचाई करता है तो यह उसकी ‘थेथरै’  ही कही जाएगी। बिल्कुल थेथरै। कारण यह कि अभी तक देश की जनता को ऐसे किसी एक भी राजनीतिक दल के शासन सत्ता में रहकर ऐसा कुछ  अनुभव नहीं हुआ है कि भ्रष्टाचार उसके गुप्त एजेंडे में‌ नहीं रहा हो। सो यह ऐसे लोकतंत्र का यह चुनावी कर्मकाण्ड भी मिलाजुला कर सत्ता का हस्तांतरण भर होकर रहता है।ठीक वैसे ही 1000 मीटर के रिले रेस के जैसा।
जनसाधारण बेचारा तो 5 वर्ष का पपीहरा है!
००
वर्तमान कितना भी छोटा हो,अतीत से बड़ा होता है लेकिन वर्तमान कितना भी बड़ा हो भविष्य से छोटा होता है।
२.
संस्कृति माफ़िया !
चंदन माफिया,कोयला-बालू-
माफ़िया और  के समान ही देश भर कहीं 'संस्कृति माफिया' का भी उद्भव और विकास तो नहीं हो गया लगता है ? अगर है तो इसका संपोषण निश्चित ही राज्य और केन्द्रीय सरकारों के संस्कृत मंत्रालय और उनसे संबद्ध केंन्द्र और राज्यों की अकादमियां करते हैं। अपवाद छोड़ दें तो इसके उत्स चाहे जो और जहां भी रहें।
३.
नानी विद्या
संस्कृत मेरी नानी विद्या है।(विद्यानानी)! क्योंकि मैंने हिन्दी पढ़ी है और संस्कृत हिन्दी की जननी है, सो संस्कृत मेरी नानी विद्या है।

-गंगेश गुंजन।६.१२.

Sunday, November 18, 2018

जो भी लिखना दिखकर लिखना

जो भी लिखना दिखकर लिखना
🌻
भूले से मत छुपकर लिखना
जो भी लिखना दिखकर लिखना
🌻
नहीं जरूरत तो चुप  रहना
काम पड़े तो ज़ोर चीख़ना ।
🌻
रहने लायक रहे तो अच्छा
नहीं मिले तो कभी न रहना।
🌻
कितना कुछ सह गये उम्र भर
अब लेकिन कुछ भी मत सहना
🌻
मुश्किल क्या कि दरिया हो ही
ख़्वाब और ख़़याल में बहना
🌻
तुम तो हो मज़बूत इमारत
बालू के घर-सा मत ढहना।
🌻
संदेशा कहने में उसको
हकलाना मत खुलकर कहना।
               🌻🌻         
                      गंगेश गुंजन,
                  १८नवंबर,’१८.

कांच

🍂🍂
     🍂🍂🍂
            🍂
      🍂   🍂
            🍂
‘मिरे भी हाथ से एक जाम गिर के टूटा था
आज तक दिल में कोई कांच चुभती रहती है।’
🍁
     🍁
गंगेश गुंजन

Tuesday, November 13, 2018

थाली में 🌒

🌒
चांद थाली में दिखाकर हमें बहलाते हैं।
हमारी संसद के हमारे ये माई-बाप !
!
-गंगेश गुंजन

Wednesday, November 7, 2018

दीये की आयु

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एक दीया तब तक जलता है जब तक उसे तेल और बाती का साथ रहता है।  दोनों में से किसी एक के चुक जाने से उस दीये का भी अस्तित्व नहीं रहता।
दीये की आयु उसमें तेल और बाती के बराबर है।

-गंगेश गुंजन।७.११.’१८.

