ग़ज़ल नुमा
किताबों में और है और सरज़मीं पर और कुछ
कह रहे अख़बार कुछ तो सियासतदाँ और कुछ।
धुंँध ही हैं धुंँध हर जा घरों से बाहर तलक
फ़क़त शक़ शुब्हा है तारी हरेक सू न और कुछ।
रूह की सुनता नहीं शातिर समय में कोई अब
बोलता कुछ और है निकले सदा है और कुछ
वक़्त के काँधे झुके हैं हादसों के बोझ से
इन थके क़दमों के आगे उलझनें हैं और कुछ
एक कश्ती है डवाँडोल कभी से मझधार में
चाहते साहिल है कुछ चाहे य' दरिया और कुछ।
वक़्त की चिन्ता लिखी जा रही जो इस दौर में
इबारत रख़्शाँ है कुछ और क़लम कहती और कुछ।
मुबारक क्यों कह रहे मनहूस मंज़र पर मुझे
क्या फ़रेबे तबस्सुम है रहनुमा का और कुछ
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। रचना २१/२५.०६.'२३.
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