कई दुःख की कहानी लिख गया है। ख़ुशी की दास्तां कुछ गढ़ गया है। बहुत था बोझ कांधे सिर प' उसके थके धीमे कदम से घर गया है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
कई दुःख की कहानी लिख गया है। ख़ुशी की दास्तां कुछ गढ़ गया है। बहुत था बोझ कांधे सिर प' उसके थके धीमे कदम से घर गया है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
पृथ्वी गुड़का रहलि स्त्री !
*
पुरुख कहि-कहि क'रहैए
स्त्री सहि-सहि क' रहैए।
पुरुष बहुत कम रहैए
स्त्री बेसी सं बेसी रहैए।
किछु पुरुष किछु ने सहैए
स्त्री एक टा शब्द सं ढहि जाइए
स्त्री आखिरी बेर किछु ने सहैए।
नहि रह' देबै,स्त्री तैयो रह' दैए।
पुरुष हर बरद, गाड़ी घोड़ा हांकि सकैए
स्त्रीक मूड भेलै तं पृथ्वी के नचा दैए।
*
गंगेश गुंजन।
२७.१२.'२०.
विचार की आयु !
अवश्य ही विचार भी अमर नहीं है लेकिन वह मनुष्य की तरह नश्वर नहीं है। विचार की आयु हर हाल विचारक से लम्बी और दीर्घायु होती है। लेकिन प्रच्छन्न रूप में विचार में ही उस विचारक की आयु रहती है।जबतक कोई विचार वर्तमान और भावी सब समाज के लिए उपयोगी और प्रासंगिक बना रहेगा उसकी आयु उतनी कालजयी होगी। इसी अर्थ प्रसंग में विचार मनुष्य के बाद भी जीवित रह जाता है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
*। >>>>>>> ।*
यह जो दुनियादारी है समझें सब अख़बारी है।
सत्ता सब दिन कहती है लोकतंत्र सरकारी है
सीधा हक़ मेरा लेकिन उनकी पहरेदारी है।
हैलिकॉप्टर पर चलता लोकतंत्र सद्चारी है।
सत्ता के गलियारे में ज़्यादा तो दरबारी है।
और इधर अन्जान अवाम इसकी क़िस्मत न्यारी है
रौशन दिन चुंधियाते हैं अंधियारी लाचारी है।
वो उसको कहता है वो भ्रष्ट और व्यभिचारी है।
देसी लोकतंत्र में अब वैश्विक बुद्धि दुलारी है।
सत्ता या है भले विपक्ष भाषा अजब दुधारी है।
झा मंडल ख़ां शर्मा सिंह देश'ब महज़ तिवारी है।
**
गंगेश गुंजन।
#उचितवक्ता डेस्क।
०२.१२.'२०.पा.टि-८.
शे-एर
छलनी होता रहे ख़ार से जिस्म मगर उफ भी न करे।अपने अहसासों से हमको ये भी ख़ूब तवक़्को है।
गंगेश गुंजन।०९.१०.'२०.पारस टि-८.
#उचितवक्ताडेस्क।
ग़ज़ल >>>>>>>
पिछली रुत की बात करे वो फूलों की बरसात करे वो।
वक़्त बड़ा मनहूस सामने ढल जाने की रात करे वो।
यही करिश्मा तो है उसका सहरा भी सौग़ात करे वो
किस सुकून से ठहरे मन को सैलाबी जज़्बात करे वो।
उथल-पुथल की दुनियादारी सड़ी सियासी बात करे वो।
सहर ख़ुशनुमा याद आ गयी। ख़िज़ां मिरी बरसात करे वो।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
रोज़ नहीं होती कविता
दिनचर्या की तरह कविता रोज़ नहीं लिखी जा सकती है।छन्दोबद्ध कविता तो और भी नहीं। डायरी और निर्वस्त्र विचार के सिवा यों तो सुस्वादु सुपाच्य गद्य भी नहीं लिखा जा सकता।
हां कोई पहला ड्राफ़्ट तो शौचालय में भी किया जा सकता है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
कहीं प्रकृति की भी संयुक्त मोर्चा सरकार तो नहीं चल पड़ी है ? प्राकृतिक लोकतंत्र अल्पमत में तो नहीं आ गया है।
गंगेश गुंजन। #उचितवक्ताडेस्क।
अब दूर से दिख जाते हैं अफसोस के इलाक़े ज़ाहिर है उसी पग पर रुख़ मोड़ लेता हूं।
तज़ुर्बे तो बहुत रिश्तों के सफ़र में हुए लेकिन जो सो गये हैं उन्हें वहीं छोड़ देता हूं।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
ढब लोगों के बदल गये हैं।
मीठी वाणी बात करेंगे।
भीतर से आघात करेंगे।
ज़्यादातर दिल जले हुए हैं।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
लोकतंत्र को जिस दिन हिंसा का अहिंसक विकल्प मिल जाएगा उस दिन लोकतंत्र निष्कलंक हो जाएगा और सबजन आदर्श राज्य-व्यवस्था बन जाएगा।इसमें मुझे कोई संदेह नहीं।
गंगेश गुंजन।
#उचितवक्ताडेस्क।
अभी हूं मैं !
*
आख़िर अपनी ऋतुओं को मैंने
तिथि मुक्त कर डाला।
मेरी चेतना में वे अब संदर्भ स्वतंत्र हैं।
कम सांघातिक नहीं होती है कोई,
तारीख़ की पराधीनता।
यह बोध हुआ तो अब किताब-अख़बार,
मीडिया मुद्रित उसका ज्ञान,संशय का अलग विरोधी,जटिल जंजाल लगता है।
जिस दिन दो अक्तूबर को मेरी बस्ती के वृद्ध शिक्षक की हत्या हुई उसी दिन से।
समाज में अंतिम आदमी की अधिकारिता के संघर्ष में ऐन पहली मई को हुई यहां मेरे मित्र की एक और हत्यारी विदाई,उसने वह मन नहीं बचने दिया तीस जनवरी वाला भी।
शहर के मुहल्ले और गांवों की बेटियाें का ऐन जानकी नवमी के रोज़ बलात्कार हो और इतना लोमहर्षक देह दहन ! इतनी बार देख-देख कर
जानकी नवमी अब,गौना होकर आई स्वप्नमयी आत्मा की नव विवाहिता का सर्वांग जल कर तड़पता हुआ एक स्त्री-तन मात्र दिखाई देता है।
सो अब,क्या कोई,
विवाह पंचमी भी।
अब बचा हुआ हूं मैं,
हर हाल बचा कर रखना चाहता हूं- पन्द्रह अगस्त !
