Saturday, December 30, 2017

बांचल काज । कविता।

बाँचल काज
*
आइ जखन करबा लेल किछु नहि अछि,
एकटा घऽर, ताहि मे खूब पैघ सन कोठली अछि।
छोट छिन हॉल सन ताहि कोठली मे कुर्सी सब धयल रहैए।
कोनो ठाम हम कोनहुंँ कुर्सी पर बैसि सकैत छी।
बैसले बैसल साँझो भरली ओंघा सकैत छी।
पढ़बा लेल बिन पढ़ल इच्छित कोनो पोथी ताकि सकैत छी।
बहुत किछु बाँचले रहि गेल, कहबाक छल जे सबटा,
कहि सकैत छी ककरो।आखिर बहुत लोक,सर-समाज नहि भने, सब सुनबा लए स्त्री छथि। कहि सकैत छिअनि |
भरि जीवन सुनैत रहलीह एक दिसाहे सबटा
हमर विफलताक क्लेश ।
अधीर नहि भेलीह, बचबैते रहलीह सदा अपन कीयाक सिंदूर जकाँ हमरो विश्वास। करुणामूर्त्ति, संग छथि ।
मुदा ओहो तँ आब,भने एक रती भिन्न, हमरे जकाँ।
कनियें काल मे ओंघाय लगैत छथि।ओहो आब ।
कहबाक प्रवाह मे यावत् से होइत अछि हमरा ध्यान कि ओ,
चिहुंँकि कऽ धरफड़ायलि  उठैत छथि आ थाकलि बिहुँसिआइत अनमन हमर डेढ़ बर्खक बेटी जकाँ लजा जाइत छथि-अपना अवस्था पर।
हम स्तब्ध,किछु अखियासऽ लगैत छी कोनो काज।
कहाँ अछि हमरा लग आब किछु काज।
-भोरका खोराक औषद खयलियैक कि बिसरि गेलिऐ फेर आइ?-पूछैत छिअनि।
ओ खेलाइत-खेलाइत असोथकित भेल बच्चा जकाँ फेर लजाइत छथि। ओहिना बिसरि गेल होमवर्क पर ताकऽ उठि जाइत छथि किताब-कॉपी जकाँ
हमरो दुपहरियाक कैप्सूलक बस्ता।
२.
आब जखन हमरा लग कोनो काज नहि अछि,
एतेक टा छोट छिन हॉल जकाँ कोठली मे हमरे  सुभीता वास्ते ठाम-ठाम राखल कतहु कोनो कुर्सी पर बैसि सकैत छी।
सब किछु बिसरि कऽ किछुओ कऽ सकैत छी याद ! जेना, मामूली पानि पटयबाक अभाव मे किएक
सुखा गेल रहय
मधुबनीक नामी नर्सरीक ओहन भविष्णु आम-
कृष्णभोगक गाछ ? मुदा ताकुत रखैत,
ओही दूरस्थ इनार सं घैलक घैल पानि भरि-भरि,
साँझ प्रात पटबैत,सेवा दुआरे कोना भरि गेल रहय
हरियर पल्लव सँ ओहन रोगाह जर्दालू नवगछुली ?
मजरल रहय अगिले साल !
तकर टिकुला पर लिखने रही कहियो कविता .

साबुत रहय इनार।

३.
आब एखन हँ, स्त्री छथि तँ  घर अछि। घर अछि तँ भनसा घर। भनसा घर तें बर्तन-बासन। अन्नक दाना, गैस चूल्हि अछि। दूध औंटक डेकची अछि।
भरि दिन मे रातियो धरि मेंही-मेंहीं म्याउँ-म्याउँ करैत,
आबिये जाइत अछि एको बेर  बिलाड़ि ।
भोरे भोर कोनो ने कोनो कार पंछी पहुँचिये जाइए करैत अपन शब्द निनाद। फटकल-बीछल सं बाँचल गृहस्थीक अन्न कणक आस आ उमेद मे। साँझ गाबि सुनाबय अबिते अछि
सूर्यास्त सँ पहिने, चिड़ै चुनमुन्नी !