Saturday, November 3, 2018

राजनीतिक वक्तव्य एक निवेश ।

राजनीतिक वक्तव्य: एक निवेश की तरह !
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राजनीतिक वक्तव्य एक निवेश की तरह होते हैं।जैसे सावधि जमा खाता होता है,एक प्रकार का वित्तीय निवेश । फ़िक्स्ड डिपाजिट।जमाकर्ता को जिस तरह पांच वर्ष की अवधि के जमा खाते में जमा (फ़िक्स्ड) राशि, उसे सूद समेत मिल जाती है। वैसे ही राजनीतिकों को भी लोकतंत्र के चुनावी 5 वर्षों के शांति काल में दिए गए पक्ष या विपक्ष के उनके वक्तव्य का मूल्य सभी सत्ता और सरकार के आने पर सूद समेत मिलता रहता है मिल जाता है। अलबत्ता जिसकी जितनी राशि का निवेश है यानी वक्तव्यों का निवेश है। जिस मूल्य के वक्तव्य का निवेश है उसी के अनुपात में नई सत्ता नई सरकार उनका भुगतान करती चलती है ।भुगतान का स्वरूप भले ही वित्तीय सुविधाओं से लेकर सम्मान प्रतिष्ठा और संस्थागत पदों पर अध्यक्ष, निदेशक इत्यादि पदों से सुशोभित करने के रूप में किया जाता है। अब लोकतंत्र के इतने स्वतंत्र स्वाधीन वर्षों में इसे यह देश जान गया है । साधारण जनता का जानना बाकी है। जिस दिन इसे जान गई...।

-गंगेश गुंजन।

Wednesday, October 31, 2018

नफ़रत की सरहद

🌹
ख़त्म होती हैं कहीं नफ़रत की  सरहदें।
प्रेम का मार्ग बहुत आगे तक जाता है।
🌺🥀
-गंगेश गुंजन

ज़रा सी बात पर

ज़रा-ज़रा-सी बात में भर आये,
रक़ीब हो गईं  अपनी ही आंखें।
*
-गंगेश गुंजन.

Tuesday, October 23, 2018

प्रसाद में केक

।। केक ।।
🥀
प्रसादी की जलेबी खाती हुई एक छोटी-सी बच्ची मुझसे अचानक पूछ बैठी:
-दादा जी,अमेरिका और इंग्लैंड में जो रहते हैं वे पूजा में भगवान को प्रसाद क्या चढ़ाते हैं ? काहे कि वहां मिठाई तो बिकती नहीं है। तब?’
-’हां यह तो है। तुम ही कहो तो वे लोग प्रसादी क्या चढ़ाते होंगे?’ मैंने उसीसे पूछा तो वह एक क्षण सोचती रही। फिर बोली-’शायद दादा,पूजा में दुर्गा माय को वे लोग केक चढ़ाते होंगे ! और सुंदर-सुंदर बिस्किट टॉफी! है न?’
   मुझे स्वाभाविक ही हंसी आ गई। बच्ची की मासूम कल्पना पर आनंद आ गया! बच्ची गांव में एक पूजा- पाठी धर्म प्राण परिवार में वह जन्मी है।संस्कार में ये ही सब हैं किन्तु उसकी बाल सुलभ कल्पना में वैज्ञानिकता लगी। 
-’सो तो ठीक है लेकिन तुमको कैसे मालूम है कि वहां अमेरिका इंग्लैंड इत्यादि देश में मिठाई नहीं मिलती है ?’ मैंने उससे पूछा।
-’नमो काका जो कहते हैं न !’उसने तपाक से कहा।
-’नहीं बेटी अब तो दुनिया भर देश में हर देश का का खानपान चलता है। इसीलिए चाहने पर मिल भी जाता  है। इसलिए इंग्लैंड-अमेरिका में भी मिठाइयां मिलती हैं।हां,थोड़ी कठि- नाई से और महंगी।अपने यहाँ जो बाजार में मिठाई की दुकानें भरी पड़ी हैं,वहां इतनी नहीं। मगर मिठाई मिलती वहां भी है।परंतु बेटा,आपका यह प्रसाद में केक चढ़ाना मुझे भा गया! और मैं यह मानता हूं सच में यदि वे लोग  वहां पूजा करते हैं तो उन्हें प्रसाद में केक ही चढ़ाना चाहिए क्योंकि वहां की मिठाई है और केक भी इतने-इतने प्रकार की मिठाई है कि खाते-खाते आदमी का जी ना भरे,इतना स्वादिष्ट।
-'लेकिन दादा,दुर्गा माँ तो बहुत गुस्सा वाली हैं,तो प्रसादी में केक चढ़ाने पर दुर्गा माय नाराज़ नहीं हो जाएंगी?’
-’मां कहीं अपने बच्चे पर नाराज होती है !’ मैंने कहा।
बच्ची दिल से प्रसन्न थी।
🍁
-गंगेश गुंजन,17अक्टूबर'18

Thursday, October 18, 2018

सबकुछ बीच में है !

