Thursday, March 8, 2018

। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
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अंतर्राष्ट्रीय महिला-दिवस परआज मैं अपनी एक कथा नायिका- ‘गंगापुर वाली’ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। इसका कारण है।
    गंगापुर वाली मेरी कहानी ‘बन्हेज’ की नायिका है।और आज मुझे गंगापुर वाली की बेसाख्ता याद आई।अशिक्षित,असहाय हो कर भी वह एक साथ अपने निकम्मा-निठल्ले पुरुष (पति) और स्त्री विरुद्ध सामाजिक निर्णय -‘बन्हेज’ के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई थी।उसने विद्रोह किया। यह कहानी मैंने 1962-’63 में लिखी जो कालांतर में मेरे पहले कथा संग्रह में संकलित हुई,पटना यूनिवर्सिटी इण्टर मीडिएट के कोर्स में  एक पाठ्य पुस्तक हुई और भाषाओंमें अनूदित हुई।
   सन 62-63 ईस्वी में मिथिला के एक पारंपरिक समृद् संस्कृति किंतु पिछड़े हुए गांव में,अशिक्षित,अशक्त बर्तन बासन और चौका धोकर गुजारा करने वाली स्त्री अपने निकम्मे और पहलवान प्राय पुरुष से विद्रोह करती है। पत्नी की राह रोके उसके सामने साक्षात खड़ा है तब भी निडर होकर गंगापुर वाली उसे चुनौती देती हुई इस भाषा और इस तेवर में सीधे संवाद करती है :
-’तुम मेरे पुरुष (पति) कैसे हुए? तुम न तो मुझे पेट भर खाना खिला सकते हो और ना ही बीमार बेटी का इलाज करा सकते हो। जो मरद अपनी स्त्री को भोजन-बस्तर भी न दे सके,सो उसका आदमी कहां से हुआ ? इसलिए पंचायत में तुम्हारी कायम किये बन्हेज को मैं नहीं मानती। इसे तोड़ती हूँ और बीमार बेटी के लिए भात-रोटी कमाने हवेली* जाती हूं।अपने मर्द को वहीं हतप्रभ खड़ा छोड़ कर गंगापुर वाली आगे बढ़ जाती है।
   इसी के संग आज मेरा साथी महेश पांडेय भी,बेतरह याद आया है।अवश्य ही इन दोनों अनुभवों का अंतर्संबंध संबंध है।
    महेश असाध्य रोग से पीड़ित होकर अपेक्षाकृत कम ही उम्र में संसार से चला गया। बी.एन.कॉलेज, (पटना) में हम आइ.ए. से ही साथ पढ़े। विषय पृथक थे। ऑनर्स तक साथ रहे। मैं हिंदी ऑनर्स में और वह अर्थशास्त्र। छपरा ज़िले के एक दूर दराज़ गॉंव के किसी हाई स्कुल से पास होकर पटना आया था,जैसे मैं मधुबनी ज़िले के अपने गॉंव से। वह स्कूल स्तर से ही कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता होकर आया था। आरंभ में तो मिथिलांचल से आये एक महा कर्मकाण्डी मैथिल परिवार के युवक मुझको महेश,अपने बात-व्यवहार में बड़ा विचित्र लगता था। लेकिन बाद में अपने साहसी,तेज़ बुद्धि और विनोदी स्वभाव के कारण प्रिय हो गया। फिर मित्र। जन-बनिहार वर्ग के प्रति वह बहुत संवेदनशील था। यहां पटना में उसके होते  रिक्शा चालकों के साथ यदि कोई सवारी झंझट करता तो वह बीच में पड़ के सुल्टाने को बेचैन हो जाता। महेश सतत कुछ न कुछ प्रयोग की तरह चौंकाने वाली बातें किया करता था। हिंदी भाषा की बनावट और इसके व्याकरण पर बहुत नाराज़ रहता था। बहुत झंझटिया कहता था। ख़ास कर स्त्री लिंग- पुल्लिंग प्रयोग में वह इतना लापरवाह था कि बेधड़क रोटी को पुल्लिंग और भात को स्त्रीलिंग बोल देता। इस पर  मैं जो उसे टोकता तो उल्टा मुझी पर  नाराज़ होकर चिल्लाने लगता-
- ‘तूम लोग न हींदी को आगे नहीं बढ़ने दोगे। जल्दी ही इसका सत्यानास कर दोगे। जो जैसा बोलता है बोलने दो। डेग-डेग पर सुध्द असुद्ध पकड़ते रहते हो फ़ालतू का।’ ज़ाहिर है उसके ‘तूम’, हींदी, सुद्ध-असुद्ध उच्चारण पर साथियों समेत मुझे हँसी आ ही जाती और तब वह फिर पढ़ाने लगता ! अपनी इस हिन्दी में वह छुप छुपा कर कविता भी लिखता था। कहता नहीं था।          
   महेश अक्सर मुझ पर यह आरोप लगाता था कि तुम लोग कहानी-कविता लिखते हो लेकिन अपनी कहानी का पूरा पारिश्रमिक खुद अकेले निगल जाते हो,जबकि चाहिए यह कि जिसको पात्र बनाकर तुमने लिखा,चाहे वह प्रेम में विफल कोई लड़की हो,अपने दांपत्य में पुरुष से प्रताड़ित स्त्री हो या चाहे कोई रिक्शावाला अथवा भिखारी हो या कोई कोई भी शोषित-पीड़ित पात्र,यदि उन्हें कथानक बनाते हो और उससे पैसे कमाते हो तो उसमें से कुछ पैसे उस जीवित ‘पात्र’ को भी मिलना चाहिए। यह उसका हक है। लेखक की यह नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है। तुम्हारी कॉपीराइट में भी उनको मिलना चाहिए। क्योंकि उन्होंने अपने होने,अपने वैसा होने से तुम्हारी कहानी बनने में मदद की है। इसलिए अपने पारिश्रमिक से तुम्हें कुछ प्रतिशत उनके हित में भी अवश्य देना चाहिए।अब उस वक्त तो यह एक ऐसा सुझाव था जो सहज ही मान लेने योग्य होने पर भी व्यावहारिक रूप से संभव भी क्या होता ! तो यह आज के दिन ये दो यादें हैं बन्हेज कहानी की नायिका- गंगापुर वाली और मित्र महेश पांडेय।
     जीते-जी जो आप आप दोनों को नहीं कह सका आज इस ऐतिहासिक ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ में आत्मिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।        
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हवेली*- निम्न मध्य वर्ग गृहस्थ का आँगन।

-गंगेश गुंजन, ८ मार्च,२०१८ ई.

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