Sunday, September 23, 2018

भगवान बुद्ध मुस्कुराये !

भगवान बुद्ध मुस्कुराये !
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अंगुलिमाल की सहस्त्र हिंसक तलवारें भगवान बुद्ध की एक मुस्कान के ना बराबर हैं। लेकिन क्या,

अटल बिहारी वाजपेई जी के गौतम बुद्ध की मुस्कान के आगे भी विश्व के सहस्र अणु-परमाणु बम कम हैं ?     
     आपका विचार ?  
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-गंगेश गुंजन,

Friday, September 21, 2018

आश्रय के अभिप्राय

।।  आश्रय के अभिप्राय  ।।
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आश्रय का अभिप्राय बहुत बदल चुका है। राज्याश्रय और लोकतंत्र के आश्रय में बुनियादी फर्क है । दोनों के काल और क्रम में भी अंतर है । दोनों व्यवस्थाओं और उनकी प्रकृति में भी अंतर है।यही मानकर चलना और सोचना ही विज्ञानसम्मत होगा। जैसे आप देखें, राज्याश्रय अगर इतना ही निषिद्ध होता जैसा आज कहा जा रहा है तो कवि विद्यापति नहीं होते,तानसेन भी नहीं होते।इस प्रकार और भी कुछ उदाहरण आदर के साथ याद किए जा सकते हैं।
   आज इस लोकतंत्र में भी नई शैलीका आश्रय बना, विकसित हुआ और स्थापित होकर अब विद्यमान है। चतुर सुजान लोग उसका लाभ उठा रहे हैं और यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस स्वतंत्र भारत के नए लोकतांत्रिक आश्रमों (आश्रयों) में संस्कृति की, साहित्य-कला विधाओं की सर्वथा हानि ही हानि हुई है। नहीं। याद करें तो स्वतंत्र भारत के दो-चार-पांच नाम अनायास याद आते हैं जो संयोग से कविता साहित्य के हैं और उनकी चर्चा भी होती है।उन पर सकारात्मक नकारात्मक राय भी बनाई जाती है। इन सबके बावजूद इन कुछ नामों की प्रातिभ महत्ता एकदम से खारिज नहीं की जा सकती। आधुनिक भारत के हिंदी साहित्य के, कविता के इतिहास में इनके योगदान का भी उल्लेख किया ही जाएगा।
    नए युग का या कहें इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में असल प्रभाव है पत्रकारिता में जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया।और ऐसा उसने अपने आरंभिक काल से हाल-हाल तक निभाया भी है स्वतंत्रता संग्राम में इस विधा के बिना,इस विधा  के लोगों के अनमोल योगदानों को भूल कर हम अपनी स्वतंत्रता की ईमानदार चर्चा नहीं कर सकते। मुकम्मल तो हो ही नहीं सकती। परंतु हिंदी पत्रकारिता ने अपनी वह जुझारु तटस्थ और आदर्श परंपरा जिसे इतना सिर आंखों पर बिठाया गया आज कहां खड़ा है,समझने वाली बात है।
      कितना उसे नजरअंदाज किया गया और हो रहा है, यह छुपा हुआ नहीं है अब । तोप के मुकाबले अखबार के नए स्वरूप इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम माध्यम TV चैनल रेडियो इत्यादि सब की विश्वसनीयता निश्चिंतता के दायरे में नहीं बच पाई है । संदेह की छाया सारी विधाओं पर पड़ चुकी है और जनसाधारण ऐसा मानने भी लग गया है।
    तो क्यों हुआ है ऐसा कि कविता से लेकर पत्रकारिता तक नए आश्रय में इतनी असमर्थ चापलूस होती गई है? अभी हाल हाल तक दुर्बल जन पक्षीय संकल्पित सरोकार और ईमानदार रचनाकारों का अनुपात बहुत थोड़ा था। समाज के सारे विभागों में,सारे संदर्भ में सकारात्मक पक्ष बहुमत में था । आज ऐसा क्या हो गया कि कविता से लेकर पत्रकारिता और तमाम विधाएं सकारात्मक की तुलना में नकारात्मक आश्रय आश्रमों में विश्राम करने पहुंच गए हैं ? सोचने की बात है । सिर्फ़ मानना और जुमले की तरह कह देना, इससे अब काम नहीं चलेगा ! समाज की जनता,साहित्य के पाठक, संस्कृति के विचारक-विश्लेषण आज की इस राजनीतिक राजनीतिक रुझान और समर्पण से खूब परिचित हो चुके हैं। इस सच को खुले दिल दिमाग से स्वीकारना चाहिए और विचारना चाहिए। लेकिन चिंता यह है कि ये वर्तमान सचेत जाग्रत पाठक, विचार-विश्लेषक भी इसी राज्य व्यवस्था और कालप्रवाह की उपज आमद हैं।
ऐसे में करना क्या है? रहना और चलना कैसे है ?
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-गंगेश गुंजन।


