Wednesday, March 21, 2018

दु:खालय है कवि का घर

समाधान बाबू कहते हैं- दु:खालय है कवि-मन !
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मेरे समाधान बाबू कहते हैं कि कवि जो है वह
दु:खालय होता है। यानी तमाम दुःख को जिसे दुनिया भर आश्रय नहीं मिलता है उसे कवि के घर जरूर मिल जाता है।अब यह समाधान बाबू की अपनी स्थापना है। यही बोले।
-’कैसे?’ मैंने टोका तो क़िस्सा कहने लगे ।

-’देखिए एक बार एक दिन दु:ख बेचारा पूरी धरती घूम गया। उसे कहीं ठौर नहीं मिला। जिस घर जाय वही दुत्कार दे। सब ने लौटा दिया। यूं भी दु:ख का स्वागत भला कौन ‌करेगा? हार कर अंतिम कोशिश करते हुए रात के बारह-एक बजे के करीब भटकता हुआ वह एक झोपड़ी नुमा घर के पास पहुंचा। दरवाजा खटखटाया। थोड़ी ही देर में एक फटेहाल आदमी दरवाजा खोलकर सामने खड़ा हुआ।पूछा-

-’आप‌ कौन हैं?और इतनी रात को यहां? इस कुटिया में ?’

दु:ख तो झूठ बोलता नहीं है सो उसने साफ-साफ कह दिया।

-मैं सारी दुनिया भटक आया हूं।मुझे किसी ने आसरा नहीं दिया। कृपया आप ना लौटाएं।’

बहुत ठंडी रात है ।भूखा भी बहुत हूं।कोई और आश्रय भी नहीं है।तो मैं आज यहां रात बिताना चाहता हूं।’

अब ख़ुद फटेहाल कवि जी,परेशान हुए।लेकिन उसकी दशा देखकर द्रवित हो गए।और अभ्यागत-दु:ख को आदर से भीतर ले आए।पानी को पूछा। घर में जितना ही कुछ था उससे स्वागत सत्कार किया। उधर पहली बार दु:ख,अपने लिए इस आव भगत से तृप्त हुआ। फिर गृहस्वामी ने उसे संकेत करके चारपाई दिखाई और सो जाने‌ के लिए कहा।और स्वयं अपने फर्श पर कुहनी के‌ बल लेट गए। नींद आने से पहले देर तक सोचते रहे कि दुनिया में ‌वह कम से कम इतने काम के तो हैं कि जीवन का इतना विशेष अनुभव दुःख जिसे दुनिया भर में किसी ने आश्रय नहीं दिया। पास तक फटकने न दिया,उसे मैं मेरे छोटे से घर में आश्रय दे सका। जबकि समाज में ज्य़ादा लोग तो मुझे निकम्मा-नाकारा ही समझ रहे हैं। कवि अपने ऐसा नि:स्वार्थ उपयोगी होने पर संतोष से प्रसन्न था।
   आगे समाधान बाबू कहते हैं:
-’आप जानते हैं उसके बाद दु:ख का मन उस कवि के यहां इतना लग गया कि यहां से जाने का नाम ही न ले ।और आख़िर नहीं गया। आज तक।
      दुःख कवि के यहां डेरा जमाए हुए है।कवि खीझता है,दुखी होता है, परेशान होता है उससे छुटकारा चाहता है। लेकिन दुःख की कातरता को देखकर द्रवित हो जाता है ।

कहता है: ‘यह देखो मौसम कितना भयावना है। बीत जाने दो। चला जाऊंगा भाई !’

दुःख फिर वादा करता है।फिर भूल जाता है।

और कभी है कितना निर्मित हो ही नहीं सकता उसे बाहर का रास्ता दिखा नहीं सकता है सो फिर बर्दाश्त कर लेता है। इसीलिए मैंने कहा-कवि है वह दु:खों की धर्मशाला, कष्टों का घर है।

     अब यह कहकर समाधान बाबू मुझ पर ऐसे तरस खाते रहे किसके लिए उनके प्रति मित्र होने के बावजूद कृतज्ञ हुआ जा सकता है यही हुआ जा सकता है।

