Monday, March 5, 2018

साहित्य और राजनीति जनसाधारण

यह समझना मेरे ख्याल से मोहक भ्रम है कि जो राजनीति राजनीति में चल रही है वही साहित्य और समाज के अन्य विभागों और विधियों में भी नहीं है। कविता से लेकर रंगकर्म तक मैं यह बात बहुत गहरे रूप में,बहुत महीनी से ग्रुप वादी शैली में चल रही है और इसे सभी विधाओं में से किसी के भी पुरोधा समझते हैं । नियंत्रित नहीं कर रहे हैं। जिस तरह राजनीतिक दलों के बीच जो कुछ और जैसा है वह खेल-खिलौने के तरीके से चलता रहे,लक्ष्यार्थ साधारण जनता कहने के लिए जो भी हो,साहित्य और साहित्य के विचारकों की दृष्टि में लेकिन है वह उनके लिए भी वही कठपुतली है जो राजनीतिक दलों की दृष्टि, कार्यविधि और प्राथमिकता में है। बात थोड़ी रुक्ष बल्कि कठोर है क्योंकि यथार्थ है। मगर मुझे लगता है यही राजनीतिक सरली करण की चालाकियां और अपारदर्शी कार्यशैली आज भी इतने बड़े समाज को हांक रहीं है।
      तो क्या अधिकांश साहित्य-बौद्धिक वर्गों की‌ पक्षधरता भी अधिकांश में सतही और तुच्छ राजनैतिक क़दमोंऔर कार्यक्रमों का ही अनुसरण करते हुए कृतार्थ होती रहेगी?
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-गंगेश गुंजन।२४ फ़रवरी,२०१८.

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