Monday, January 29, 2018

मंज़िल के लिए

राह पर चलते-चलते-चलते ही  जाना
य'  ज़रूरी नहीं  ऐसे मंजिल भी पाना

एक थैला हो क़लम क़ाग़ज़ पानी बोतल
भुने चने भी तनिक साथ हों मंजिल के लिए।
*
-गंगेश गुंजन
३० जनवरी,२०१८ ई।

Saturday, January 27, 2018

अन्न !

अन्न हूं मैं । पेट में जाता हूं तो शांति हूं।
भूखे पेट से बाहर रखा जाता हूं तो क्रांति हूं।
-गंगेश गुंजन।
२७.१.'१८.

Thursday, January 25, 2018

ग़ज़ल

ग़ज़ल
इस तरह  मायूस होकर   यूं न   रहना चाहिए
दु:ख जो है आपको मुझसे तो कहना चाहिए

क्या शिकायत है सुनें हम भी जरा मिल बैठ लें
दोस्ती गंगा है  जी  भर   कर   नहाना  चाहिए

पेड़ के नीचे  दुपहरी में   खड़े तनहा  हैं आप
क्या है ग़म  हम बंधु हैं हमको बताना चाहिए

यूं किनारे बैठकर  धारा  से  डरना  क्या हुआ
साथ लीजे  अब हमें उस पार चलना चाहिए

देर से मन चुप है सन्नाटा  है  सब सुनसान है  
वह बुलाते हैं तो गुंजन को भी जाना चाहिए।

**
गंगेश गुंजन। ( डायरी नंबर-३ १९८४ में पेन्सिल से लिखा स्वतंत्र पेज पर मिला)   

ग़ज़ल-सी

रो न पड़ो तुम डर लगता है
खो ना  बैठूं  डर  लगता   है

फिर वोही आवाज कशिश की
इसी सदा से  डर  लगता है

वो  क्यूँ   झूठ  फरेब करेगा
इस यक़ीन से डर लगता है

क्योंकर छोड़ दिया वह रस्ता
क्यों  जाने से  डर  लगता है

पूछ  रहे   थे  मेरी   निस्बत 
उसी करम से डर लगता है

उसने तो बेझिझक कह दिया
हम कुछ कहें तो डर लगता है

तब तो रात-बिरात कुछ नहीं
अब इस सुब्ह में डर लगता है

शहर की सुंदर ऋतु में कैसा-
कैसा तो  पतझर लगता है

सब   कहते हैं  रात  हो गई
गुंजन  को  दुपहर लगता है
*
-गंगेश गुंजन.

Thursday, January 18, 2018

अंधेरे और उजाले की कहानी-(२)

(२) अंधेरे उजाले का किस्सा

अंधेरे और उजाले की एक और प्रेम कथा है।अंधेरे और उजाले में बहुत प्रेम के साथ ही अपना-अपना स्वाभिमान भी बहुत ऊंचा था। सो एक दिन दोनों में किसी बात पर ठन गई। बहुत अधिक। दोनों उत्तेजित और उद्विग्न रहने लगे। इसी दौरान ऊपर से एक और तीखी नोंक-झोंक हो गई। क्रोधी प्रकाश ने अपने स्वभाव के अनुरूप ही अंधकार को जला कर राख कर दिया !
तब जलती हुई तकलीफ में अंधकार ने भी आर्तनाद करते हुए दिन को श्राप दे डाला-
- ‘ बिना किसी दोष के तुमने मुझे जलाया है।जाओ,अब तुम खुद भी जीवन भर अकेले जलते रहोगे।’
अब जो ध्यान आया तो रात के इस श्राप पर प्रकाश,बहुत परेशान हो उठा।अब उसे अपनी इस भयानक भूल का एहसास हुआ। लेकिन अंधकार को श्राप तो दे चुका था।अब करता वह ?
लेकिन खुद जलते हुए भी अंधकार ने,प्रकाश के चेहरे पर जो करुणा देखी तो उससे रहा नहीं गया। वह द्रवित हुए बिना नहीं रह सका। प्रकाश पर उसे बड़ी ममता हो आई। सो उसने कहा कि-
-’तुम जलते तो रहोगे। लेकिन जलते-जलते और थक कर अपनी पीड़ा में,मेरे पास ही आओगे। मेरी ही गोद में। मैं तुम्हें शाम से रात तक शीतल छाया दूंगी।’ स्त्री स्वभाव के अनुरूप अंधकार ने उसे भरोसा देते हुए यह वचन दिया।
   और कहते हैं उसी के बाद जलते-चलते हुए दिन,खुद ही शाम में ढल जाता और फिर रात बन जाता। रात सूरज की सेवा करती है। स्वयं सो नहीं सकती। वह कहां से सो पायेगी। खुद तो जगी रह जाती है। दिन भर जल कर आये हुए सूरज के देह-ताप को शीतल और सामर्थ्यवान बनाने के लिए रात भर जगी ही रहती है,इस चिंता से कि कहीं उठने में देर न हो और दिन को निकलने में घड़ी भर भी विलंब न हो जाय। उसे सुबह-सुबह तैयार करके पृथ्वी पर भेज देती है। ठीक वैसे ही जैसे आजकल सुबह-सुबह बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजती है-मां।
(क्रमश:)
-गंगेश गुंजन।३.४.’१७ ई  ।
९.९.’१७.गुंजन।