जैसे हालात हैं इसमें,देखें कब तक बचाए रख सकता हूं यह दिन ! अपनी आत्मा में कब तक सुलगाए रख सकता हूं यह अलाव भी !
कम से कम यह तिथि तो समूचा शीत काल रात भर तापते रह कर बिताना चाहता हूं।
मौसमों की मिली-जुली दुरभसंधि अब इसे भी हमारी चेतना से विस्थापित कर देने पर आमादा है।
होने नहीं देना चाहता हूं स्मृति-लुप्त।
लेकिन नहीं जानता इसके बारे में,यहां तक कि
अपने प्रिय पड़ोसियों का मिज़ाज।
मगर इससे क्या,मैं तो अभी हूं ।
गंगेश गुंजन,
#उचितवक्ताडेस्क।
पहाड़-सा दु:ख भी लगता है अब राई भर। दिमाग़ और दिल में हो गया है समझौता।
गंगेश गुंजन।
#उचितवक्ताडेस्क।
यह मेरी जिंदगी है पर मेरे वश में नहीं है। इशारे पर किसी के खा गयी मुझको तमाम उम्र।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
कोई कविता अपने शब्द-सौंदर्य,जुमलों और रूपाकार भर से ही नहीं हो जाती। अपने आशय और अंतर्वस्तु के कारण होती है। आप सोचें पांच हज़ार बोरियां बालू कोई एक कोठरी तक नहीं बन सकतीं लेकिन पांच हज़ार ईंटें एक घर बन जाती है। कविता को यहां से देखना चाहिए,ऐसे।
गंगेश गुंजन।
#उचितवक्ताडेस्क।
इम्तिहानों का इम्तिहान लेते हैं। कोई नए नहीं हम ज़माने के हैं।
गंगेश गुंजन.
#उचितवक्ताडेस्क
ख़ास बनकर क्या किसी को मिल गया इस ज़िन्दगी से। गया चल कर आम रास्ते ही से वह आख़ीरकार।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ता डेस्क।
डरी सहमी इबारत रोष में हो तो मेरी होगी। तबस्सुम से भरी हो तो पढ़ो राजा का है फ़र्मान।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ता डेस्क।
एंबुलेंस की चेतावनी-ध्वनि हरदम अशुभ और डरावनी ही लगती है। वह बेचारा अस्पताल से किसी स्वस्थ व्यक्ति को घर पहुंचाने जा रहा होता है तब भी उसका हॉर्न अप्रिय और चिंता पैदा करने वाला ही सुनाई पड़ता है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ता डेस्क।
☔☔☔☔।। कविता के कार्य ।। ☔☔☔,☔
कुछ कवि, कविता में अपने अंदेशे भी लिखते हैं कि अपनी कविता के कारण वे किसी दिन मारे जाएंगे। लेकिन वे शायद ही मारे गए।
कवि मारे भी अवश्य जाते हैं लेकिन वे और थे और आज भी इनसे अलग होते हैं।
🌼। ।🌼
# उचितवक्ता डेस्क।
[ दलित जीवन-बोध पर लिखे अपने 'हजूरी गेट का कोरस' काव्य से। ** इस काव्य की केन्द्रीय किरदार नई पीढ़ी की जॉली नाम की बहुत सचेत और स्वप्न दर्शी एक अहिंसक जुझारू लड़की है।यह अंश जॉली की डायरी से।]
🌿🔥🌿
मतलब था बस होने में। इस घर के इक कोने में।
यूं ही कटती गई चली। उम्र बरोबर होने में।
हां लेकिन तमाम मुश्किल। काटी नहीं य' रोने में।
था ही क्या बतौर पूंजी डर क्या था कुछ खोने में।
संघर्षों की सख़्त ज़मीन। तोड़ी काटी बोने में।
माटी का मानुष माटी। लोभ नहीं था सोने में।
तैरे तो क़श्ती संभली। थे कुछ लोग डुबोने में।
**
गंगेश गुंजन। रचना : २३.२.'११. बाटे-घाटे।
#उचितवक्ता डेस्क।
बिना सियासी तड़के की ग़ज़ल कहता है। आज के दौर में ऐसी हिमाक़त गुंजन की।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ता डेस्क।
मां का प्रेम छंद की तरह अनुशासित और ललित है। पिता का प्रेम व्याकरण की तरह है।
गंगेश गुंजन
[# उचितवक्ता डेस्क]
सब कुछ स्वप्न सरीखा है। जीवन में यह दीखा है।
पाकर मीठा छूट गया मिला बहुत जो तीखा है।
अनुभव बुद्धि समझ भी सब जीने का ही तरीक़ा है।
वह यूं आज देखता है उसका अलग सलीक़ा है।
आंखें सब की एक समान सपना अलग सभी का है।
हर इक दिल अपनी बस्ती रहना अलग सभी का है।
उसमें शान्त अंधेरा है इसमें एक झरोखा है।
सुख में जो रस्ता भूला दुःख में वो भी दीखा है।
दीप वही जो जलता है जीवन से यह सीखा है। *** ** गंगेश गुंजन [# उचितवक्ता डेस्क ]
जुबां सबकी अपनीअपना मिज़ाज होता है इक रिरियाए जी हुजूर दूसरा दहाड़ता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
ग़ज़लनुमा
किसी को ग़म नहीं होता किसी का कभी इसका कभी धोखा उसका।
आप करते हैं वफ़ा की बातें इसी में तो जिगर जला उसका।
एक सी है नहीं सबकी तक़दीर कहीं सीधा नसीब, उल्टा उसका
फेर ली है निगाह अपनों ने मिरा नहीं तो क्यूं क़सूर उसका।
बुलाता मैं जिसे सदा देता नाम लव पर नहीं आया उसका
जानते भी कम बस्ती के लोग अब ज़माना भी कहां गुंजन का।
**
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क
मुश्किलों को पार कर हम गांव आये थे ख़ुशी में, पांव जो छूने झुके काका ने पीछे कर लिए।
गंगेश गुंजन # उचितवक्ता डेस्क।
शाम के बाद भी घर में अंधेरा देखकर अब। 'अंधेरा क्यूं है ' पूछने नहीं आते पड़ोसी।
गंगेश गुंजन, # उचितवक्ता डेस्क।
रूमानियत
मनुष्य के अनुभव या विचार की कोई भी भाव प्रवण मनोदशा एक रूमानियत ही है।क्रान्तिकामी ओज-उद्गार भी।
🔥
गंगेश गुंजन # उचितवक्ता डेस्क।
घरघुसड़ा बनने से रोका क्योंकि...