सब कुछ बीच में है।
🌹
सब कुछ बीच में है। एक काम अभी पूरा हुआ है ।आगे कोई अधूरा खड़ा है।आज का दिन आज समाप्त हुआ है ।अगले दिन फिर शुरू होने वाला है ।कोई पुस्तक एक पृष्ठ पढ़ी गई है ।आगे भी पढ़ी जाने वाली है ।जहां अंत है वहां दूसरी पुस्तक प्रकाशित होकर समाज में आने वाली है। यही क्रम है जीवन का। नित्य निरंतर। आज मैंने कहा- हम बीच में हैं ।कल थे । ‘आज’ आने वाले कल के बीच में हैं। सब दिन सब काम आधा है जिसे तमाम सृष्टि पूरा करने के चक्र में निरंतर चलती रहती है। जाने कब से सृष्टि स्वयं भी बीच में ही है ।जब भी शुरू हुई अतीत में शुरू हुई है ।और अगर समाप्त होगी तो वर्तमान में नहीं भविष्य में कभी। इस प्रकार वर्तमान विगत कल और आने वाले कल के बीच में संपूर्ण भी है और असंपूर्ण भी है । हर वर्तमान की अर्थात हर एक वर्तमान ही यथार्थ जो आपके विवेक और कर्म के अधीन है। और पूर्व पर है सर्जक या विनाशक है ।प्रकाश है । जीवन को सिर्फ आज और आज के ही दायरे में अपने विवेक अपनी बुद्धि अपनी आशा आकांक्षा के साथ भविष्य से जोड़ना चाहिए। वर्तमान को जहां तक संभव हो अपने आचरण से,अपने कर्म से,प्रयास से,सोच और आदर्श से सचमुच का आदर्श बनाना चाहिए। आदर्श में त्याग की भूमिका मेरे विचार से सर्वोपरि है। अपेक्षा हीनता की प्रेरणा बड़ी है ।संबंध कोई हो वह पत्नी, पुत्र,पिता, माता ! सबसे संलिप्त रहकर भी सबसे निरपेक्ष रहना। एक प्रकार सबमे होते हुए भी सबसे निर्लिप्त रहना एक प्रकार से सबसे बड़ा विवेक है। मन प्राण में अपने साथ अपने परिवार के साथ अपना गांव भी रहे,अपना सकल समाज भी रहे । आदर्श स्थिति है यही ।परंतु यह सब कुछ आप अतीत को सुधारने में नहीं लगा सकते। भविष्य को बनाने के लिए नहीं कर सकते। सिर्फ और सिर्फ वर्तमान को सुंदर से सुंदरतम बनाने की प्रक्रिया चलाए रख सकते हैं।यही आपकी विवेक का तकाजा है यही श्रेष्ठ मनुष्य का लक्ष्य है।
🌺
गांव।-gangesh Gunjan विजयादशमी। १९.१०.’१८

Saturday, October 13, 2018

स्नातक नहीं हुए हैं अभी शब्द

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शब्द अभी उत्तीर्ण नहीं हैं। फिर भी हमारा बड़ा से बड़ा काम चल रहा है। कहां तक सोच गए हमारे पुरे ! कहां तक कर गये और इन्हीं इन्हीं अनुत्तीर्ण शब्दों ने बीच इतना कुछ करने का प्रारूप नहीं बना दिया, ज्ञान-विज्ञान का कितना पुख़्ता आधार  भी तैयार नहीं कर दिया? हम सुविधा से और सुविधा जनक स्थिति में आते चले गए हैं।