४.
हमरा नहि अछि काज। मुदा, बाँचल छैक
डाढ़िये सं खरकट्टल भने, दूधक डेकची ।
तकरा आस में बिलाड़ि ।
गाछ बृक्ष। पशु पक्षी। बर्खा बसात। सब तंँ बाँचले एखन।
स्मृतिक कल्पतरु। थर्मामीटर लगा कऽ जाँचब बोखार। तुलसीक काढ़ा ,नेबो-नोन-जमाइनक खदकी .
बाढ़ि विकालक द्वीप हमर गाम,
खाट पर मलेरिया मे पड़ल बच्चाक कपार पर
बेर बेर रखैत असहाय जननीक वत्सल हाथ !
कमला रूसि क’ चलि गेलीह .
कमला कातक कोनो माय भरिसक्के गेलीह शहर कहियो।
५.
गाम जाएब एकटा काज बाँचल अछि।
सोचि सकैत छी।
कोनो नेना चोभि क’ अनेरे फेक देने रहैक-
पछिला साल आमक आँठी,
अँगनाक कोनो कोन में,
पेंपी देने हेतैक,पनगि कऽ भ’ रहल हएत लाल तिनपतिया गाछ ! से एखन बान्हक कात बाध सँ हमरा आँगन अबैत बसात मे जन्मौटी नेनाक नान्हि टा मूड़ी हिड़ला झुलैत हैत !

ललाउँछ हरियर गाछ !
लगैत हेतैक आस!

पोखड़ि अपना हिलकोर सँ
बूढ़ पुरान दछिनबरिया घाट कें गुदगुद्दी लगबैत हेतैक,
सिनेह सँ अकच्छ कऽ रहल हेतैक।

..         

नोट :

मुदा हम विस्मित छी जे हमर ई कविता पढ़ि कऽ एकटा मित्र एकरा व्यर्थ, नॉस्टेल्जियाक अचेष्ट सूतल कविता कहि कऽ चेतबैत छथि -कहाँ सं अहांँ अतीतक प्रेतांशक कविता लिखऽ लगलौं औ कवि गुंजन जी? पर्यावरणक सरकारी कविता अहूँं लिखऽ लगलौं की यौ ?

आब एकर कोन जवाब  ?                            ***
-गंगेश गुंजन

Friday, December 22, 2017

सोसाइटी के पार्क में टहलता हूं तो सीमेंट के फुटपाथ पर ही चलता हूं। वैसे नंगे पैरों किंतु मर्म से दूब पर चलना दिव्य सुखद लगता है। लेकिन मुलायम दूबों पर चप्पल-जूते पहन कर मैं कभी नहीं चलता। यह सावधानी रखता हूं।फिर भी मुश्किल तब हो जाती है जब ऐसे चलते हुए में‌ कोई चुनमुनियां चिड़िया सीमेंटी पगडंडी पर ही चुन-चुन-चिन-चिन करती,चहकती-फुदकती ऐन मेरे सामने पड़ जाती है तब सीमेंटी पगडंडी पर होकर आगे जाने को मन तैयार नहीं होता ! क्योंकि जाऊंगा तो सहम कर उस नन्ही चिड़िया को उड़ना होगा ! कारण कि मैं इंसान हूं और चिड़ियां सबसे ज्यादा परेशान इंसान से ही रहती है। तो ऐसे में मैं यही चुनता हूं-दूब पर ही पैर रख कर चलता हूं ताकि चुन-चुन करती हुई चुनमुनियां का गाना नरुके।चुनमुन्नी अपना गीत गाती रहे ! मुझसे डर कर उसको उड़ना न पड़े !

चुनमुन्नीक गाना

सोसाइटी के पार्क में टहलता हूं तो सीमेंट के फुटपाथ पर ही चलता हूं। वैसे नंगे पैरों किंतु मर्म से दूब पर चलना दिव्य सुखद लगता है। लेकिन मुलायम दूबों पर चप्पल-जूते पहन कर मैं कभी नहीं चलता। यह सावधानी रखता हूं।फिर भी मुश्किल तब हो जाती है जब ऐसे चलते हुए में‌ कोई चुनमुनियां चिड़िया सीमेंटी पगडंडी पर ही चुन-चुन-चिन-चिन करती,चहकती-फुदकती ऐन मेरे सामने पड़ जाती है तब सीमेंटी पगडंडी पर होकर आगे जाने को मन तैयार नहीं होता ! क्योंकि जाऊंगा तो सहम कर उस नन्ही चिड़िया को उड़ना होगा ! कारण कि मैं इंसान हूं और चिड़ियां सबसे ज्यादा परेशान इंसान से ही रहती है। तो ऐसे में मैं यही चुनता हूं-दूब पर ही पैर रख कर चलता हूं ताकि चुन-चुन करती हुई चुनमुनियां का गाना नरुके।चुनमुन्नी अपना गीत गाती रहे ! मुझसे डर कर उसको उड़ना न पड़े !