    अब बिल्कुल सहन नहीं हुआ मैंने छूटते ही टोका- -’क्या समाधान बाबू आप देख रहे हैं इतने बड़े-बड़े कवि आलीशान मकानों में इतना संपन्न जीवन जी रहे हैं ! उनके यहां कोई     दु:ख नहीं है। कहां से दुखी हैं वे।भले कविता लिखते हैं,पढ़ते हैं किताबें छपवाते हैं, यहां से वहां देश-विदेश कवि-सम्मेलन की हवाई यात्रा करते हैं ।और आप कह रहे हैं कि दुःख का घर कवि है।अरे अब तो कितने ही प्रतिभाशाली लोग कविता में करिअर बना रहे हैं। आप हद ही कर रहे हैं। यह अनुभव क्या हुआ?’

     इस पर समाधान प्रसाद जी का औचक अट्टहास गूंज उठा। समाधान बाबू का ऐसा औचक अटृहास बहुत दिनों के बाद सुना सो मैं सकते में आ गया। लेकिन और ज्यादा सकते में आता इससे पहले ही उन्होंने बोलना शुरु कर दिया-

-’मित्रवर मैंने आज के कार्पोरेट कवियों के बारे में नहीं कहा है। उनके बारे में-देश के प्रथम स्वतंत्रता दिवस तक जो रहे-चले! उन कवि पर कहा। अभी का यह कार्पोरेटी वाला नहीं।मैं क्या नहीं जानता हूं कि अभी तो कवि कारपोरेट,कविता कॉरपोरेट,अधिकांश तो ऐसे ही। ध्यान दीजिए जिनका -कॉर्पोरेटीकरण हो चुका है उन कवि के बारे में नहीं कह रहा हूं। इतना भी आप नहीं समझते। धन्य हैं। आप तो स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के बाद  भी ! इतने धन्य हैं,आप !
अब समाधान प्रसाद जी की इस टिप्पणी के बाद मैं ख़ामोश नहीं रह सका। लगभग चीख़ पड़ा-
-’मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था पर इतना समझ में आया कि समाधान प्रसाद का कहना कुछ इतना अमूर्त भी नहीं,अपरिचित यथार्थ या अविश्वसनीय भी नहीं है,सो मैंने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

     उन्होंने भी ‘कल्याण हो बालक’ का हस्तक प्रदर्शित किया।
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-गंगेश गुंजन।१२.११.’१७.

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Saturday, March 17, 2018

ग़ज़ल : चलो चलें कोई अच्छा सा ठिकाना ‌ढूंढ़ें

चले  चलो कोई अच्छा-सा ठिकाना ढूँढ़ें
इक  ऎसी ज़िन्दगी का जीना आना  ढूँढ़ें

वो  हुए कबके  रफ्तारे ज़माना शामिल
एक तरकीब  कोई हम भी सयाना ढूँढ़ें

भूल ही बैठे गँवा आए सफ़र में घर भी
कहीं तो होगा इक नया आशियाना ढूँढ़ें

वो समझ बूझके ही निकला था अपनी राह
भला  बताओ  उसे  क्यूँ   कहाँ-कहाँ  ढूँढ़ें

बहुत उदास है  बस्ती मेरे पड़ोस  में भी
कोई तजबीज  करें उसको  हँसाना ढूँढें

रूठ के आ भी गए गर जुनूँ कि गु़स्से में
एक बार फिर से उस गली मे जाना ढूँढ़ें

अबभी टूटा नहीं सब फिर से बन जाएगा
नई   ईजाद    कोई     नया बनाना    ढूँढ़ें

थका है जिस्म यह ऐसा जीवन चल-चल
ज़ुबाँ थकी  नहीँ  अब भी  नया गाना ढूँढ़ें

उसकी नाराज़गी इतनी  मुझसे वाजिव हैै
चलो मनायें  इक  प्यारा-सा  बहाना  ढूँढ़ें

सब जहाँ पा लेने की  हसरत में झुलस रहे
इक ज़रा और  की निस्बत  में गँवाना ढूँढ़ें
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( गंगेश गुंजन )  28 दिस.2012 ई.
एल आइ जी फ्लैट-१००/३७, लोहिया नगर, पटना-२०

Tuesday, March 13, 2018

कुछ अश् आर


बलंद अज़्मत रखते हो रखो क्या होगा
ये  चटानें  तो  टूटती हैं  हथौड़े  से।                        
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खेत की फ़सलें कागज की फ़ाइलें नहीं
इन्हें  क़लम नहीं  हंसिया  कोई काटेगी।                     
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बहुत सीटी लगा कर चुप हो गया कूकर
रसोई की ज़रा चुप्पी से विस्फोट हो गया।
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-गंगेश गुंजन

Monday, March 12, 2018

मन‌ का : यह-वह !