सोचिए कि शब्द जिस दिन उत्तीर्ण हो जाएंगे अर्थात जिस दिन अपना संदर्भ,योजना,आशा एकनिष्ठ कर लेंगे,शब्द उसी दिन उत्तीर्ण हो जाएंगे। शब्द तब अपनी वास्तविक परिणति भाषा पर पहुंचेंगे और ऐसी कहीं एक जगह रह लेंगे ।अभी जो संदर्भों के साथ शब्दों में आश्रित होते हुए भटक रहे हैं अस्थिर रहते हैं और भटक रहे हैं, तब ये निश्चिंत घर में रहने लगेंगे और तब जैसे सही सही नाम पता के साथ डाक से चिट्ठी आती थी तार आ जाता था,आज लेखक विचारक का आशय, अभिप्राय रही संदेश भी उसी तरह भेजें जाएंगे और संबोधित पते तक ठीक ठीक एक ही व्याख्या और एक ही व्यक्तित्व के साथ पहुंचा करेंगे ।अभी तो यही लाचारी है कि न्याय में भी शब्द स्नातक नहीं है नहीं हुए हैं। शब्द इसीलिए तो एक न्यायालय की देखना है जिला न्यायालय की व्यवस्था ऊपर का न्यायालय खारिज कर देता है और यहां तक न्यायालय के न्यायाधीशों में भी परस्पर विरोध और विरोधाभास होता है इससे कई बार न्याय तक उत्तीर्ण नहीं हो पाता है ।अंततः शब्द को उत्तीर्ण होना चाहता है,जो होना है । आज भी उत्तीर्ण नहीं है। होना है।

इस घड़ी मन में यह भी उपजा है कि शब्द को ब्रह्म इसीलिए तो नहीं कहा गया है ? शब्द अभी आज जिस स्थिति में है स्नातक नहीं हो पाया है। जिस दिन शब्द अपनी वास्तविक परिणति-'बह्म’ मैं पहुंचेगा उस दिन पूरे विश्व मानव की भाषा एक होगी। मानव का लक्ष्य भी एकात्म और वैश्विक हो जाएगा!
वसुधैव कुटुंबकम् !

गंगेश गुंजन 14 अक्टूबर 2018.

Friday, October 12, 2018

प्रेम एक वचन है !

प्रेम में बहुवचन नहीं होता !
🍁
गंगेश गुंजन
१३ अक्टूबर 2018.

Wednesday, October 10, 2018

कोई भी धर्म समग्र संपूर्ण नहीं।

कोई भी धर्म संपूर्ण मनुष्यता को संतुष्ट करने वाला नहीं।
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कोई भी धर्म संपूर्ण मनुष्यता को संतुष्ट करने वाला धर्म नहीं है।और यदि कोई धर्मावलंबी विशेष अपने धर्म में यह दावा करता है तो उसे यह भी मानना चाहिए कि वेही तत्व उसके अलावा भी अन्य सभी धर्मों में उतनी ही मात्रा और व्यावहारिक संभावना में पूर्णत:  विद्यमान हैं।
  वास्तविकता यह लगती है कि धर्म संबंधी जो आपसी मतभेद की लड़ाई है वह संबंधित धर्मों के धर्मावलंबियों के अपने ही धर्म से किसी न किसी कारण असंतोष की अभिव्यक्तियां हैं जो अधिकांशत:अन्य धर्मों काविरोध
-प्रतिरोध करने में व्यक्त होती रहती हैं और समय-समय पर कुछ दुर्राजनीतिक गतिविधियों से सामाजिक समरसता को आंदोलित करके कुछ क्षण के लिए दिग्भ्रमित कर देती हैं।इसीलिए मुझे तो लगता है कि जिसे हम वैश्विक मानव धर्म कहते हैं उसका असली समय अब आज बन रहा है और उपस्थित हो रहा है। बशर्ते यह विश्व मानव विकास की अपनी इस मदान्ध दौड़ में एक पल ठहर कर,सामाजिक सदाशयता के साथ इसे सोचे समझे और करना चाहे, बनाना चाहे।