चुनमुन्नी का गाना

Saturday, December 16, 2017

संन्यास-समाचार

आज सुबह-सुबह बहुत पुराने दो मित्र आए। ज़ाहिर है बहुत खुशी होती है।अब तो आजकल कोई किसी को पूछता नहीं। आज सुबह-सुबह बहुत पुराने दो मित्रों का आना! बहुत खुशी होती है कोई स्नेही आ जाएं तो। इस मौसम में,सो भी सुबह-सुबह पधारे तो क्या कहना ! आनन्द आ गया।

   प्राथमिक शिष्टाचार हुआ। श्रीमती जी ने भी हुलस कर उनके लिए चाय बनाई। चाय पीते हुए  वार्ता चल पड़ी।

एक मित्र ने बड़े उद्गार में बड़ी भक्ति राष्ट्रभक्ति के भाव में कहा- अपना देश भी अद्भुत अनुपम है ! जो विदेशी भी यहां आ जाता है तो इसी देश का हो जाता है।यहीं कि भावना के वशीभूत हो जाता है ।’

-’जैसे ? कोई नया नया कुछ हुआ क्या ?’दूसरे मित्र ने टोका।

-’जैसे कि हमारी आदरणीया सोनिया गांधी जी।' दूसरे मित्र भाव विभोर स्वर में बोले। फिर देश की परंपरा के सम्मान के भाव में बहते हुए ही भावुक-भावुक कहते रहे- मुझे तो लगता है कि कहीं ना कहीं अपने देश में आज भी संन्यास की परंपरा जीवित है।बहुत पहले जो एक उम्र में आकर आदमी संन्यास आश्रम में जाते थे। आज भी होता है!’

-’जैसे ? ऐसा आपको किस आधार पर लगता है?’

दूसरे मित्र ने टोका।

-’देखिए ना,पुत्र राहुल जी को अध्यक्ष पद सौंप कर, सोनिया गांधी जी ने रिटायर होने की घोषणा कर दी। रिटायरमेंट ही तो संन्यास है न?इस बात पर तो मैं उनका और मुरीद हो गया!’

-’हां,हां ! सोनिया जी रायबरेली से चुनाव लड़ने वाली हैं। आज मैंने भी अखबार में पढ़ा है !’

मेरे दूसरे मित्र ने छूटते ही कहा और कुटिल विनोद से मुस्करा कर मेरी ओर देखा।

‌   अब यह ज्वलंत वार्तालाप मेरे दो मित्रों का है।मुझे लगाकि आप तक भी पहुंचे,सो प्रस्तुत है।परंतु निवेदन है कि मात्र इस आभास पर‌ कि आपको ये एक कांग्रेस भक्त और दूसरे भाजपा के लगें इसीलिए यह राजनीतिक चर्चा है,ऐसा न मान बैठें।कृपया,

शुभ प्रभात !

Thursday, December 14, 2017

मन में उपजा

स्वार्थ और विचार बहुलअपने इस देशीय समाज में जिस दिन यह धर्म,भाव समरस मिलन,यह संगम होगा,हमें वह दुनिया मिल जाएगी। इस स्वप्न में बहुत लोग अनथक हुए अपनी-अपनी आयु जी रहे हैं।