-१-
बड़े लोगों में इज़्जत और खुशामद में भेद करने का विवेक बहुत ही दुर्लभ है।कदाचित इसीलिए,समाज में मनुष्य बड़ा तो हो जाता है,उसमें मानवीय श्रेष्ठता तो आ जाती है परंतु अपने प्रति,अपने कार्यों के प्रति समाज से मिलने वाले सम्मान और खुशामद में अंतर समझने का विवेक नहीं रहने के कारण वह श्रेण्य अथवा ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं बन पाता।जबकि उसके सामाजिक लक्ष्य और कार्य में ऐसा होने के सभी गुण और तत्व पूरी तरह विद्यमान रहते हैं। साधारण भाषा में हम जिसे ‘कान के पक्के’ और ‘कान के कच्चे’ कहा कहते हैं। इंसान की भाषा और भंगिमा में उसकी तात्कालिक आंतरिक नियत का आईना होती है जिसमें संबोधित हो रहा व्यक्ति अपनी आकृति को ठीक से देख और पहचान सकता है। जो उससे अक्सर छूट जाता है और आत्म मुग्ध होकर वह खुशामद को भी अपने प्रति आदर समझे बैठा रहता है। आज भी समाज में खुशामद तो आम है क्योंकि अधिकतर लोग ख़ुशामदी हैं। निस्पृह और निस्वार्थ सराहना या आदर प्रकट करने वाले
बहुत कम।
 अपने इर्द-गिर्द परिवेश में आपके बड़प्पन के लिए, व्यक्तित्व की विशेषता के इर्द-गिर्द, जैसी नीयत से जो भाषा-व्यवहार सक्रिय है उसकी वास्तविक पहचान और पकड़ रखिए,नहीं तो आपकी विशिष्टता भी खतरे में ही रहेगी और आपकी वास्तविक सफलता संदेह के घेरे में। ध्यान रहे।
*
-२-
आप जब कुछ याद करते हैं तो कुछ भूलते हैं ।भूलना और याद करना एक साथ संभव नहीं है। घृणा आती है तो प्रेम चला जाता है।अर्थात बिना प्रेम को विदा किए हुये घृणा आ ही नहीं सकती। प्रेम भी इसी तरह।
     आप प्रेम याद करते हैं तो उसी तरह घृणा हो छूटती है। ऐसा नही कि इन दोनोंं में किसी एक के होने पर दूसरा खत्म हो जाता है । नहीं वह साथ तब रहती है लेकिन निष्क्रिय रहती हैं ।सक्रियता जीवन का मुख्य धर्म है। निष्क्रियता की समाप्ति पर ही सक्रियता आरंभ होती है। सभी निष्क्रियता निष्क्रिय नहीं होती जैसे सोते समय आप सांसारिक दृष्टि से निष्क्रिय रहते हैं यह तो शरीर को आवश्यक विश्राम है जो अपनी दैहिक प्रक्रिया में आपकी ऊर्जा का संचयन कर रहा होता है । उसी तरह जब आप सक्रिय होते हैं तब भी कुछ मर्तवा आप सक्रिय नहीं होते यदि आप फालतू में पानी पर डंडे चला रहे होते हैं। निरर्थक और अनुत्पादक क्रियाशीलता।
    हालांकि सोना भी जागने से कम आवश्यक  नहीं है।
    जैसा कहते हैं, जब आप रात में रहेंगे तो आपका दिन छूट चुका होगा। जैसे प्रेम में होंगे तो घृणा अनुपस्थित हो जाएगी।
    कहना यह हुआ कि आपकी प्राथमिकता क्या है।
प्रेम घृणा ?