   जाहिर है अभी तक का तमाम धर्म कहीं ना कहीं मनुष्य को कम पड़ रहा है। इसीलिए अब इस विश्व मानव का एक नया और सर्वव्यापी धर्म चाहिए ताकि सब उसमें समा सकें।श्री और  यह मानव सृष्टि,समस्त पर्यावरण और जीवन के नए आदर्श और इनके उच्चतम लक्ष्य सुरीले ढंग से चल सके। जीवन आनन्द में चले।
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-गंगेश गुंजन

स्त्री,पुरुष और ब्रह्मा

कलशस्थापन
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स्त्री ब्रह्मा का निवेदन हैं !और पुरुष ब्रह्मा का आदेश।
                             -गंगेश गुंजन
बुधवार,
10 अक्टूबर,2018 ई.

Monday, October 8, 2018

सूर्य का अहंकार

सूर्य का अहंकार
💥
सूर्य बड़ा पराक्रमी और सृष्टि का परम उपकारी है परंतु जब अपने ताप के घमंड में दोपहर होकर आग बरसाने लग जाता है तो यही धरती जो उस पर निर्भर और उससे उपकृत है, धीरे-धीरे ले जाकर उसे रसातल में पहुंचा देती है। घमंडी सूरज को अंधकार में डुबो देती है। उस समय सूरज की दीनता देखने लायक होती है।
-’तुम मुझे यूं ढकेल कर अंधेरेमें क्यों डुबो रही हो?’ अस्त होते हुए निस्तेज सूरज ने बड़े दीन स्वर में धरती से पूछा।
-’तू अपने अभिमान में आग उगलने लगा था ! उसे तोड़ना ज़रूरी था मेरा बच्चा! जो बड़ा़ होता है वह अभिमानी नहीं होता। इसका ध्यान रख।’
कहती धरती मां की आंखें ओस रोने लगीं।ओस के अपने आंसुओं से सूरजको नहला कर शीतल किया और मातृत्व की अपनी शीतल रात्रि-छाया में सुलाने लगी।
    अहंकार होने पर सूरज तक को धरती अपनी ओट में डुबो देती है। ध्यान रहे।
-गंगेश गुंजन
8.10.'१८.

Wednesday, October 3, 2018

बुद्धि जीवियों का अमेरिका रुझान

अमेरिका-रुझान
*
-‘सुनते हैं इधर वाम बुद्धिजीवी का अमेरिका-रुझान बढ़ रहा है।विस्मित करने वाली संख्या में वाम बुद्धिजीवी अब अमेरिका में रहने लगे हैं या वहीं रहना पसंद करते हैं। वहां की आवा- जाही बढ़ रही है।इसे क्या अनायास या आकस्मिक भर माना जाए,कवि जी ?’
  मित्र समाधान प्रसाद ने पूछने के तेवर में अकस्मात यह फरमाया है और मैं निरुत्तर हूँ।अब इस कथन के प्रतिरोध के लिए अपेक्षित तथ्य और जानकारी का स्रोत मेरे पास क्या है कि मैं उनसे उलट कर ऐसा माननेका आधार पूछूं।
  समाधान प्रसाद जी समाधान कम, मेरी समस्या ही अधिक बनते हैं।
  अब यह ताजा समस्या है।
🌴🌴
-गंगेश गुंजन.

Sunday, September 23, 2018

भगवान बुद्ध मुस्कुराये !

भगवान बुद्ध मुस्कुराये !
🌷
अंगुलिमाल की सहस्त्र हिंसक तलवारें भगवान बुद्ध की एक मुस्कान के ना बराबर हैं। लेकिन क्या,

अटल बिहारी वाजपेई जी के गौतम बुद्ध की मुस्कान के आगे भी विश्व के सहस्र अणु-परमाणु बम कम हैं ?     
     आपका विचार ?  
*
-गंगेश गुंजन,