प्रयाग को महज़ भू-धार्मिक समझने की भूल न करें।

धर्मास्था से परे वह, मानव प्रकृति की चिरन्तन लोक- धारणा भी है।

Wednesday, December 13, 2017

कहिनी

कहिनी
*
हम नहि  कोनो बकवास केलौं
लीखि कहि जैबाक प्रयास केलौं

देब माफ़ी हमर समयक लोक
किछो कहि क’ जँ उदास केलौं

हम्हूंँ लोके जकाँ कै बेर  कतेक
अबल,दु:खी मन निराश  केलौं

कोनो राजाक शरण नहि गेलौं
लोक संगहिक  अभ्यास केलौं

मोन पूछैये आब कखनो काल                   
अहाँ कविता मे की खास केलौं

स’भ  प्रतिकूल समय मे संभव
कैल प्रतिरोध नहि हताश केलौं

जदपि जे कहलक मन से कैलहुंँ
ओना अनकहलो बड़ रास केलौं

स’ब सँ कहबा मे छूटि गेलनि   
से विषय हम ही टा,खास केलौं

हँ मुदा बेर पर कए  बेर एहन
भेल संभव नहि अहाँक बात केलौं

एक बेर सब टा विफल मन कें
कहि दीतहुंँ अहूंँ जे माफ़ केलौं

गुंजनक एखन तं एतबे किताब
जीवि-मरि कवितेक विश्वास केलौं                   

रचना : ५.११.२०११ / गंगेश गुंजन

Friday, December 1, 2017

रूह में उतर कर देखा जो

रूह में उतर कर उतर कर जो 
*
मैंने उसके चेहरे पर देखा
पूरा का पूरा आकर्षक विज्ञापन  था   
कुछ रंगीन परेशानियां थीं,कुछ तीखे सवाल
सब के सब उलझी हुई रस्सी की तरह गड्ड-मड्ड,
और पढ़ना मुश्किल था उसके मन को।
मैंने एक मामूली-सा सवाल किया।
वह चुप रह गया कुछ बोला नहीं
लेकिन उसकी अवस्था मुझे लगी कि
जितना बाहर है वह बिल्कुल भी नहीं है
इससे इतर है, यह जो है
मैंने उसकी रूह में झांका।
मैं उसकी रूह में उतरने की कोशिश करने लगा और देखा-वहां कितना सुंदर इतना प्यारा
इतना मुलायम एक इंसान है जो वहां भी यानी
अपनी रूह में तन्हा है। लेकिन उसके हाथ में पुरानी खुशबू की कलम है।
नाक पर टिका चश्मा है। वयस्क आंखों में बचे हुए सपने हैं। और उसमें
गुन गुनाता हुआ गाना है। वहां, उसकी रूह में एक पूरा का पूरा अलग ही संसार है।
बिल्कुल अलग और उसमें जिधर देखो उधर बच्चे खिलौनों से खेल रहे हैं।
नवयुवक बेइख्त़ियार हैं। दोस्त प्रेम के चर्चे कर रहे हैं।
वयस्क परस्पर पुराने दिनों को स्वाद ले लेकर याद कर रहे हैं और यह सब  उसकी रूह में कभी चित्र, कभी कविता, कभी गीत और कभी समूह गान के रूप में चल रहा होता है।
अजीब-सा तिलिस्म रखा है।
मरने-मार डालने तक की गर्म बहस,नंगे शमशीर की तरह  खाली हाथ !
इसके चेहरे और इसके रूप में कितना बड़ा कितना बड़ा फासला है।
मैं उसकी रूह से पूछता हूँ -’कैसे संभालते हो तुम ?’
वह मुस्कुराता है जैसे, कोई अच्छा बहुत अच्छा या सबसे अच्छा इंसान मुस्कुराता है और
और जिसकी पूजा अर्चना करता है वह उसके कदमों में ईश्वर की तरह उसकी आज्ञा का
इंतजार करता है उसका टहल बजाने के लिए। वह यूँ निश्चिंत है जैसे,
दुनिया की सबसे अच्छी मां उसे अपनी गोद में लेकर सबसे अच्छी संतान की तरह          
सृष्टि की सबसे दिव्य लोरी गा कर सुना रही है और वह नंद नंदन ! नन्ही- नन्ही पलकों में
निंदिया रहे पूरी दुनिया पर मुस्कुरा रहा है।
और अपनी रूह दिखा रहा है, जैसे -
अर्जुन को दिखाया था,अपना विराट विश्वरूप !
चेहरे से अलग उसकी रूह तो पूरा का पूरा
एक ब्रह्मांड है
परम शांत ज्ञानवान है ।
यह कैसा इनसान  है !
*
-गंगेश गुंजन। 27 March, 2016.


Wednesday, November 29, 2017

शे-एर

हल्कान था जी यूं ही सुलूके समाज से
उसनेे भी आज लिख दिया आभार,या ख़ुदा !
*
-गंगेश गुंजन
३० नवंबर,२०१७ ई.