जवानी में जब घरघुसना बनना चाहते थे तो समाज के डर से पिता जीने रोका क्योंकि तब पुरुषों का अधिक देर तक आंगन में रहना वर्जित था। समाज में हंसी होती थी।
अब इस उम्र में कोरोना ने आकर घरघुसड़ा बना कर छोड़ दिया है। सोशल डिस्टेंसी ऊपर से अंकुश है...विडंबना देखिए।
# उचितवक्ता डेस्क।
मनुष्य की नैतिकता, हाथी के कान में लटके हुए अंकुश की तरह होती है।
गंगेश गुंजन # उचितवक्ता डेस्क।
कोई दुखड़ा रोये तो इज्ज़त से सुनना उसको मत करना नाराज़ दु:ख ख़ुद्दार बहुत होता है।
गंगेश गुंजन। # उचितवक्ता डेस्क।
सृष्टि की समस्त विधाओं में नवाब कविता,आम आदमी के दु:ख दर्द को सबसे पहले,सबसे अधिक समझती और महसूस करती है। सब से पहले विचार होने तक कहती भी है।
यह विरोधाभास-सा लगता है लेकिन यथार्थ है। गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
सफ़र में साथ नहीं अपना अहसास तो दिया।इनायत ये भी ज़िंदगी पर कुछ कम नहीं उसकी। गंगेश गुंजन # उचितवक्ता डेस्क।
लोकतंत्र आदर्श हो तो विपक्ष से अधिक सत्ता पक्ष बेचैन रहता है।
गंगेश गुंजन # उचितवक्ता डेस्क।
दाग़ ज़ख़्म से ज्य़ादा उम्रदराज हुआ करता यह सच है। घाव सूख जाता है दाग़ फ़साना बन कर रह जाता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
🌺 कोरोना बुलेटिन 🌺
२७मार्च,२०२०.
आज विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष भेंट-दो पात्रीय संवाद-नाट्य:
। इकलौता दृश्य ।
[चारों ओर से बंद ड्राइंग रूम में बैठे आमने सामने दो लोग-बेचैन बुज़ुर्ग और बेफ़िक्र युवक। दादा-पोता अथवा गांव दालान आदि ]
*****
दादा : (बहुत व्याकुलता से खीझ और गुस्से में) : पता नहीं यह अभागा कब जायेगा यहां से।
पोता : जिस्म का फोड़ा नहीं ना है दादू कि एक-दो बारी मरहम लगा देने से चला जाये।आप परेशान क्यों हो रहे हैं? चला जाएगा न।'
दादा : अरे मगर कब जाएगा ? चला जाएगा,चला जायेगा करता है और भी ज़्यादा ग़ुस्साते और ख़ीझते हुए) ।
पोता: कोई देसी तो है नहीं। इम्पोर्टेड बीमारी है दादू। जानते हो। जब तक का होगा उसको वीसा। वीसा ख़त्म होते ही चला जाएगा।(इत्मीनान से मुस्कुराते हुए )...और आपके ज़माने में वो जो
एक गाना बड़ा मशहूर हुआ था न दादू ?
दादा: (अनमने, उदासीन भाव से)कौन-सा गाना ?
पोता : जाएगा -आ-आ जाएगा -आ-आ, जाएगा
जाने वाला,जाएगा-आ-आ….
दादा : अरे वह आयेगा आयेगा था। जायेगा जायेगा
नहीं...(तनिक सहज होते हुए गाना सही
किया तो किशोर वय पोते ने मुस्कराते हुए
कहा-)
पोता: हां दादू। मगर अब आपका आयेगा वाला पूरा सिक्वेंसदल गया। यह तो जाएगा-जाएगा वाला है।
(और काल्पनिक गिटार छेड़ता हुआ बड़ी अदा से तरन्नुम में गाने लगता है-जाएगा जायेगा जायेगा जाने वाला जायेगा….
दादा: बड़ा शैतान हो गया है तू...रुक। ( वह थप्पड़ दिखा कर उसकी ओर लपकने लगते हैं और डरने का अभिनय करता हुआ पोता,गाते-गाते ही ड्राइंगरूम का पर्दा समेटने लगता है।/अथवा स्थान के अनुकूल दालान के ओसारे से उतर जाता है। सचमुच में गिटार की कोई मीठी धुन सुनाई पड़ती है।)
🌿 🌳 🌿
🦚उचितवक्ता डेस्क प्रस्तुति।🦚
ज़रा इक आह भी उठने न दी मैंने सफ़र में एक बार। पड़ा जो पाँव पगडंडी पे अपने गाँव आकर रो पड़े।
गंगेश गुंजन # उचितवक्ता डेस्क।
अब इसे रक्खें कहाँ पर इतने छोटे ऐसे घर में लौटी है अब जवान होकर बचपन में खो गयी खुशी।
गंगेश गुंजन # उचितवक्ता डेस्क।
। शिक्षा और भाग्य ।
साधारण जन-मानस में गहरे बैठे हुए भाग्यवाद को कोई आत्मनिर्भर सक्षम शिक्षा-प्रणाली ही उखाड़ कर फेंक सकती है। और लोकतंत्र में यह काम सदैव,सत्ता की राजनीतिक इच्छाशक्ति और चरित्र पर निर्भर रहता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
पाखण्ड तो कला नहीं है लेकिन पाखण्डी अभिनेता ज़रूर होता है। जितना बड़ा पाखण्ड होता है उतना ही बड़ा अभिनेता होगा। सबसे खतरनाक धर्म एवं संस्कृति का पाखण्ड होता है और इसका अभिनेता।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
कभी-कभी प्रमुख आफिसर से भी अधिक विशेष,कार्यवाहक अधिकारी कर जाते हैं।जैसे ईश्वर का कार्य वाहक विज्ञान,कमाल पर कमाल कर रहा है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
' विज्ञान ईश्वर का ही कार्यवाहक अधिकारी है।' ऐसा मेरे मित्र समाधान प्रसाद बड़ी दृढ़ता से मानते हैं और मुझे सुनाते रहते हैं। आपका मत ?