-गंगेश गुंजन। १३.०३.’१८

Sunday, March 11, 2018

गाँव अब भी समझता है शहर को खुशहाल है।

ग़ज़ल सन
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गाँव अब भी समझता है शहर को खुशहाल है।
अब भी जब कि शहर आकर गाँव खुद बेहाल है।  

वह समझता है कि दलहन खेत से गायब कहाँ
पता चलता है   यहाँ   दो   सौ  रुपैये दाल  है               

गाँव हो या शहर हो या हो भले कुछ भी कहीं
धर्म  भाषा  जाति वर्गों का सुलगता सवाल है।

बहुत उन्नत बहुत सक्षम विश्व के हम हैं गुरु
कितना फूहड़ कैसा लिजलिज देश का अब हाल है।

सबके हाथों में कोई  जम्हूरीअत का तमंचा
शांति गायन कर रहे हैं बुद्धिजीवी,कमाल है।  

हाथ में सत्ता सरोकारों के कुछ अब है नहीं
जो है इक ना इक सियासी सोच का जंजाल है।

सल्तनत  बेचारगी  में   सैर  करती   टहलती
टी वी चैनल ख़बर में यह मुल्क मालामाल है।   

अपने दिल का दु:ख जो बोला गया गुंजन जरा
मेरा साथी कहे ‘अब ये अपना-अपना ख़याल है।’

