भाषा की पीड़ा
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सिर झुकाये भाषा,हाथ जोड़ कर खड़ी थी और एक साथ मुझे अपनी लाचारी और चेतावनी दे रही थी- मानुष कवि !
इतने असत्य,अन्याय और अंधियारा मैं नहीं बोल सकती अब।तुम्हारे दु:ख,शोषण और परिवर्तन कहते- कहते मैं बेअसर हो चुकी हूं।भोथड़ी हो गई हूं।और तो और इस तमाम भ्रम के पसरे साम्राज्य में ऐसा लोकतंत्र भी मैं नहीं लिख सकती। इस तरह तो अभी तो भोथड़ी हो रही हूं,कल को तो गूंगी हो जाऊंगी।
-प्रेम से लेकर युद्ध और ध्वंस से निर्माण तक,असहयोग से सशस्त्र प्रतिरोध तक...लाठी-तलवार से बंदूक कब से ये सबकुछ कहती आ रही हूं, सोचो तो। याद करो।
देखने के तुम्हें इतने महाभारत और अनगिन इतिहास दे दिए हैं दुनिया भर। सत्ता,शासन राजतंत्र-लोकतंत्र।
यह लोकतंत्र तुम्हारा ! और अब तुम चाहते हो कि तुम्हारे लिए इन्हें पढ़ूं भी मैं ही ? लोकतंत्र करूं भी मैं ही!
लात-जूते खाते रहोगे,वक्त़-वक़्त पर जेलों में तफ़रीह करने जाते-आते रहोगे। पदवी-तमग़े प्राप्त करते रहोगे,धरने पर बैठे फोटो लिवाते रहोगे,मीडिया में निज-निज वक्तव्य खांसते-छींकते रहोगे। वहां से उठकर वोट देने जाते रहोगे ! भले-लोकतंत्र और परिवर्तन शब्द भी मैंने ही कहे हैं !
तुम सिर्फ़ इन्हें बोलोगे और बोल कर सोओगे ?
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गंगेश गुंजन। ३१.१०.’१७.
Monday, March 5, 2018
भाषा की पीड़ा
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