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क
कुछ दर्द के रिश्ते से और नेह भी बहुत था।
पल-पल भी मरे हम तो अच्छा बहुत लगता था।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क
चुनो तो मंजिल ऐसी कि राह ख़ुद लिएचले और फ़ख़्र भी करे इसी पथ से गये हो तुम।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क
साहित्य में यथार्थ के कुर्ता-ब्लाउज की सिलाई लेखक के नाप की होती है।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
साहित्य
साहित्य मानवीय उदात्तता और आदर्श प्रयोजन के सामाजिक आशयों का भाषा में आविष्कार है।कदापि स्पर्धा नहीं है। समकालीन दो उल्लेखनीय लेखकों की तुलना अनावश्यक है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
श्रेष्ठता पर विचार
सभी श्रेष्ठता अपनी गुणवत्ता पर ही टिकी हो यह ज़रूरी नहीं है। साहित्य में तो और भी नहीं। बहुत सूक्ष्म और कूटनीतिक स्तर तक बौद्धिक कुशलता से संस्थापित अधिकतर ऊंचाई और श्रेष्ठता भी अक्सर,संगठनात्मक प्रक्षेपण और प्रायोजित होती है। कभी विचारधारा, कभी पारस्परिक स्वार्थ और प्रवृत्ति मूलक योजना में। वैसे दुर्भाग्य से ऐसी तुच्छताओं के संकीर्ण संगठन साहित्य कलाएं और प्रबौद्धिक समाजों में अधिक ही सक्रिय रहते हैं।इनके कारण प्रतिगामी विचार और कार्य को अदृश्य और बहुत सूक्ष्म रूप में ताक़त मिलती रहती है। दिलचस्प कहें या दोहरा दुर्भाग्य, यह है कि मीडिया-माध्यमों में ये ही वर्ग, साहित्य की मशाल होने का भी दम भरते दृष्टिगोचर होते हैं।
*
गंगेश गुंजन। २९.५.'१९.
# उचितवक्ता डेस्क।
यमुना के किनारे कहीं पर भी कोई ताजमहल बना ले तो ताजमहल हो जाएगा अब ?
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क
अकेलेपन में हर उस आदमी के सामने से काश नन्ही कोई चिड़िया ही गुजर जाया करे।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क
पुस्तक में ज्ञान है। घर-घर में पुस्तक है।लेकिन सभी घरबैया ज्ञानी नहीं हैं।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
हमारी कोशिशों की सीढ़ी टूटी नहीं है। हमारा हौसला थकने में अभी देरी है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
🔥🔥🔥
शोर नहीं करते मज़्लूमों के दुःख दर्द। अक्सर अंगारों में भी बोला करते हैं।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
उद्दंड और घमण्डी आंधी इस खुशफ़हमी में रहती है कि उसने पत्तों को तोड़ कर,उड़ा कर बेघर कर डाला ! जबकि उसे यह ख़बर ही नहीं कि वे पत्ते उसी की ऊंची पीठ पर चढ़ कर आसमान का सैर कर लेते हैं और धरती से भी विस्तृत विशाल महासागरों में नहाने उतर जाते हैं।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क ।
नव-पुरान सब रचनाकार कें आलोचना ओ आलोचकक आदर अवश्य करबाक चाही, परंतु दुरालोचक आ दुरालोचनाक सस्वर प्रतिरोध सेहो करब आवश्यक।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
गंगा नदी भी प्रदूषित हो गई। संस्कृति भी प्रदूषित हो जाती है। गंगाजल तो शुद्ध हो जा सकता है,संस्कृति नहीं। या शायद ही।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
कहते हैं कुशलता और दक्षता की सीढ़ी से कोई भी ऊंचाई मापी जा सकती है।थोड़ा जुनून चाहिए।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
संस्कृति तत्सम नहीं रहती। हम तद्भव संस्कृति जीते हैं। आप क्या मानते हैं साथियो ?
गंंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
जातिवाद और पूंजीवाद दोनों सहोदर। हैं क्या ?
विद्वज्जन बतलाएंगे कृपया।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ता डेस्क।
नसीब देखिये मक़्तूल का आप भी ज़रा।उसे पनाह जो मिली तो क़ातिल के घर में। गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
विशेषण के प्रयोग का आलोचकीय इल्म ही स्वस्थ आलोचना का यथार्थ लक्षण और चरित्र होता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
सामर्थ्य,चेतना और विवेक साथ में रख कर भी आदमी, दासता का सफ़र करता रहता है।मनुष्य का पराभव हाथी से कितना मिलता-जुलता है।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
हाथी अपनी स्वतंत्रताका शत्रु-अंकुश, अपने ही कान पर लटकाये चलता है, विडंबना देखिए।
गंगेश गुंजन
# उचितवक्ता डेस्क।
अभिधा में की जा रही कोई प्रशंसा ख़ुशामद या चापलूसी लगती है।वही व्यंजनामें प्रशंसा लगती है। !🙂!
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
'पांव-पैदल चल कर पाती हुई सफलता चमकदार और अधिक टिकाऊ होती है।' पिता कहते थे।
गंगेश गुंजन
[ उचितवक्ता डेस्क ]
आख़िर,देश के फ़क़त तीन राजनीतिक दलों के वर्चस्व की युद्धभूमि तो नहीं बन गया है जन साधारण ? नोट : हमारी यह टिप्पणी राजनीतिक नहीं है।
🌀
गंगेश गुंजन,
[उचितवक्ता डेस्क]
🌿🌼 🌿
जिसे हम प्यार करते हैं यह नहीं देखते। हाथ में फूल दिल कटार है नहीं देखते।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
☀️
पृथ्वी क्या ऐसी मानिनी है कि जबतक सूर्य स्पर्श करके उसे नहीं जगाता तबतक सोती ही रहती है !
