१.
अजब बेरहम और ख़ुदग़र्ज़ हैं ये महानगरी लोग। शजर की शहादत पर चैन से चलते हैं मेट्रो में । २. मुझे तो फ़िक्र है अब अपने पाटलिपुत्र की भी ये। खड़े होने लगे हरियालियों की क़ब्र पर खंभे। 🌀
गंगेश गुंजन -उचितवक्ता डेस्क--
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अजब बेरहम और ख़ुदग़र्ज़ हैं ये महानगरी लोग। शजर की शहादत पर चैन से चलते हैं मेट्रो में । २. मुझे तो फ़िक्र है अब अपने पाटलिपुत्र की भी ये। खड़े होने लगे हरियालियों की क़ब्र पर खंभे। 🌀
गंगेश गुंजन -उचितवक्ता डेस्क--
साहित्य के असल पाठक क्रयशक्ति से बाहर मज़दूर के समान बाज़ार से बाहर हैं।
* लेखक का एक और काम बढ़ गया है। गये दशक से यह अनुभव दृढ़ हुआ।अब उसे अपने पाठक का भी प्रबंध करना पड़ता है। प्रकाशन के प्रबंधन से यह प्रबंधन कम कठिन नहीं है। अर्थात इसमें भी,भले ही एक खास प्रकार का किंतु निवेश तो करना पड़ रहा है। सिर्फ़ लेखकीय पहचान या साहित्य की गुणवत्ता, रचनात्मक नव्यता भर अधिक पाठक आकर्षित करके नहीं ला पाती और ना पुस्तक से जोड़ पाती। जिनके पास अपने एनजीओ हैं उन्हें यह समस्या अवश्य कुछ कम होगी। पाठक-श्रोता जुगाड़ू इसी उपाय के तहत,इसी के फलस्वरूप अब साहित्य का भी टीआरपी लगभग व्यापारिक क्षेत्रों की तरह ही हो गया है तो अस्वाभाविक भी नहीं है। यह यथार्थ ''इस वर्ष की श्रेष्ठ" और "सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक" इत्यादि गोत्र के शीर्षक से बाजार यही ठहाके लगा रहा है।
लेखनमें अब यह अपने प्रकार की एक नई दु:स्थिति आन पड़ी है। स्वीकार्य या अस्वीकार दोनों ही सच्चाइयां अस्तित्व में हैं।गोर्की और प्रेमचंद तो दो-चार -दस हो नहीं सकते। अब आकर यदि चाहें तो शायद निराला नागार्जुन भी नहीं हो संभव ।
सो अब जबकि पाठक-समाज भी प्राय: किसी न किसी निवेश का उत्पाद हो गया है तो लेखन भी ब्रांडेड वस्तु का बाजार मान लेने में क्या दुविधा।
यह तो एक बात। लेकिन,सच यह भी है कि-पाठक आज भी हैं और अपने उसी सरल-सहज उत्सुक पाठक के स्वभाव के साथ। विडम्बना है कि ब्रांडेड वस्तुएं उनकी क्रयशक्ति के बाहर हैं। और वे पाठक उसी तरह हाशिए पर हैं जिस तरह महानगरी मॉल से दामी वस्तु नहीं ख़रीद पाने की घायल इच्छा से भरा खोमचे वाला,कोई दिहाड़ी मज़दूर।
गंगेश गुंजन
। उचितवक्ता डेस्क। २९.१.'२०. अपराह्न।
हमारे घरों में अप्रासंगिक हो कर रद्दी बन गईं वस्तुएं कितने ही घरों में जीने के ज़रूरी सामान हैं।
गंगेश गुंजन
(उचितवक्ता डेस्क)
दुःख ने कभी नहीं दुत्कारा।
सुख ने सब दिन यही किया।
गंगेश गुंजन
*उचितवक्ता डेस्क*
गर्दिश की गुफ्त़गू से गरमागरम है मज्लिस।
बदज़ौक़ हैं ये लोग जो दुनिया से ख़फ़ा हैं। गंगेश गुंजन
-उचितवक्ता डेस्क-
हमारी आस्था के दुर्ग में हम सुरक्षित हैं।
नई तकनीक के पैलेस में डर लगता है ।
🌳 गंगेश गुंजन
तन-मन चेतन कलाकार हूं।
निर्विष हूं मैं निर्विकार हूं।
उतना ही मनुष्य हूं जितना
नयी सदी के सद्विचार हूं। 🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱
गंगेश गुंजन
-उचितवक्ता डेस्क-
बदलते रहते हैं अपना ही उन्वाने किताब लोग।
नहीं बिकने लगे हैं शहर में अब उनके रिसाले।
गंगेश गुंजन। -उचितवक्ता डेस्क-
सत्य और असत्य मानवीय विवेक की सबसे कठिन परीक्षा का प्रश्नपत्र हैं।
गंगेश गुंजन
(उचितवक्ता डेस्क)