Thursday, November 23, 2017

छाउर-(२)

छाउर.(दू)
*
हाथ मे मैल आ कचकच करत छाउर।
बसातक उधियायल आंखि मे पड़ल तं
सहजहिं कुटकुटायत।
मुदा माछ बनबय में सबसं बेसी काजक रहय।
छाउरे लगा क’ घीचल जाइत छल तहिया
कटाह लोकक जीह।
कहबी मे सेहो कहां बांचलए।
राति-बिराति ठाम-कुठाम क’ देने बिलाड़िक नेड़ी कें
तत्काल झांपि देल जाइत छल,छाउरे सं
मूत-गोबर सं गिल रहि गेल गाय-बड़दक थैर पर छीटल जाय छल छाउर।जल्दी रुक्ख करै लेल माटि।
मां कहलक तं बाड़ी में कोबी-भांटाक गाछ पर तं कतेको बेर हम स्वयं छिटने छी-चूल्हि आ घूरक छाउर।
दतमनिक अभाव आ मार्निंग स्कूलक हड़बड़ी मे
कए बेर छाउरे दातमनि करैत रही हमरा लोकनि
गामक इसकुलिया विद्यार्थी सब।जाइ वाटसन स्कूल ।
छाउरो आब लुप्त होइत वन्य प्राणीक प्रजाति जकां भ’ रहलय। बेरा-बेरी विदा भ’ चलि जा रहल गाम मे बूढ़-पुरान लोक जकां।
मिझायल घूरक छाउरे पर घोकरिया क’ पड़ि-सूति
जड़काला राति बितबैत रहय गामक अनेरुआ कुकूर!
     इतिहास भ’ जायत।

-गंगेश गुंजन । २४.११.२०१७ ई.

Wednesday, November 22, 2017

छाउर

छाउर

*
इतिहासक छाउर सं,
आंखि कुटकुटाइत रहैये एखनो ।
एखनहुं उड़ि-उधिया‌ क’ अबैत रहैये बेसी काल,
ई छाउर कोनो ने कोनो श्मशान सं,क़ब्रिस्तान सं
अबैये आ करेज में पैसि क’
भरि अंतर्रात्मा बिर्ड़ो उठा दैये।
गंध सेहो कर’ लगैए चिरायन-चिरायन
करिते रहि जाइए दिनक दिन।
जीह हौंड़ैत रहैये, रद्द होयबा धरि ओकाइत रहैये कंठ।

आंखिक समस्या मुदा बेसी जटिल अछि।
एना बेर-बेर आंखि कुटकुटयबाक कोन उपाय ?
आंखिक डाक्टर कहैत छथि-
‘इतिहासक छाउर सं कुटकुटाय वाला ई आंखि
अबाह भ’ गेलय। एकर आपरेशन करबाउ।
एकरा तुरंत निकलबाउ आ दोसर लेंस लगबाउ।नव आंखि बनबाउ।अपना कें‌ अप-डेट करू।’

की करी ? मानि लेबाक चाही- डॉक्टरक सुझाव‌ ?
-गंगेश गुंजन

Monday, November 13, 2017

दु:ख दिल से सहा नहीं जाता !

दु:ख दिल से सहा नहीं जाता
और  उससे कहा  नहीं जाता

कौन अपना बचा है गाँवों में
सुन के दौड़ा यहाँ चला आता

बारहां सुख को निकलते देखा
घरके ग़म से ही धकेला जाता

हम भी रहते उसीकी बस्ती में
चैन में मन मेरा  भी इतराता

काश होती  बची कहीं  तासीर
आँख में अपनी भी लहू आता

वह जो बदला तो इस क़दर किअब                
मैं भी उसके  लिए कहाँ जाता

कोंपलें  फूटनी हैं अगली रुत
एक हसरत कि देखकर जाता
🌱
रचना: 9 फरवरी,2013.
-गं.गुंजन

Monday, October 30, 2017

भाषा की पीड़ा

भाषा की पीड़ा
*
सिर झुकाये भाषा, हाथ जोड़ कर खड़ी थी और
एक साथ मुझे अपनी लाचारी और
चेतावनी दे रही थी- मानुष कवि !
इतने असत्य,अन्याय और अंधियारा मैं नहीं बोल सकती अब। तुम्हारे दु:ख,शोषण और परिवर्तन कहते-कहते मैं बेअसर हो चुकी हूं। भोथड़ी हो गई हूं।
और तो और ऐसा लोकतंत्र भी मैं नहीं लिख सकती। इस तरह तो अभी तो भोथड़ी हो रही हूं,कल को तो गूंगी हो जाऊंगी।

