Thursday, June 29, 2023

आजकल मुश्किल में प्राण !

📔।       आजकल मुश्किल में प्राण !

 
   फेसबुक पर ऐसा घमासान है जैसे एक परिवार में विरासत और जायदाद को लेकर दो सगे भाइयों के बीच घमासान छिड़ा हो।मैं भी किसी सगे की तरह दुविधा में घिरा हूँ।अब मामला यह है कि देशज वाम और विदेशज वाम के बीच वैचारिक विरासत पर ऐसा अधिकार द्वन्द्व चल रहा है कि मैं भी हतप्रभ हूंँ। फेसबुक पृष्ठ टिप्पणी प्रति टिप्पणियों के बौछार से तर हैं। मेरे लिए तनिक और दुरूह है कारण कि इन ज्ञानियों में मैं थोड़ा कम पढ़ा-लिखा हूंँ। ये सभी परम विद्वान चिंतक,बुद्धिजीवी विचारक हैं। लेकिन फेसबुक साथी तो हूँ। इस समझ के साथ,मगर परेशानी तो मुझे भी बराबर है। किससे कहा जाय ?सो लाचारी मैंने एक तरह से अपनी यह समस्या फेसबुक सभागार में बोल दी है। अब संभव है कि मेरे जैसे के लिए भी कुछ हृदय में सहानुभूति हो,संभव है मेरे लिए और हिक़ारत हो,यह भी संभव कि मेरे लिए धिक्कार हो। मगर जो भी हो मैं अभी यह कह कर यहांँ थोड़ा मुक्त मन होना चाह रहा हूंँ। बस,अपना इतना ही स्वार्थ।             मुझे नहीं लगता याद दिलाने की ज़रूरत है कि फ़ेसबुक पर ये ज्ञान मान टिप्पणी-युद्ध किस ज्वलंत मुद्दे पर परवान चढ़ गया है और किस द्वन्द शिखर पर पहुंँचेगा। और वहाँ पहुँच कर क्या करेगा।
                      🔥📔🔥
                     गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, June 28, 2023

परिवार और रंगमंच

परिवार का नाटक बिना रिहर्सल किस मज़े से मंचित होता है, जबकि रंगमंच के सामाजिक नाटकों में रिहर्सल अनिवार्य है।
                     ।🌼।                                            गंगेश गुंजन                    #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, June 24, 2023

किताबें कहती हैं कुछ और सरज़मीं पर और कुछ ...ग़़ज़लनुमा।

ग़ज़ल नुमा 

किताबों में और है और सरज़मीं पर और कुछ

कह रहे अख़बार कुछ तो सियासतदाँ और कुछ।


धुंँध ही हैं धुंँध हर जा घरों से बाहर तलक

फ़क़त शक़ शुब्हा है तारी हरेक सू न और कुछ।


रूह की सुनता नहीं शातिर समय में कोई अब 

बोलता कुछ और है निकले सदा है और कुछ


वक़्त के काँधे झुके हैं हादसों के बोझ से

इन थके क़दमों के आगे उलझनें हैं और कुछ


एक कश्ती है डवाँडोल कभी से मझधार में 

चाहते साहिल है कुछ चाहे य' दरिया और कुछ।


वक़्त की चिन्ता लिखी जा रही जो इस दौर में

इबारत रख़्शाँ है कुछ और क़लम कहती और कुछ।


मुबारक क्यों कह रहे मनहूस मंज़र पर मुझे

क्या फ़रेबे तबस्सुम है रहनुमा का और कुछ

             गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।                                  रचना २१/२५.०६.'२३.


Friday, June 23, 2023

भूखे मनुष्य और उसके अभाव को....

                      💥
  भूखे मनुष्य और उसके अभाव को पहले पड़ोसी और समाज पहचानता और कहता था। आजकल पत्रकार और अख़बार बतलाते हैं और मीडिया। हाँ समय-समय पर अपनी राजनीतिक आवश्यकता और नीयत से सरकारें अर्थात् सत्ता भी करती रहती है।                                    °°
               गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, June 17, 2023

वक़्त के हालात से घबरा गये तो जी लिए..(ग़ज़लनुमा)

🍂
वक़्त और हालात से घबरा गयेतो जी लिए                                              लोग के व्यवहार से उकता गयेतो जी लिए।

बदलना आदत है क़ुदरत की तो बदलेगी अभी
तुम भी जो उसकी तरह बदले नहीं तो जी लिए।

कौन है जो ये समझता है नहीं ख़ुद को ख़ुदा
रह गये इन्सान यूँ ही उम्र भर तो जी लिए।

काट दी जाए ज़ुबांँ और लाज़िमी हो बोलना
वक़्त पर चीख़े नहीं तब जिस्म से तो जी लिए।

रूठना फिर मनाना फिर रूठ जाना यार का
भूल से भी जो लगाया दिल से फिर तो जी लिए।

बहुत कुछ बदले हुए इस दौर में ज़ेह्न-ओ ज़बान
इन्क़लाबी तर्बियत* बदली नहीं तो जी लिए।

तुम नहीं समझे सियासी दौर ये तो सर्वनाश
जी चुके बदहाल बेबस लोग थे,तो जी लिए।  ••                                           
          *शिक्षा,सुधार,प्रशिक्षण,ट्रेनिंग।
                         •                
                   गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, June 15, 2023

