Saturday, May 28, 2022

आह एक दुनिया है

                       🌍
       आह एक दुनिया आबादी है

    कितने ही लोग अकेले  
  अपने-अपने मन के भीतर दु:ख का समुद्र हैं 
    इतनी बड़ी आबादी के इस देश में 
    आहों से भरे हुए बेपनाह सिन्धु
  की उफनती हुई ऊँची उग्र लहरों
  के समान। 
     जिस दिन सवा करोड़ लोग भी
  एक साथ मुँह खोल कर ज़ोर से आह बोल पड़ें तो गूंज अनुगूंज से
  यह धरती पलट जा सकती है,
  आकाश फट सकता है,ऐसा
  जिस भूमि पर,
   जिस घड़ी,जिस दिन हो जाय 
  हो सकता है।                                                       गंगेश गुंजन 
             #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, May 23, 2022

पर्वत पर मैं देवदार हूँ

निरभिमान इतना कि मुझे दूब भर समझें। 
   स्वाभिमान में पर्वत पर मैं देवदार हूंँ
                           |                                                  गंगेश गुंजन
               #उचितवक्ताडेस्क। 

Friday, May 20, 2022

चाक से उतर कर धूप में थी।आवाँ में जा रही है

🌩️      चाक से उतर कर धूप में थी।
          आवाँ में जा रही है !             
                   *
   मैं जब
   अहिंसा और प्रेम की भाषा लिख
रहा था तो मेरे पीछे,आजू-बाजू
   नुकीली नफरतों के हथियार लिए
कितने ही लोग जमा हो रहे थे।वे
कितनी ही पोशाकों वेशभूषाओं में
थे।
   मैं अपने तलबों के नीचे धरती में
   दिन भर सूरज और आकाश में
भर रात चाँदनी की हसरत बो रहा
था
   विपरीत कुविचारों की मज़हबी
आँधियाँ बह रही थीं और अपनी
तनी हुई भवों पर रखे दुनिया भर
का निर्मम क्रोध
   किसी भी पल विस्फोट कर मृत्यु
ताण्डव तहलका मचा देने कुछ
लोग ।

   कितना विचित्र है
   किस कंजूसी से क़ुदरत ने
आदमी को बिल्कुल न जी सकने
लायक़ जीने का अधिकार दे रखा
है
   उतनी ही अधिक उदारता से
  मरने के अधिकार से वंचित उम्र
का ख़ाली पात्र।

   प्राकृतिक भर जो है,बस उतना
ही सम्पूर्ण हो सकता है मान कर मैं
लिखने लगा था-न्याय जिस वक़्त,
   ज़िम्मेदार ईमानदार अदालतें
सुना रही थीं अपने-अपने इन्साफ़
जो फ़ितरतन
   अच्छे-बुरे थे
  किसी-किसी के लिए थे,लेकिन
  हरगिज़ सब के लिए नहीं थे।
  तब मैंने लिखा-
   तराज़ू मनुष्य की,मनुष्य के ही
बटखरे,
   दिमाग़ मनुष्य का और न्याय का
नज़रिया
  बिना बेईमानी किये भी नहीं दे
सकती है
  यह व्यवस्था निष्पक्ष और
ईमानदार सबजन हितकारी न्याय

  खुली हुई क़लम अभी
   कैमरे की तरह मेज़ पर रख दी है
   आज पन्द्रह मई,२०२२ई. है।
                      🌍।   
                 गंगेश गुंजन,                                     #उचितवक्ताडेस्क।



 

Monday, May 16, 2022

छिटपुट कुछ दो पँतिया

                        🛖
     कबीर हो गया हो जो उसको,
     सूर-तुलसी भी क्या याद रहें ।‌                                   .         
 रोक कर झुकने से फ़ितरत ने बचा रक्खा
  इस दौर में तो बिछ कर क़ालीन हुए होते। 
                     .

  फूलों को पतझड़ से कुछ डर नहीं लगता
   उत्सव,बुके,नेताओं से रहते हैं तबाह।
                       .             
     रहा उपकार मुझ पर ये भी उसका
     मरे जिसके लिए ताउम्र पल-पल।
                      .             