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
खुले-बंधे हुए सामान हैं सब इस ज़मीन पर। ज़िंदगी के घर में ठहरे हुए मेहमां की तरह।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
आंखों का जो ख़ंज़र झेल गया है। बंदूकें भी सब बेकार उसके आगे।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
रोज आकर सुबह में इसकी उतारे आरती। गगन का सूरज है रहे, ये है मेरी धरती । गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
ग़ज़लनुमा
एकेक कर सामान गया। आख़िर में अरमान गया।
बे ईमान नफ़ासत मे। ज़्यादातर ईमान गया।
सारी उम्र वफ़ादारी । तिसपर भी एहसान गया।
रोगी राजनीति पर यह मुल्क कहाँ क़ुर्बान गया।
कुतरे पन्ने फटी किताब पानी में उन्वान गया।
कुछ भी होता दिखे नया आशा में नादान गया।
८/५/२०१४ गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
रोने लगो तो उसी में रम जाएगा दिल भी।लेकिन खु़शी भी आएगी आंसू में नहायी।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
प्रेम मनुष्य की जीवनी का उत्कृष्ट उपसंहार है और करुणा उसके जीवन को अनमोल उपहार।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
।। ग़ज़लनुमा ।।
चले चलो कोई अच्छा-सा ठिकाना ढूँढ़ें इक ऎसी ज़िन्दगी का जीना आना ढूँढ़ें।
वो तो कब के हुए रफ्त़ारे ज़माना शामिल एक तरकीब कोई हम भी सयाना ढूँढ़ें।
वो समझ बूझके ही निकला था अपनी राह भला बताओ उसे क्यूँ कहाँ-कहाँ ढूँढ़ें।
बहुत उदास है बस्ती मेरे पड़ोस में भी कोई तजबीज करें उसको हँसाना ढूँढें।
रूठ के आ भी गए गर जुनूँ कि गु़स्से में एक बार फिर से उस गली मे जाना ढूँढ़ें।
अब भी टूटा नहीं सब फिर से बन जाएगा नई ईजाद कोई नया बनाना ढूँढ़ें।
थका है जिस्म यह जीवन ऐसा चल-चल कर ज़ुबाँ थकी नहीँ अब भी नया गाना ढूँढ़ें।
मुझसे नाराज़गी इतनी उसकी वाजिब हैै चलो मनायें कि प्यारा-सा बहाना ढूँढ़ें।
झुलस रहे हैं जहां पा लें की हसरत में इक ज़रा और की निस्बत में गँवाना ढूँढ़ें।
🌳🌳
- गंगेश गुंजन, 28 दिस.2012 ई.[उचितवक्ता डेस्क]
पानी होकर सूख गया लगता है या हो चुका सफ़ेद। वरना इस मंज़र पर आंखों से लोहू उतरा ना होता !
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
बाबा से गुनाह हुआ यह ?
⚡
अगर कीर्त्ति का फल चखना है
कलाकार ने फिर-फिर सोचा,
…….
आलोचक को ख़ुश रखना है।
- नागार्जुन, ! 🙏!
वर्तमान में महज़ एक काव्य-विनोद भर लगता हुआ यह पद,भविष्य में कभी कवि -नागार्जुन का,गुनाह तो नहीं दर्ज़ होगा ?
-गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
।। ग़ज़लनुमा ।।
गाँव अब भी समझता है शहर को खुशहाल है। अब भी जब कि शहर आकर गाँव खुद बेहाल है।
गाँव हो या शहर हो या हो भले कुछ भी कहीं । धर्म भाषा जाति मार्गी सुलगता सवाल है।
बहुत उन्नत बहुत सक्षम विश्व के हैं गुरु हम कैसा फूहड़ कितना डगमग क़ौम का हाल है।
हाथ में सबके कोई जम्हूरिअत का तमंचा शांति गायन कर रहे बुद्धिजीवी,कमाल है।
हाथ में सत्ता सरोकारों के कुछ अब है नहीं जो है इक ना इक सियासी सोच का जंजाल है।
सल्तनत बेचारगी में सैर करती टहलती टी वी चैनल ख़बर में यह मुल्क मालामाल है।
अपने दिल का दु:ख जो बोला गया मुझसे ज़रा कहे साथी ‘ ये तो अब अपना-अपना ख़याल है।’ *
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
ग़ज़लनुमा
🌿
दर्द का रिश्ता गहरा है दुःख का इस पर पहरा है
धोखा साँप की आँखों का सुन्दर बड़ा सुनहरा है
देते हो आवाज़ किसे छाछठ साल का बहरा है
जीवन का भी पाठ अजब सबसे कठिन ककहरा है
वो अब क्यूँ कर आएगा संसद में जा ठहरा है
ताप बहुत है मौसम में टिन की छत का कमरा है।
🍁 -गंगेश गुंजन।
🍁 -गंगेश गुंजन।
स्वर्ग लिखे तो क़लम हिन्दू ,लिख के जन्नत मुसलमान है। देख-सोचकर बेहद चिंतित,विचलित ये मन परेशान है।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
डर की तर्कीब में एक और ईजाद। अब कोरोना से डरायेंगे तुमको।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क ]
आवारा है कविता। इसीलिए आजतक उसे अपना घर नहीं हुआ।भटकती रहती है।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
अभी कहां जाते होंगे,एक साथ सैकड़ों भूखे -प्यासे कबूतर रोज़ ?आकर चैन से चुग लेते हैं,चबूतरे पर बिखेरे गए अनाज के अपने दाने और पी लेते हैं माटी के बर्तन में खास अपने लिए रखा हुआ ताजा जल ? होंगे क्या छाता लगाये,या दरख़्त के नीचे चौके की रखबाली में रसोइये की तरह खड़ा चौकन्ने इन्सान ?
दिल्ली तरफ एक्सप्रेस मार्ग नोएडा का वह तिमुहानी भी जहां से,बायें रास्ता अट्टाबाज़ार चला जाता है यहां से आगे खेल खेल में सहेली की तरह टोल रोड को बायें धकेलती हुई सीधे भाग जाती है,अक्षरधाम,उससे और आगे...