Wednesday, September 19, 2018

नफ़रत के वातावरण की जड़

नफ़रत के वातावरण की जड़

आश्चर्य होता है ! अधिकतर बुद्धिजीवी,संवेदनशील कवि,सामाजिक लोग भी आंख मूंदकर मानते चल रहे हैं कि समाज भर देश में व्याप्त नफ़रत के वातावरण की जड़ एकमात्र सांप्रदायिक है।
   अन्यान्य प्रबल बुनियादी कारणों में निश्चय ही यह भी एक है किन्तु तमाम अशांति और उथल-पुथल का केंद्रीय कारण साम्प्रदायिकता है समझना,विवेक सम्मत तो नहीं जंचता।
    मुझे इसका बहुत गौरव है कि मेरे गांव और आसपास में आज तक कभी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ।लेकिन इसी के आधार पर मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मेरे गांव या उस इलाके में पारस्परिक नफ़रत, झगड़ा-विवाद नहीं है। सांप्रदायिकता के अतिरिक्त इस देश में जाति,धर्म,वर्ग और अन्य गरीबी-अमीरी अनेक मसले हैं।और ये सभी मसले मवेशी की तरह हांके जा रहे हैं राजनीति यानी राजनेता से। और राजनीति लगभग नैतिकता विहीन,स्वार्थी और निहायत आत्मकेंद्रित,होकर मात्र सत्ता व्यामोही जमात की पहचान बन चुकी है। चीजें वेही रहती हैं लेकिन सत्ता के बदलते ही उनकी व्याख्या बदल जाती है। कारण भी अपने-अपने चुनावी घोषणा पत्रों के आईने में अलग देखे और दिखाये - बताए जाने लगते हैं। यह सिलसिला स्वाधीनता हासिल के बाद का पूरा भारतीय समय में है।
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-गंगेश गुंजन

Tuesday, September 4, 2018

यह भी एक ग़लतफ़हमी !

यह भी एक गलतफहमी है कि साहित्यकार या कवि, तुच्छ राजनीति के...

यह भी एक गलतफहमी है कि साहित्यकार या कवि कभी, तुच्छ राजनीति के विवादी हथकंडे नहीं अपनाते। मौक़ा आते ही, दूध दायी समितियों में आने,सम्मान- पुरस्कारों के लिए, रत्न विभूषण के लिए कितने ही ऐसे द्वितीय-तृतीय श्रेणी के प्रसिद्ध हो गये,अलग-अलग शिल्प-शैली में बहुत कलात्मक और शालीन तरीके से अपना मनोवांछित कहना चाहते हैं, कह देते है या कह देती हैं। हालांकि उसे या उन्हें भी मालूम है कि भाषा से बड़ी चुग़लख़ोर तो त्रेता की मंथरा भी शायद ही रही होगी ! प्रतापी श्रीरामचन्द्र का वनवास करवा डाला। सोचिये  तो !
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-गंगेश गुंजन।