-प्रेम से लेकर युद्ध और ध्वंस से निर्माण तक,असहयोग से सशस्त्र प्रतिरोध तक...लाठी-तलवार से  बंदूक कबसे ये सबकुछ कहती आ रही हूं।

देखने के तुम्हें इतने महाभारत और इतिहास दे दिए हैं दुनिया भर।सत्ता,शासन राजतंत्र-लोकतंत्र।
यह लोकतंत्र तुम्हारा ! और अब तुम चाहते हो कि तुम्हारे लिए इन्हें पढ़ूं भी मैं ही, मैं ही करूं ?

तुम लात-जूते खाते रहोगे,वक्त़-वक़्त पर‌ जेलों में तफ़रीह करने जाते-आते रहोगे। धरने पर बैठे फोटो लिवाते रहोगे, वहां से उठकर वोट देने जाते रहोगे।
भले शब्द-लोकतंत्र और परिवर्तन भी मैंने ही कहे, तो ?
    तुम सिर्फ़ इन्हें बोलोगे और बोल कर सोओगे ?...
*
-गंगेश गुंजन। ३१.१०.’१७.

Sunday, October 22, 2017

कमला नदी‌ की कहानी

यह मिथिला का लोक श्रुति-क़िस्सा है और मूलतः  मैथिली में ही लिखा गया।सुविधा के लिए यहां हिंदी में प्रस्तुत है:

।। कमला‌ की कहानी ‌।।
*
कहते हैं कि ईश्वर ने मां को धरती पर इसलिए भेजा क्योंकि पूरी दुनिया के प्राणियों जीव-जंतुओं की चिंता करने में उनको उनकी ही शक्ति वाला एक विकल्प मिले। सुविधा हो। यानी मां ईश्वर का प्रतिरूप होकर धरती पर आई।
    लगभग ऐसी ही कथा मैंने भारत की‌ दो महान नदियों के बारे में भी सुनी थी। गंगा और कमला। क़िस्सा मेरे बचपन‌ का है।
   गांव में मेरी एक दादी हुआ करती थीं। हम बच्चे उनको बाबी कहते थे -रंजनी बाबी। हम उनसे किस्से सुना करते थे।उन्हें बहुत दिक‌ किया करते। तब वह भी कभी कुछ कभी कुछ सुनाती रहतीं।‌जहां तक याद है,उस समय माघी सप्तमी/मकर संक्रांति‌ के दिन सुबह- सुबह सबों को कमला नदी में डुबकी लगाकर स्नान करने जाना पड़ता था। उस तिथि में नदी-स्नान करना ऐसा धार्मिक और पारिवारिक रिवाज था जिसे छोड़ा नहीं जा सकता था। जबकि भीषण ठंड के डर के मारे हमलोग नहाने से घबराते थे। लेकिन बड़े-बूढ़ों की‌ डांट-फटकार के कारण आखिर कमला कात जाकर उसमें डूब लगाकर नहाना ही पड़ता। क्या करते? हम बच्चे डरते-सिहरते कमला में डूब लगाने जाते।
    तो एक संध्या हम अपनी रंजनी बाबी से बातें कर रहे थे। बातें क्या, रोना रो रहे थे,क्योंकि सुबह-सुबह कल कमला धार में नहाने जाना था। माघी सप्तमी जो थी! हम बच्चों कै पास‌ कोई तर्क तो था नहीं तो हमने बाबी से कहा- ‘वैसे बाबी, कहते हैं कि सप्तमी नहाने का पुण्य तो गंगा में नहाने से मिलता है। गंगा में नहाने जाना चाहिए ना? कमला में नहाने से क्या फल  होगा?’ बाबी बूढ़िया हंसी से मुस्कुराईं। बाबी बहुत अच्छा मुस्कुराती थी। वह हमारी समस्या तो जान गई थीं। अपने पोपले मुंह से किसी तरह हंसती हुई बोलीं-
-’अरे बताह (पगले),कमला और गंगा में भेद थोड़े ही है। कमला भी गंगा ही है।’ अब यह बात तो हम बच्चों के मन में अंटी नहीं, तब फिर नाम क्यों अलग-अलग है? क्योंकि गंगा को तो हम समझते थे सिमरिया घाट, बनारस या भागलपुर में बहती है। यहां मधुबनी में तो गंगा माय नहीं बहती है। मेरे गांव में भी नहीं हैं। तब ? मैंने फिर सवाल किया-
-‘लेकिन बाबी,गंगा मैया तो सिमरिया घाट में हैं,काशी ‌में और भागलपुर में हैं। मधुबनी में और अपने गांव में तो‌ नहीं बहती हैं ?’
   बाबी फिर मुस्कुराईं‌ और कहने लगी-
'अरे बताह(पागल), कमला और गंगा दोनों एक ही तो हैं।अब यह भी मेरी समझ में नहीं आई बात। मैंने इस तरह कुछ समस्या बताई तो कहने लगी -
‘सुन। एक क़िस्सा सुनाती हूं...
किसी गांव में दलित जात की एक स्त्री रहती थी। उसका नाम सतबतिया (सत्यवती) था।
-’दलित माने क्या बाबी ?’ हमने टोका, तो बोलीं-
-मान ले अपने इस गाम‌ में एकदम से पच्छिम-उत्तर में जो लोग फूस की झोपड़ी में रहते हैं...
- वे जो ब्याह-उपनैन-दशहरे में ढोल-पिपही बजाने आते‌ हैं वे?’ मैंने बाल सुलभ उतावलेपन से पूछा।
-हां रे वेही। उसी दलित टोले में एक बड़ी भक्त स्त्री थी। बहुत अच्छे स्वभाव की और सब की मदद करने वाली। वैसे उस पर आये दिन बड़ी विपत्ति आती रहती थी। समाज के बड़े लोग उसको सताते भी थे। फिर भी वह सहती रहती थी और किसीका बुरा नहीं करती थी। तकलीफ और ग़रीबी में भी वह भगवान को भजती रहती थी। गांव में जैसे-तैसे गुजर करती थी।