त्रिमुहानी के बायें फूटपाथ पर अभी क्या, होता है वह इंतज़ाम ? बिखेरे जा रहे हैं अनाज, दाने, माटी बर्तन में पानी? गुजरते हैं उधर होकर कबूतरों के कारवां ?
दिल्ली में, इनके लिए भी वैसे रैन बसेरे बनाए हैं क्या दिल्ली ने ? उत्तर प्रदेश ने यहां नोएडा में इनके लिए भी जनता निवास !
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
ज्ञान आता अवश्य है मनुष्य की इच्छा-उत्सुकता की गोद में लेकिन पलता है उसके साहस की पीठ रीढ़-पर।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
प्रेम ही कोरोना भी परास्त करेगा !
चिकित्सा ज्ञान,डॉक्टर-नर्स, दवा-सेवा तो प्राथमिक हैं और ये सब अपनी समस्त योग्यता-क्षमता से ये दिन-रात लगे हुए हैं,जगे हुए समर्पित हैं। उन्हें नमस्कार !
लेकिन इस उद्दण्ड विकराल कोरोना को भी,जड़ से उखाड़ फेंकेंगे हमारे समाज के सह अस्तित्व की रक्षाका जन सामान्य बोध, आपसी स्नेह-सहयोग की सहृदय पुरानी परम्परा और यह समझ ही।
आखिर इस विश्व शत्रु को भी आदमी से आदमी का प्रेम ही परास्त करेगा। देख लीजिएगा ।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
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बड़ा है वृक्ष !
कड़कती लू-धूप में झुलसता हुआ
खड़ा रहता है।
बटोही को शीतल छाँव देता रहता है।
बड़ा है वृक्ष !
यह विशाल वृक्ष,अपनी
छाया से उठ कर जाते हुए उसी राहगीर को
साथ ले जाने/ थोड़ी छाँह भी दे देता है
अपनी क्या ?
दे ही देती है ग़रीब से ग़रीब माँ,
सफ़र में निकलते समय बेटे की थैली में
रास्ते के लिए बटखर्चा-रोटी, जैसे।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
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हृदय में यूं नहीं आई है स्वर्णिम आभा। जला है दिल बहुत कांटे चुभे हैं पैरों में।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
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रंगमंच नाटक में पूर्वाभ्यास एक सीमा तक अनिवार्य है,जबकि परिवार का नाटक बिना रिहर्सल मज़े में सुचारु ढंग से मंचित होता रहता है।
गंगेश गुंजन।
[उचितवक्ता डेस्क]
आज भी कितने ही अनुभव और दु:खों को यथार्थ शायरी और कविता में लिखा ही जा रहा है जो अब हमारे वास्तविक जीवन से बाहर जा चुके हैं। या हैं भी तो प्रसंगहीन हैं। उन कविता/शायरी की प्रशंसा और सराहनाएं भी हो रही हैं।
साहित्य में इस सच को कैसे देखा जाना चाहिए ?
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
एक जिज्ञासु ने पूछा : सुख क्या होता है ?
-सुख आनन्द काडर का लोअर डिविजन क्लर्क होता है।और उसका सर्वोच्च प्रोमोशन आनन्द है।' विशेषज्ञ ने शान्त चित्त उत्तर दिया।
[उचितवक्ता डेस्क]
सांस पर सांस की सवारी है।
ज़िन्दगी से ये कैसी यारी है।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]देखें तो दु:ख भी दोस्त ही है मनुष्य का। ज़रा कपटी लेकिन अभिन्न मित्र है।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
सुख भी देर तक रह जाय तो थक जाता है और आदमी को भी थका देता है।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
परिंदा जिसने आजतक कभी कर्फ्यू नहीं माना। घरबंदी में वो भी घोंसलों से कम निकलता है ।
गंगेश गुंजन।
[उचितवक्ता डेस्क]
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कहिए कुछ आसान ग़ज़ल हर इक दिल की जान ग़ज़ल।
एकेक मन की परछाईं। बोले ऐसी प्रान ग़ज़ल ।
सब रोते अपना - अपनी हो सबकी मुस्कान ग़ज़ल ।
गांव नगर भर आंगन हो भटके मत सुनसान गजल ।
झिलमिल जनमन स्वच्छ सपन ऐसी गंगास्नान ग़ज़ल।
एक आदम क़द गूंजे गीत इक सामूहिक गान ग़ज़ल।
दु:ख में गर रो पड़े कभी धो दे सकल जहान ग़ज़ल।
शब्द जो रस्ता दिखलाएं उसकी हो पहचान ग़ज़ल।
आकांक्षा हो जन-जन की कविता का अभिमान ग़ज़ल।
🍁
गंगेश गुंजन
कविता बड़का आवारा होइअए तें आइ धरि ओकर कोनो एक टा अपन स्थायी घर नहिं भेलैक। बौआइत रहैए।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
आदमी के लिए रंगमंच जीवन की तरह ही आवश्यक है। परिवार रंगमंच की सबसे छोटी ईकाई है।
यह टिप्पणी कोई अवज्ञा,अनादर अथवा निर्वेद या वैराग्य बुद्धि से नहीं की जा रही है.नाटक की भी अवधि-आयु निर्धारित है.कोरोना-नाट्य का भी पटाक्षेप होगा. गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
हमारे दौर में सबसे बड़ा ईमान ग़ायब है ।बची मोटर में आदमी की तो पेट्रोल ही नहीं।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
स्नेह मे तेना गिरफ़्तार भ' गेल बेचारा । देह संग प्राणों कें राखि आयल बन्हकी ।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
वही है जिसने मुझे बना डाला पत्थर। रेत में बहता हूँ उसी की नदी होकर।
गंगेश गुंजन [उचितवक्ता डेस्क]
!! करोना-बुलेटिन !!