Friday, September 21, 2018

आश्रय के अभिप्राय

।।  आश्रय के अभिप्राय  ।।
🌳
आश्रय का अभिप्राय बहुत बदल चुका है। राज्याश्रय और लोकतंत्र के आश्रय में बुनियादी फर्क है । दोनों के काल और क्रम में भी अंतर है । दोनों व्यवस्थाओं और उनकी प्रकृति में भी अंतर है।यही मानकर चलना और सोचना ही विज्ञानसम्मत होगा। जैसे आप देखें, राज्याश्रय अगर इतना ही निषिद्ध होता जैसा आज कहा जा रहा है तो कवि विद्यापति नहीं होते,तानसेन भी नहीं होते।इस प्रकार और भी कुछ उदाहरण आदर के साथ याद किए जा सकते हैं।
   आज इस लोकतंत्र में भी नई शैलीका आश्रय बना, विकसित हुआ और स्थापित होकर अब विद्यमान है। चतुर सुजान लोग उसका लाभ उठा रहे हैं और यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस स्वतंत्र भारत के नए लोकतांत्रिक आश्रमों (आश्रयों) में संस्कृति की, साहित्य-कला विधाओं की सर्वथा हानि ही हानि हुई है। नहीं। याद करें तो स्वतंत्र भारत के दो-चार-पांच नाम अनायास याद आते हैं जो संयोग से कविता साहित्य के हैं और उनकी चर्चा भी होती है।उन पर सकारात्मक नकारात्मक राय भी बनाई जाती है। इन सबके बावजूद इन कुछ नामों की प्रातिभ महत्ता एकदम से खारिज नहीं की जा सकती। आधुनिक भारत के हिंदी साहित्य के, कविता के इतिहास में इनके योगदान का भी उल्लेख किया ही जाएगा।
    नए युग का या कहें इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में असल प्रभाव है पत्रकारिता में जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया।और ऐसा उसने अपने आरंभिक काल से हाल-हाल तक निभाया भी है स्वतंत्रता संग्राम में इस विधा के बिना,इस विधा  के लोगों के अनमोल योगदानों को भूल कर हम अपनी स्वतंत्रता की ईमानदार चर्चा नहीं कर सकते। मुकम्मल तो हो ही नहीं सकती। परंतु हिंदी पत्रकारिता ने अपनी वह जुझारु तटस्थ और आदर्श परंपरा जिसे इतना सिर आंखों पर बिठाया गया आज कहां खड़ा है,समझने वाली बात है।
      कितना उसे नजरअंदाज किया गया और हो रहा है, यह छुपा हुआ नहीं है अब । तोप के मुकाबले अखबार के नए स्वरूप इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम माध्यम TV चैनल रेडियो इत्यादि सब की विश्वसनीयता निश्चिंतता के दायरे में नहीं बच पाई है । संदेह की छाया सारी विधाओं पर पड़ चुकी है और जनसाधारण ऐसा मानने भी लग गया है।
    तो क्यों हुआ है ऐसा कि कविता से लेकर पत्रकारिता तक नए आश्रय में इतनी असमर्थ चापलूस होती गई है? अभी हाल हाल तक दुर्बल जन पक्षीय संकल्पित सरोकार और ईमानदार रचनाकारों का अनुपात बहुत थोड़ा था। समाज के सारे विभागों में,सारे संदर्भ में सकारात्मक पक्ष बहुमत में था । आज ऐसा क्या हो गया कि कविता से लेकर पत्रकारिता और तमाम विधाएं सकारात्मक की तुलना में नकारात्मक आश्रय आश्रमों में विश्राम करने पहुंच गए हैं ? सोचने की बात है । सिर्फ़ मानना और जुमले की तरह कह देना, इससे अब काम नहीं चलेगा ! समाज की जनता,साहित्य के पाठक, संस्कृति के विचारक-विश्लेषण आज की इस राजनीतिक राजनीतिक रुझान और समर्पण से खूब परिचित हो चुके हैं। इस सच को खुले दिल दिमाग से स्वीकारना चाहिए और विचारना चाहिए। लेकिन चिंता यह है कि ये वर्तमान सचेत जाग्रत पाठक, विचार-विश्लेषक भी इसी राज्य व्यवस्था और कालप्रवाह की उपज आमद हैं।
ऐसे में करना क्या है? रहना और चलना कैसे है ?
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🌳
-गंगेश गुंजन।