रो न पड़ो तुम डर लगता है
खो ना बैठूं डर लगता है
फिर वोही आवाज कशिश की
इसी सदा से डर लगता है
वो क्यूँ झूठ फरेब करेगा
इस यक़ीन से डर लगता है
क्योंकर छोड़ दिया वह रस्ता
क्यों जाने से डर लगता है
पूछ रहे थे मेरी निस्बत
उसी करम से डर लगता है
उसने तो बेझिझक कह दिया
हम कुछ कहें तो डर लगता है
तब तो रात-बिरात कुछ नहीं
अब इस सुब्ह में डर लगता है
शहर की सुंदर ऋतु में कैसा-
कैसा तो पतझर लगता है
सब कहते हैं रात हो गई
गुंजन को दुपहर लगता है
*
-गंगेश गुंजन.
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