। बच्चा, तोता (कोरोना)और पुलिस।
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आज एक बहुत मासूम और मार्मिक घटना घटी। पड़ोस में चार-पांच साल का एक बालक जोर-जोर से रो रहा था।ऐसा रोना कि सुनकर किसी को भी करुणा और चिंता हो आय।अभी तो पहली चिंता यही होने लगती है, कि कहीं इस इक्कीस दिना घर बंदी में शायद घर में दाना-पानी खत्म हो गया हो और बालक भूख से व्याकुल होकर बेसहारा रो रहा होगा। तब पड़ोसी लोग मन ही मन उसकी मां को कोसते हैं। 'उस अभागी को पहले ही इसका बंदोबस्त करके नहीं रख लेना चाहिए था? घर में छोटा बच्चा है।'
बच्चा रोते ही जा रहा है और बालकनी से हटने का नाम नहीं ले रहा। मां प्यार-दुलार और तब फटकार-मार से समझा कर बालक को घर में अंदर करना चाह रही है।लगातार परेशान हो रही है।वह अड़ा हुआ है।नहीं मानता।तब इसी बीच पड़ोस की एक अधेर माता काग़ज़ प्लेट में ढंक कर दो रोटी ले आकर देती हुई स्त्री को समझाती हैं :
'अकेली हो।घर में छोटा बालक है। सोच कर पहले ही इंतजाम कर रखना चाहिए था न?सब पर अभी कैसा बख़त है। लो यह। अभी खिला दो।फिर देखते हैं! अभी तो पन्द्रह दिन बाकी ही हैं।इस विपदा में पड़ोसी को पड़ोसी न देखें और आपस में सहायता नहीं करें तो कोई अच्छी बात है।' बोलती हुई अपने हाथ की तश्तरी स्त्री की तरफ़ बढ़ाने लगी तो उस मां ने उन्हें
अजीब ही आंखों से उन्हें देखा। पूछा:
' क्या है आंटी ?'
'बच्चे के लिए रोटी है। भूख से रो रहा है। सुना तो मुझसे रहा नहीं गया। सो ले आयी हूं।'
आंटी महिला ने उससे कहा।
'किसने कहा कि भूख से रो रहा है? यह रोटी के लिए नहीं रो रहा है।'
बालक की मांने जैसे तनिक अपमानित महसूस कर थोड़ा तीखे होकर ही उनसे कहा।
'लेकिन बालक रोटी के लिए नहीं रो रहा है,तो फिर क्यों रो रहा है? और सो भी इतनी देर से कि कलेजा फट जाए..'. प्रौढ़ महिला और भी अचंभित हो गयीं।
-नहीं आंटी,भूख से नहीं,यह तोता के लिए रो रहा है !' लाचार खीझ भरे स्वर में वह बोली।
'तोते के लिए ?' यह कारण सुनकर वे और भी परेशान हो उठीं।
'हां तोते के लिए। क्या करें,दाना पानी बदलते समय पिंजरा तनिक खुला रह गया और तोता उड़ गया। अब यह उसी के लिए रो-रो कर जिद कर रहा है।अभी ऐसे में कहां से तोता लाऊं।'
'तो समझाओ न बेटी। सुबह ला दोगी तोता ?' आंटी ने सुझाया।
'आन्टी वही तो समझा कर थक गई हूं।मानने को तैयार ही नहीं है।'
'अब इस समय शाम में तोता कहां ढूंढ़ें,कैसे मिलेगा। सुबह ला देंगे !' समझाओ ।
'तब से यही कह रही हूं। मगर अब वह दूसरी फिक्र में जिद किये जा रहा है कि तोता उड़ कर घर से बाहर निकल गया है। उसे कोरोना हो जाएगा।'
सुनकर उन आन्टी को तो आई ही,उस ग़ुस्से में भी मां को दबी हुई हंसी छूट गई।
'लाख समझाया कि पक्षी को कोरोना नहीं लगता है मेरा बच्चा। सिर्फ आदमी को लगता है। तब कहीं मान गया लेकिन फिर बिफरने लग पड़ा:
'मगर घर से बाहर निकलने के लिए उसे पुलिस तो पकड़ सकती है। पकड़ के पुलिस मेरा तोते को कहीं जेल में डाल दे। तब ? उसे कौन छुड़ा कर लाएगा ?'
...और अभी तोते के लिए इसी पुलिस और जेल की चिंता में परेशान रोते जा रहा है कि अभी के अभी तोता तलाशने जाइये…।
रो-रो कर थक चुका बालक अब भी हिचुक- हिचुक कर रोये जा रहा है।
बालक की ऐसी चिन्ता पर ममता से आन्टी का दिल भर आया। उसका सिर छूने जाती हैं तो फिर रोने लगता है मेरा तोता, मेरा तोता ला दो...
शब्द की आयु
लिखें किसी का नाम लहू से या रोशनाई से।सोख लेताहै समय दोस्त-दुश्मन दोनोें शब्द।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
प्रणाम शहर !
मैं देखता हूं
बनाए हुए बियाबान को चीरती हुई
चलने लायक पगडंडी तैयार हो चली है।
लोग जो पैदल चलने को मजबूर,
बहुत दूर-दूर तक जाने वाले हैं,
उस पर चलने लगे हैं ।
पगडंडी को जीवन,गति और निश्चित मंजिल से जोड़ने लगे हैं।
समानांतर राजपथ पर चलते हुए नंगी देह,पैर और ललाट वाले
मुलायम,मरती हुई ममता और एंड़ी-पैरों वाले बच्चे,
औरतें और मर्द लोग सिर पर उगलती हुए सूरजी सामंत की धूप-चाबुकों की दुर्घटनाओं के शिकार,कम होने लगे हैं।
राजपथ के खिलाफ़ लोग पगडंडी तैयार कर इक्के-दुक्के काफिलों में चलने लगे हैं ।
राह के ख़तरों को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी
पगडंडी पर साथ-साथ बस्ती की तरफ जाने का मरम कुछ- कुछ समझने लगे हैं।
हथेली पर खैनी मलने की सुगबुगाहट पर,
अगले पड़ाव पर सुस्ताने के पहले तक की पूरी यात्रा में किसी
सख्त नुकीले मारुक इरादों की तरह तलहथी और मस्तिष्क में संभलकर औजार की तरह तुलने लगे हैं ।
घनघोर अंधेरे खूंखार जानवरों से भरे जंगल में घिरे किसी कबीले की तरह,
जिनकी चौकसी के उजाले पूरे जंगल और जानवरों के घातक इरादे देखार करते हैं
कबीले के बच्चे,औरतें और मर्द आमने-सामने अड़े रहते हैं ।
शहर सलाम, कि मैंने देखा है,
जिस शहर के औसत लोगों के लिए अनाज तो दूर
पानी तक मुहैया कराने की उसने कोई जिम्मेदारी नहीं ली कभी,
कितने जतन और अपनी प्यासों की कटौती कर-कर के लोगों ने,
कुछ ठूंठों को सींचा लगातार !