रौशनी है आँख में पर दिख रहा है कुछ नहीं।

आह किस अंधे समय के हो रहे हैं हम गवाह।

                 गंगेश गुंजन

            #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, May 13, 2022

जन कोलाहल में कविता

    कविता अब जन कोलाहल में ऊँचा            बोलती है। पहले आँसू और एकान्त            पसन्द आते थे इसको। अब कवि के          साथ,कविता भी उन्हें ख़ारिज़ करती है।
  
                   गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, May 9, 2022

मैं भी इसी ज़मीन का हिस्सा था... ग़ज़लनुमा

                       🌓

    मैं भी इसी ज़मीन का हिस्सा था एक समय
    मेरा भी कभी इससे वास्ता था एक समय

    हम भी कभी भागे - दौड़े थे यहाँ-वहाँ
    इस धूल औ मिट्टी का हिस्सा था एक समय

    है आज न पत्थर ये सड़क गांँव भर यहांँ
    पगडंडियों में दफ़्न फरिश्ता था एक समय

    निकलें भले न दोस्त वो आँगनसे अपनेअब
    इन ड्योढ़ियों तक मेरा रस्ता था एक समय

    आंँगन हों बाड़ियाँ हों या खेतो  खलिहान
    अपना ही नहीं सब से रिश्ता था एक समय

    अब के न कुशल पूछने आईं कोई काकी
    यूँ घर खड़ा काका का मेरा था एक समय 

    अब के तो बची भाभियाँ भी छोड़ गयीं सब
    जो दोपहर के ताश का अड्डा था एक समय

    आये हैं टिकोले जुनूँ में लुभाते न क्यूँ
    आमों की डाल पे ही जो डेरा था एक समय

    जेबें न थीं रखे भी नहीं  छुपा के अमियांँ
किसके लिए किस जतन से लाता था एक समय

    अब कोयलें भी गाँव छोड़ जा बसीं कहीं
    कूकोंकी जिनसे छेड़ का जज़्बाथा एक समय

    अब ज़िक्र क्या किसी का कि कौन थे वे, हांँ 
    इक दूसरे का कोई फ़रिश्ता था एक समय।

    हैरान हूँ इस फ़िक्र में जब सब मिरे ही थे 
    किसने यूँ बेदख़ल किया है हमको इस समय।
                     ⚡
           #उचितवक्ताडेस्क।

Sunday, May 8, 2022

मंत्र है माँ

            अंततः माँ
                मन्त्र है, 
                कीर्त्तन नहीं।                                 
                गंगेश गुंजन
            #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, May 4, 2022

मैं किस दुःखमें में पड़ा हुआ हूंँ : ग़ज़ल नुमा

                  ✨
   मैं किस दुःख में पड़ा हुआ हूंँ
   जिस दलदल में खड़ा हुआ हूंँ               
                 .
   औरों को तो छला नहीं है
   अपनों से क्यों छला हुआ हूँ
                 .
   यारी पर इतना गुमान जब
   किस शुब्हा में पड़ा हुआ हूंँ
                 .
   बेनामी दस्तावेज़ों पर
   मोहर बन कर जड़ा हुआ हूँ
                .
   किस पहाड़ को क़ब्र बनाने
   मैं सदियों से अड़ा हुआ हूँ
                .
   अह्ले सियासत चालू नाटक
   किरदारों का ठगा हुआ हूंँ
               .
   मैं भी ख़ौफ़ज़दा मंज़र में
   तो ना थोड़ा डरा हुआ हूंँ
               .
   बड़ी देर तक सदमे में था
   अभी होश में ज़रा हुआ हूँ
               .
   इश्क़ किया तो यूँ मर बैठे
   आज तलक जो मरा हुआ हूँ।
               .
   वो हमसे नाराज़ बहुत हैं
   इतना क्यों दिलजला हुआ हूँ
               .
   यूँ ही जिस्म नहीं ये साथी
   बदवक़्तों से लड़ा हुआ हूँ
                   *
             गंगेश गुंजन
         #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, May 2, 2022

कविता के बारे में

           कवि के बारे में

                   ⚡
    जुमलेबाज़ी के व्यामोह में कुछ
    अच्छे कवि की भी कविता
    सफ़ेद मक्खन का लोथरा होकर
    रह जाती है। बेशक़ दपदप
    आकर्षक मगर इतनी नरम और
    पुलपुल कि पढ़ते हुए आँखों में
    ही चिपक कर रह जाय। हृदय
   तक नहीं उतर पाती।              
   कविता आदमी के लिए तो होनी
  चाहिए मगर हर हाल उसे आदमी
   नहीं हो जाना चाहिए।

              #उचितवक्ताडेस्क।                                     गंगेश गुंजन