ग़ज़लनुमा : ख़्वाबों का सब शीशमहल खंडहर होता है

                 🌈🌿
ख़्वाबोंका सब शीशमहल खंडहर
होता है
जो ज़मीन पर हो वो ही घर,घर
होता है।

वो क्या बोलेगा जो ख़ुदगर्ज़ी का
मारा
हरे भरे गाँव कर क़त्ल,शहर
होता है।

लाख खड़े कर लें मीनार-ओ-
ताजमहल
रहना तो हर इक का एक उमर
भर होता है।

सपने  को  मीठा  लगता है खारा
पानी
जितनी बहें आँख उतना सरवर
होता है।

अजब नहीं लोगों को भायें सुन्दर
सड़कें
ख़ास शख़्सको पर्वत और शिखर
लगता है।

क़दम नहीं उठ पाते क्यों उन सब
के आगे
बढ़ने में लोगों को कितना डर
लगता है।
                       .
                गंगेश गुंजन                                    #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, June 13, 2023

ग़ज़लनुमा : कहते-कहते थक जाता है झुठ्ठा भी

                 । 🔥 ।
कहते-कहते थक जाता है झुठ्ठा भी
सुनते-सुनते पक जाता है  सच्चा भी।

अथक क़दम रहने वाले जो हुए हौसले
उनके आगे रुक जाता है रस्ता भी।

जिन आँखों का सपना बासी हो न कभी
उनकी फ़ितरत नाकामिए विवशता भी।

रिश्ते हैं तो होंगे भी जब-तब मायूस
लेकिन कर क़ायम रख मधुर सरसता भी।

हिम्मत हो जज़्बा जुनूँ मक़्सद भी हो
एक आज़ाद ज़ेह्न समाजी दस्ता* भी।
    

  *फ़ौज की टुकड़ी,गारद।
                   💥
               गंगेश गुंजन                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, June 12, 2023

ग़ज़लनुमा : शौक़ से इश्क़ इब्तिदा करिए

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️       
  शौक़ से इश्क़ इब्तिदा करिए
  ख़ुद को ख़ुद से ही जुदा करिए।

  आप बदनाम हैं जफ़ा के लिए
  कभी यों वफ़ा बाख़ुदा करिए।

  जान उसने भी दे दी आख़िर
  रस्म ही मान कर विदा करिए।

  एक  से  एक हैं सियासतदाँ
  हाय किस-किस पे जाँ फ़िदा करिए। 

  बहुत हुआ ख़्वाबों से खेल
  जिस्म से जान अलविदा करिए।

❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️❄️
                 गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।


Saturday, June 10, 2023

ग़ज़लनुमा : एक बार फिर से देखूँ कर के

                   ❄️
  एक बार फिर से देखूँ कर के
  मौत को देखूँ  मैं  यूँ  मर  के।

  रह गए डर कर जीते अबतक
  रहूँ अब मैं भला क्यूँ डर के।

  अनकिये रह न जायें वो सब
  कहाँ जायें आधा  यूँ कर के।

  हो रहा कुछ न कुछ कैसा-वैसा
  सुबह से आंँख दायीं क्यूँ फड़के।

  हज़ारों कोस पर बोला कोई
  यहाँ दिल्ली का दिल क्यूँ धड़के।
                    🪷
               गंगेश गुंजन                                   #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, June 6, 2023

कविता कोना

              कविता कोना

कुछ कवि रैक से किताब चुन लेने कीतरह उतार सकते हैं कविता                        कुछ लाइटर से सिगरेट जला लेने की तरह कविता धूक सकते हैं ।

कुछ सिन्हा लाइब्रेरी के बाहर जमा देने   वाली सर्द रात में सीट पर सिकुड़े बैठे  पुस्तकालय बन्द होने की ताक में        ऊंँघते-चौंकते राह देखते रिक्शा वाले की बची हुई इस उम्मीद में,किसी पढ़ाकू बाबू सवारी की प्रतीक्षा में भी।                  किसी लॉज के बन्द कमरे में                  देर तक रखी रोटी पर ठंढा होते हुए नमक से निकाल सकते हैं- मुँह और हाथ के बीच थकान की दूरी को कविता समान।

  इस समय सब कुछ में अजब गड्ड मड्ड हो    रहा है सबकुछ !

  रन बटोरने की तरह कर रहे हैं कुछ कवि    कविता और कतिपय बुद्धिमान गण

  फुटबॉल के गोल दागने की तरह रिकॉर्ड तोड़ आलोचना।

  माया सुन्दरी अदृश्य राजनीति एक ही स्टेडियम में एक साथ क्रिकेट,कुश्ती,    हॉकी-फुटबॉल के खेल रही है और गँवई चरगोधियांँ कोटपीस- ताश।                झाँव-झाँव मचा हुआ है टीवी चैनेलों पर धुर्झार !                                           सभी कह रहे हैं सभी को जो हो              हो जाएगा आर-पार अबके बार।         बाज़ार सेंसेक्स पर टुकटुकी लगाये       दामी से दामी गुटका फाँक रहा है।       इन्हीं के बीच इधर से उधर

 यहांँ से वहांँ चूहादानी में फँसे चूहे की तरह रेंगती हुई कविता निकाल रहे हैं कुछ।किंकर्तव्यविमूढ़ों की आबादी दिनानुदिन महँगाई की तरह पसर रही है।                  बहुत से कवि,                                   इनसे भी बेहतर कविता बरत रहे हैं और तमाम पोस्टरों से भर रहे हैं                  आम जन का असंतोष, विस्फोटी आक्रोश  जन्तर मन्तर के वृक्ष ओ दीवार में।

कुछ सुजान तो जन्तर मन्तर की कविता  उठा कर फ़्लैट रजिस्ट्री कराने की तरह  साधते हुए प्रेस क्लबों में सुलगा सकते हैं नितान्त वक़्ती कविता -

 देर रात तक ढाल सकते हैं आज की                  जीवन-कला !

                 गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।