-गंगेश गुंजन

Thursday, March 8, 2018

। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
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अंतर्राष्ट्रीय महिला-दिवस परआज मैं अपनी एक कथा नायिका- ‘गंगापुर वाली’ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। इसका कारण है।
    गंगापुर वाली मेरी कहानी ‘बन्हेज’ की नायिका है।और आज मुझे गंगापुर वाली की बेसाख्ता याद आई।अशिक्षित,असहाय हो कर भी वह एक साथ अपने निकम्मा-निठल्ले पुरुष (पति) और स्त्री विरुद्ध सामाजिक निर्णय -‘बन्हेज’ के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई थी।उसने विद्रोह किया। यह कहानी मैंने 1962-’63 में लिखी जो कालांतर में मेरे पहले कथा संग्रह में संकलित हुई,पटना यूनिवर्सिटी इण्टर मीडिएट के कोर्स में  एक पाठ्य पुस्तक हुई और भाषाओंमें अनूदित हुई।
   सन 62-63 ईस्वी में मिथिला के एक पारंपरिक समृद् संस्कृति किंतु पिछड़े हुए गांव में,अशिक्षित,अशक्त बर्तन बासन और चौका धोकर गुजारा करने वाली स्त्री अपने निकम्मे और पहलवान प्राय पुरुष से विद्रोह करती है। पत्नी की राह रोके उसके सामने साक्षात खड़ा है तब भी निडर होकर गंगापुर वाली उसे चुनौती देती हुई इस भाषा और इस तेवर में सीधे संवाद करती है :
-’तुम मेरे पुरुष (पति) कैसे हुए? तुम न तो मुझे पेट भर खाना खिला सकते हो और ना ही बीमार बेटी का इलाज करा सकते हो। जो मरद अपनी स्त्री को भोजन-बस्तर भी न दे सके,सो उसका आदमी कहां से हुआ ? इसलिए पंचायत में तुम्हारी कायम किये बन्हेज को मैं नहीं मानती। इसे तोड़ती हूँ और बीमार बेटी के लिए भात-रोटी कमाने हवेली* जाती हूं।अपने मर्द को वहीं हतप्रभ खड़ा छोड़ कर गंगापुर वाली आगे बढ़ जाती है।
   इसी के संग आज मेरा साथी महेश पांडेय भी,बेतरह याद आया है।अवश्य ही इन दोनों अनुभवों का अंतर्संबंध संबंध है।
    महेश असाध्य रोग से पीड़ित होकर अपेक्षाकृत कम ही उम्र में संसार से चला गया। बी.एन.कॉलेज, (पटना) में हम आइ.ए. से ही साथ पढ़े। विषय पृथक थे। ऑनर्स तक साथ रहे। मैं हिंदी ऑनर्स में और वह अर्थशास्त्र। छपरा ज़िले के एक दूर दराज़ गॉंव के किसी हाई स्कुल से पास होकर पटना आया था,जैसे मैं मधुबनी ज़िले के अपने गॉंव से। वह स्कूल स्तर से ही कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता होकर आया था। आरंभ में तो मिथिलांचल से आये एक महा कर्मकाण्डी मैथिल परिवार के युवक मुझको महेश,अपने बात-व्यवहार में बड़ा विचित्र लगता था। लेकिन बाद में अपने साहसी,तेज़ बुद्धि और विनोदी स्वभाव के कारण प्रिय हो गया। फिर मित्र। जन-बनिहार वर्ग के प्रति वह बहुत संवेदनशील था। यहां पटना में उसके होते  रिक्शा चालकों के साथ यदि कोई सवारी झंझट करता तो वह बीच में पड़ के सुल्टाने को बेचैन हो जाता। महेश सतत कुछ न कुछ प्रयोग की तरह चौंकाने वाली बातें किया करता था। हिंदी भाषा की बनावट और इसके व्याकरण पर बहुत नाराज़ रहता था। बहुत झंझटिया कहता था। ख़ास कर स्त्री लिंग- पुल्लिंग प्रयोग में वह इतना लापरवाह था कि बेधड़क रोटी को पुल्लिंग और भात को स्त्रीलिंग बोल देता। इस पर  मैं जो उसे टोकता तो उल्टा मुझी पर  नाराज़ होकर चिल्लाने लगता-
- ‘तूम लोग न हींदी को आगे नहीं बढ़ने दोगे। जल्दी ही इसका सत्यानास कर दोगे। जो जैसा बोलता है बोलने दो। डेग-डेग पर सुध्द असुद्ध पकड़ते रहते हो फ़ालतू का।’ ज़ाहिर है उसके ‘तूम’, हींदी, सुद्ध-असुद्ध उच्चारण पर साथियों समेत मुझे हँसी आ ही जाती और तब वह फिर पढ़ाने लगता ! अपनी इस हिन्दी में वह छुप छुपा कर कविता भी लिखता था। कहता नहीं था।          
   महेश अक्सर मुझ पर यह आरोप लगाता था कि तुम लोग कहानी-कविता लिखते हो लेकिन अपनी कहानी का पूरा पारिश्रमिक खुद अकेले निगल जाते हो,जबकि चाहिए यह कि जिसको पात्र बनाकर तुमने लिखा,चाहे वह प्रेम में विफल कोई लड़की हो,अपने दांपत्य में पुरुष से प्रताड़ित स्त्री हो या चाहे कोई रिक्शावाला अथवा भिखारी हो या कोई कोई भी शोषित-पीड़ित पात्र,यदि उन्हें कथानक बनाते हो और उससे पैसे कमाते हो तो उसमें से कुछ पैसे उस जीवित ‘पात्र’ को भी मिलना चाहिए। यह उसका हक है। लेखक की यह नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है। तुम्हारी कॉपीराइट में भी उनको मिलना चाहिए। क्योंकि उन्होंने अपने होने,अपने वैसा होने से तुम्हारी कहानी बनने में मदद की है। इसलिए अपने पारिश्रमिक से तुम्हें कुछ प्रतिशत उनके हित में भी अवश्य देना चाहिए।अब उस वक्त तो यह एक ऐसा सुझाव था जो सहज ही मान लेने योग्य होने पर भी व्यावहारिक रूप से संभव भी क्या होता ! तो यह आज के दिन ये दो यादें हैं बन्हेज कहानी की नायिका- गंगापुर वाली और मित्र महेश पांडेय।
     जीते-जी जो आप आप दोनों को नहीं कह सका आज इस ऐतिहासिक ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ में आत्मिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।        
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हवेली*- निम्न मध्य वर्ग गृहस्थ का आँगन।

-गंगेश गुंजन, ८ मार्च,२०१८ ई.