   कुछ ही समय बाद वह बीमार पड़ गई। फिर बीमार ही रहने लगी। अब उन जैसे दीन-हीन को डाक्टर-वैद और दवा कहां से हो ? तिसपर से उसके बच्चे भी उसे छोड़ कर रोजगार में निकल गये।सो बिन दवा-दारू वह‌ जीवन के दिन गिनने लगी। तब जैसा कि लोग मानते हैं कि गंगा किनारे आकर मरने से और वहीं जलाये जाने पर आदमी को मोक्ष मिलता है। सो सतबतिया की भी यही कामना थी कि वह भी गंगा कात में (किनारे)मरे।लेकिन वह सिमरिया गंगा कात जा कैसे सकती थी।ना रुपैया-पैसा न कोई वहां पहुंचाने वाला। बेचारी सिमरिया‌ कैसे जाती? सो जब बहुत बीमार हो गई और उसको लगने लगा कि अब नहीं बचेगी तो अंतिम समय उसने मन ही मन बहुत विकल होकर गंगा मां को पुकारा-
- ‘गंगा मैया तू क्या सिर्फ धनिक लोग के लिए ही है?डौढ़ी और जमीदार लोगों के लिए ही है जो इतना दूरस्थ सिमरिया घाट में रहती है ? यहां भी क्यों नहीं बहती ? अब इतनी दूर रहती है कि‌ हम तो आ नहीं सकते‌ हैं। फिर हम जैसे गरीबों को छुट्टी कैसे मिलेगी मैया ? मरने के बाद हम किस नदी के किनारे जलाए  जाएंगे, हमको मुक्ति कैसे मिलेगी? सो गंगा मैया,तुम अगर गरीब-गुरबा को भी प्यार करती है तो मेरे पास ही आकर रहने लग जा। मैं तो तुम्हारे पास नहीं आ सकती। मुझे कौन ले जाएगा तुम्हारे पास? बहुत दूर में तुम रहती हो!’