और जहां-तहां कुछ घने हरे फल वाले बिरवों को रोपना शुरू किया और
उन्हें पटाते रहे लगातार। पटाते रहे लगातार। अपनी प्यास काट-काट कर ।
क्योंकि उनके सामने लाल-लाल मुलायम तलवों, हथेलियों और
समूची धरती,आकाश को प्रतिबिंबित करते हुए
मासूम आंखों वाले बच्चे थे,वर्तमान से भविष्य तक का सीधा रिश्ता था ।
अब तो बच्चे भी सीख गए थे पेड़ सींचना।
पेड़ ! हरे भरे पेड़ कुछ और हरे,घने और बढ़न्तू शाखों में
रोज-रोज कुछ और भरने कुछ और भरने और हवाओं में झूमने लगे हैं
कड़ी धूप के खिलाफ और प्रतिरोध करने लगे हैं।
कहीं-कहीं फूल फल भी देने लगे हैं।
साफा बांधे दूर-दूर तक राजपथ के सघन पंक्तिबद्ध, झुके हुए
बूढ़े दरवानों के खिलाफ पगडंडी के अगल-बगल ये नए पेड़ कवायद की मुद्रा में,कभी नए समूह गान गाते, कदम कदम बढ़ते किशोरों की तरह तनने लगे हैं और
राजपथ के खिलाफ ख़ूब संभल संभल कर चलने लगे हैं
पगडंडी तनिक और निरापद कुछ और यात्रियों से चालू रहने लगी है और
वृक्ष छायादार शीतल आश्रय की तरह राहगीरों के लिए धूप से लड़ने लगे हैं।
धीरे-धीरे राजपथ के बूढ़े झुके पेड़ वाले कंधों पर फुदकते-उड़ते हुए,
पर कटे ग़ुलाम पक्षी बेचैनी से इधर-उधर उचकने लगे हैं।
पगडंडी के पेड़ों,डालियों की छाया की स्वतंत्रता और स्वाद समझने लगे हैं।
शहर सलाम ! कि
पेड़ अब ख़ूब समझदार होने लगे हैं।
लेकिन अजब है कि तब भी मेरे कुछ बुद्धिजीवी दोस्त
मेरी इस कविता को प्रदूषण के खिलाफ वन महोत्सव का
एक प्रचारात्मक उपक्रम कहकर बिदकने लगे हैं।
अपनी समझदारी में सुरक्षित भाव से सिमटने लगे हैं।
शहर सलाम कि मेरे छोटे भाई
राजपथ के खिलाफ पगडंडी की जरूरत समझने लगे हैं
और एक दूसरे से कहने लगे हैं।
शहर सलाम !
मेरे छोटे भाइयों में मिलेंगे तुम्हें मेरे ख़त,मेरा मौजूदा पता,मेरा काम। गाँव को जोड़ता हुआ,
किसी एक शरीर में अनगिनत नसों की तरह-
एक रहे आम।
शहर सलाम !
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गंगेश गुंजन
18 मई,1982 ई. भागलपुर।
संतान अपन मायक पावनि-तिहार होइत अछि आ ताहि पावनि-तिहारक ओरिआओन थिकीह-माय।
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
गले भी लगा रखा,उम्र भर लड़ती भी रह गयी। निभाई ज़िन्दगी ने अजब ही मुझसे वफ़ादारी। 🦚
गंगेश गुंजन [उचितवक्ता डेस्क]
🌺 कोरोना बुलेटिन 🌺
२७मार्च,२०२०.
आज विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष भेंट-दो पात्रीय संवाद-नाट्य:
दृश्य:एक मात्र।
[चारों ओर से बंद ड्राइंग रूम में बैठे आमने सामने दो लोग-बेचैन बुज़ुर्ग और बेफ़िक्र युवक।दादा-पोता ]
*
दादा : (बहुत व्याकुलता से खीझ और गुस्से से) :
पता नहीं यह अभागा कब जायेगा यहां से।
पोता : जिस्म का फोड़ा नहीं ना है दादू कि एक-दो
बारी मरहम लगा देने से चला जाये।आप क्यों
परेशान क्यों हो रहे हैं? चला जाएगा न।
दादा : अरे मगर कब जाएगा ? चला जाएगा।
(और भी ज़्यादा ग़ुस्साते और ख़ीझते) ।
पोता: इम्पोर्टेड बीमारी है दादू। जानते ही हो। वीसा
ख़त्म होते ही चला जाएगा।(इत्मीनान से
मुस्कुराते हुए )...और आपके ज़माने में वो
एक गाना बड़ा मशहूर हुआ था न ?
दादा: (अनमने, उदासीन भाव से) कौन-सा गाना ?
पोता : जाएगा -आ-आ जाएगा -आ-आ, जाएगा
जाने वाला,जाएगा-आ-आ
दादा : अरे वह आयेगा आयेगा था। जायेगा जायेगा
नहीं...(तनिक सहज होते हुए गाना सही
किया तो पोते ने मुस्कराते हुए कहा-)
पोता: हां दादू। मगर अब आपका आयेगा वाला
सिक्वेंस बदल गया। यह तो जाएगा-जाएगा
वाला है।
(और काल्पनिक गिटार छेड़ता हुआ बड़ी अदा से तरन्नुम में गाने लगता है-जाएगा जायेगा जायेगा जाने वाला जायेगा।
दादा: बहुत शैतान हो गया है तू...रुक।( वह थप्पड़ दिखा कर उसकी ओर लपकने लगते हैं और
गाते-गाते ही पोता ड्राइंगरूम का पर्दा समेटने लगता है। सामने बाल्कनी दीखने लगता है। सचमुच में गिटार की कोई मीठी धुन सुनाई पड़ती है।)
🌿🌳🌿
🦚उचितवक्ता डेस्क प्रस्तुति।🦚
जिस्म का फोड़ा नहीं है कि मरहम से चला जायेगा। इम्पोर्टेड बीमारी है जाने में थोड़ा वक्त तो लेगा।
गंगेश गुंजन [उचितवक्ता डेस्क]