Monday, March 5, 2018

भाषा की पीड़ा

          भाषा की पीड़ा
                    *
सिर झुकाये भाषा,हाथ जोड़ कर खड़ी थी और एक साथ मुझे अपनी लाचारी और चेतावनी दे रही थी- मानुष कवि !
इतने असत्य,अन्याय और अंधियारा मैं नहीं बोल सकती अब।तुम्हारे दु:ख,शोषण और परिवर्तन कहते- कहते मैं बेअसर हो चुकी हूं।भोथड़ी हो गई हूं।और तो और इस तमाम भ्रम के पसरे साम्राज्य में ऐसा लोकतंत्र भी मैं नहीं लिख सकती। इस तरह तो अभी तो भोथड़ी हो रही हूं,कल को तो गूंगी हो जाऊंगी।
-प्रेम से लेकर युद्ध और ध्वंस से निर्माण तक,असहयोग से सशस्त्र प्रतिरोध तक...लाठी-तलवार से बंदूक कब से ये सबकुछ कहती आ रही हूं, सोचो तो। याद करो।
देखने के तुम्हें इतने महाभारत और अनगिन इतिहास दे दिए हैं दुनिया भर। सत्ता,शासन राजतंत्र-लोकतंत्र।
यह लोकतंत्र तुम्हारा ! और अब तुम चाहते हो कि तुम्हारे लिए इन्हें पढ़ूं भी मैं ही ? लोकतंत्र करूं भी मैं ही!
    लात-जूते खाते रहोगे,वक्त़-वक़्त पर‌ जेलों में तफ़रीह करने जाते-आते रहोगे। पदवी-तमग़े प्राप्त करते रहोगे,धरने पर बैठे फोटो लिवाते रहोगे,मीडिया में निज-निज वक्तव्य खांसते-छींकते रहोगे। वहां से उठकर वोट देने जाते रहोगे ! भले-लोकतंत्र और परिवर्तन शब्द भी मैंने ही कहे हैं !
    तुम सिर्फ़ इन्हें बोलोगे और बोल कर सोओगे ?
                    *
        गंगेश गुंजन। ३१.१०.’१७.

साहित्य और राजनीति जनसाधारण

यह समझना मेरे ख्याल से मोहक भ्रम है कि जो राजनीति राजनीति में चल रही है वही साहित्य और समाज के अन्य विभागों और विधियों में भी नहीं है। कविता से लेकर रंगकर्म तक मैं यह बात बहुत गहरे रूप में,बहुत महीनी से ग्रुप वादी शैली में चल रही है और इसे सभी विधाओं में से किसी के भी पुरोधा समझते हैं । नियंत्रित नहीं कर रहे हैं। जिस तरह राजनीतिक दलों के बीच जो कुछ और जैसा है वह खेल-खिलौने के तरीके से चलता रहे,लक्ष्यार्थ साधारण जनता कहने के लिए जो भी हो,साहित्य और साहित्य के विचारकों की दृष्टि में लेकिन है वह उनके लिए भी वही कठपुतली है जो राजनीतिक दलों की दृष्टि, कार्यविधि और प्राथमिकता में है। बात थोड़ी रुक्ष बल्कि कठोर है क्योंकि यथार्थ है। मगर मुझे लगता है यही राजनीतिक सरली करण की चालाकियां और अपारदर्शी कार्यशैली आज भी इतने बड़े समाज को हांक रहीं है।
      तो क्या अधिकांश साहित्य-बौद्धिक वर्गों की‌ पक्षधरता भी अधिकांश में सतही और तुच्छ राजनैतिक क़दमोंऔर कार्यक्रमों का ही अनुसरण करते हुए कृतार्थ होती रहेगी?
*
-गंगेश गुंजन।२४ फ़रवरी,२०१८.

Saturday, March 3, 2018

चेतावनी

*
बहुत  आवेश  में  है  मेरा  साथी
बड़े  आक्रोश में है गांव सारा
कहीं जो सुलग उठ्ठा प्रेम मेरा
ख़ाक़ हो जाएगा गुलशन तुम्हारा।
*
गंगेश गुंजन
(गांव में )

Friday, March 2, 2018

होश-बेहोश

*
होश में होते हैं तो देखते ‌रहते हैं सब
मेरे रक़ीब की ख़्वाहिश है बेहोश रहूं।
*
-गंगेश गुंजन।