बस। सुनते हैं कि सत्यवती की इस पुकार‌ पर गंगा मैया का दिल भर आया है।अपने इस बुढ़िया की पुकार पर उन्हें बहुत ममता हुई। रात बहुत हो‌ रही थी। और रोते-रोते थक कर उसकी आंख लग गई। कि तभी सपने में क्या देखती है कि-गंगा मैया साक्षात‌ उसके पैरों के पास खड़ी हैं और कह ‌रही ‌हैं-
‘-रो मत सत्यवती। तू अभी आराम से सो जा।कल से मैं तेरे गांव होकर ही बहूंगी।मैं तेरे लिए ही यहां आऊंगी। लेकिन हां मैं यहां गंगा नहीं,कमला होकर बहूंगी। अभी तू सो जा।’
   उस भयावह अंधियारी रात,झमाझम वर्षा होती रही थी। रात भर बादल गरजते रहे,बिजली कड़कती रही।
  बाबी बोलीं- कहते हैं उस पहली बरसात में ही‌ भोरे-भोर लोगों ने एक चमत्कार देखा। क्या देखा कि गांव के बाहर पूरबी बाध में आगे से कल-कल करती हुई पानी की धारा बह रही है !
     तभी से लोग उसको कमला धार कहकर‌ पुकारने लगे।
 *
-गंगेश गुंजन। गांव। ९.१०.२०१७.

फेसबुक ज़िम्मेदारी

वैसे कल से तनिक उद्विग्न हूं।मेरे एक प्रिय बंधु जो सुपठित हैं सुलझे हुए हैं,एक पोस्ट पर उनकी  प्रतिक्रिया पढ़कर चिन्तित भी। हालांकि अभी उनका उपकृत भी हो रहा हूं कि उन्हीं के उकसावे या प्रेरणा से यह टिप्पणी लिख रहा हूं।

  मेरे हिसाब से तो Facebookबहुत बड़ी दुनिया है। हमारी अच्छी-बुरी नशीली-विषैली,आनंद और दु:ख की बहुत बड़ी दुनिया रोज़ इस पर अपने आकार लेती है। हमारी मानवीयता,विचार और भावुकता के साथ अपनों तक पहुंचती-पहुंचाती है।आज जब कि साधारण जीवन से पारंपरिक त्योहार भी जीवन से लुप्तप्राय हैं,इस शुष्क जीवन-परिस्थिति-शैली की उद्विग्नता व्यग्रता के बीच ये पृष्ठ कुछ पल के लिए हमें हमारी मनपसंद दुनिया रचने का ख़्वाब याद दिलाते चलते हैं।

  तो ऐसे में हमें, किसी पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए इसका शऊर, इल्म और अंदाजा अवश्य ही रखना नहीं चाहिए कि हम यह टिप्पणी कहीं हरबड़ी में अतः ऐसी टिप्पणी तो नहीं कर रहे जिस अनुभव, विद्या-विधा के हम अधिकारी नहीं हैं, जो हमारा क्षेत्र नहीं है? जो हमारा विषय नहीं है जो हमारी विशेषज्ञता नहीं है या जो हमारे मन की भी बात नहीं है।उसपर हरबड़ी में या क्षणिक किशोर भावुकता के ज्ञान बघारू उत्साह‌में तो ‌नहीं कर रहे? फटाफट और कुछ भी कह देने से क्या हमें बचना नहीं चाहिए?

   हम जानते हैं सभी सब कुछ नहीं जानते परंतु ‘सभी’ कुछ न कुछ विशेष, अवश्य जानते हैं।तो हम यदि अपनी टिप्पणियों को अगर अपनी सीमा को समझते हुए उसी से नियंत्रित और प्रेरित करें तो कदाचित Facebook पर टिप्पणियों के चलते जो बदमज़गी आये दिन होती रहती है,जैसी कुरूप चर्चा चल पड़ती है वह थम सकती है।अत: हम इसके लिए मुनासिब संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से तत्पर रहते‌ हुए, अपने ज्ञान,अपनी जानकारी, विचार और अपने आदर्श का प्रयोग नहीं कर सकते जो लक्षित समाज लक्षित विषय और सर्वसाधारण उद्देश्य की रुचि,बुद्धि और भावना के अनुसार भी बन पड़े ?

‌‌   इस दुश्वारी के चलते ही अपने कतिपय वैसे योग्य,गुणी और आवश्यक आत्मीयों को उनकी सुंदर और मूल्यवान  टिप्पणियां पढ़ कर भी अपनी पसन्द, सराहना भावना को भी संप्रेषित नही कर पाने की मेरी भावनात्मक समस्या तो अलग है।

  ‌  अपने फेबु साथियों के सम्मुख यह मेरा प्रस्ताव,निवेदन है, कोई परामर्श नहीं। शुभकामनाएं।

सस्नेह,

-गंगेश गुंजन ।२२.१०.२०१७ ई.