Tuesday, January 16, 2018

अंधकार और प्रकाश : पहली कथा ।

अंधकार और प्रकाश
*
अंधकार और प्रकाश में बहुत दोस्ती थी। दोनों दो शरीर एक प्राण थे।हरदम  एक साथ रहना चाहते।अलग नहीं होना चाहते। लेकिन प्रकृति का विधान है। दोनों को रोज़ अलग-अलग होना ही पड़ता। इस कारण दोनों बड़े दुखी हो गये। जुदा होकर दोनोें को,अपना-अपना दिन और रात  होना ही पड़ता था। सो दोनों विचारने लगे कि जुदाई से बचने की क्या तरकीब हो? दोनों अपना-अपना धर्म तो छोड़ नहीं सकते थे क्योंकि सृष्टि ने दिया था और धरती,प्राणि मात्र,समाज के लिए  दोनों की दो अलग-अलग भूमिका तय कर रखी थी। इसलिए निजी सुख के लिए वे अपना कर्तव्य तो नहीं छोड़ सकते न। ऐसा करना तो अधर्म और पाप होगा। सो  उधेड़बुन में पड़ गये। विचार करने लगे।इस तरह सोचते-सोचते जैसे ही कोई रास्ता दिखायी देने लगे कि तब तक किसी एक की बारी खत्म हो जाती ।और उसकी ड्यूटी शुरू हो जाती।उसी तरह सोचते-सोचते राह मिलने लगे है तो दूसरेनं की ड्यूटी शुरु हो जाए। इस प्रकार उन दोनों की निराशा और दुख का कोई ओर अंत न था।
   समय तो रुकता नहीं। बीतता गया। कि इसी उधेड़बुन और चिंता में एक समय, चिंता से उदस दिन के मन में अकस्मात एक रास्ता कौंध गया।दिन का चेहरा खिल उठा।वह मुस्कुरा पड़ा। फिर दोन कारण दोनों एक साथ ही मुस्कुरा पडे़। डूबता हुआ दिन ख़ुश होता बोल उठा-
-'मिल गया। रास्ता मिल गया।’ और मुस्कुराते हुए डूबने लगा।जबतक रात यह पूछती कि क्या रास्ता मिला’ तब तक दिन उससे जोर से लिपट गया और बोला-
‘आओ मैं तुम्हें पहन लेता हूं।और उसने रात को अपने कपड़े की तरह पहन लिया। और बोला-’कल जब तुम जाने लगना तो इसी तरह मुझे पहन कर चली जाना। इस प्रकार क्यों ना हम अपनी ड्यूटी बदलते वक्त एक दूसरे को पहन लिया करें तो हमारे अलग होने का सवाल ही नहीं होगा। इस तरह एक दूसरे का साथ भी नहीं छूटेगा और कर्तव्य‌ भी नहीं रुकेगा। दिन और रात का  हम अपना काम भी करते रहेंगे। और तब हम दोनों कभी अलग भी नहीं होंगे।
     और कहते हैं कि उसी के बाद,दिन जाने लगता है तो रात को पहन कर चला जाता है।और रात जाने लगती है तो जाते समय दिन को पहन लेती है।
    दिन और रात का यह क़िस्सा जाने कब से चला आ रहा है ! अंधेरे और उजाले की यह प्रेम कहानी जाने कब तक आगे भी चलती रहेगी ! ‌
(क्रमश:)
**
-गंगेश गुंजन।३.४.’१७ ई  ।

Thursday, January 11, 2018

जनता कें कतबा चाही

जनता कें कतबा चाही
*
नेता  कें  रुतबा  चाही
जनता कें कतबा चाही

नेता कें धन-धान्य समेत
सब चुनाव जितबा चाही

जनता कें निश्चिन्त समय
नीक  बाट  जीवा  चाही

जनताकें चाही जनताक
मूर्ख  समर्पण टा   चाही

गन-गन करै' रहय संसद
सत्ता  कें   ततबा   चाही

जनता कें परिवर्तन केर
निराधार   आशा  चाही

उद्धतते शक्तिक थिक केन्द्र
तकरहि  स्वधीनता  चाही

सर्व तन्त्र स्वतन्त्र अर्थक
सैह  व्यवस्था  टा  चाही

ई समाज मे लोकक संग
लक्ष्मीपति-निजता चाही

सब  संकट  गंडा गाही
सब एहिना रहबा चाही

नेता केर उत्पादन क़ायम
बिकाय देश,बेचबा चाही
*
रचना: ६.१.२०११,गंगेश गुंजन।