Tuesday, February 27, 2018

डायरी-सी

डायरी-सा
*
अतीत की आग झुलसने से आगाह करती है,बचाव‌ के अवसर बताती है परंतु वर्तमान की आग तो आपको जला कर राख कर डालती है।आग धार्मिक,सांप्रदायिक,भाषायी और क्षेत्रीय द्वेष की हो तो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट समाज और जीवन तक को और अधिक वेग में,और भी जल्द मटियामेट कर देती है।
   वर्तमान की यह आग राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर कुछ तथाकथित सामाजिक परिवर्तनकारी तुच्छ-स्वार्थी लोग ही लगाते रहते हैं। 65 साल की अनुभव-यात्रा में एक साकांक्ष सामाजिक प्राणी के नाते मैंने जो अनुभव किया है वह यही है कि किसी भी विचारधारा, राजनीतिक दल,नेता अथवा और इसी तरह के किसी संभ्रांत वर्ग लोग या शक्तिशाली एनजीओ को अपनी-अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ ऐसी आग लगाते रहने से कोई परहेज़ नहीं है। वर्तमान में आवश्यकता और अवसर के अनुसार उनकी रुचि ऐसी आग लगाते चलने में ही रहती है। इस देश की यही नियति हो गयी है ।इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए ।कोई भी दल या कोई भी विचारधारा अपने वजूद को मजबूत करने के लिए अवसर अवसर पर वर्तमान में आग लगाना अपने एजेंडे में रखता है। इसमें शायद ही कोई अपवाद है ।
सो हमें समझना यह है कि हमारे वर्तमान में आग लगे ही नहीं। आग लगाई जाय उससे पहले लोग समझ लें। इसके लिए मेरे मन-मस्तिष्क में
    एक विचार तो यह‌ है कि दो-चार साल तक देश के तमाम नकारात्मक अतीत का जिक्र रोका जाय । एक प्रकार से युद्ध विराम की तरह।
    लेकिन यह करना होगा सभी राजनीतिक दलों,विचारधाराओं और अपने इस देश के महज़ थोड़े प्रतिशत संभ्रांत लोगों,कतिपय ढुलमुल बुद्धिजीवी और सीमित ही सही सुविधा कामी संचार माध्यम के एक्टिविस्ट, और प्रशासकों को।
   तो क्या वे इसके लिए तैयार होंगे - दो-चार साल तक देश के तमाम नकारात्मक अतीत का जिक्र रोका जाय। एक प्रकार से युद्ध विराम की तरह ?
    आप क्या सोचते हैं साथियो !

gangesh Gunjan 16 दिसंबर, 2017

Monday, February 26, 2018

चिनके हुए निकष पर समय

सभी मानदण्ड चिनक गए हैं। साहित्य,कला से लेकर सामाजिकता, सभी के। विचार और निर्णय न्याय सभी के। कोई निकष साबूत नहीं। सभी मानदण्ड प्राय: फूटे-भंगे हैं। ऐसा यह कोई एक दिन में नहीं हो गया है। बहुत दिनों की सामाजिक व्यवहार की प्रक्रिया में ऐसा हुआ है। एक समय सभी मानदंडों की केंद्रीय सामर्थ्य,उनका मूल  नैतिकता होती थी। वह नैतिकता इतनी सबल और दृढ़ थी कि छोड़े नहीं छूटती थी। तोड़े नहीं टूटती थी।
आज  ?
-गंगेश गुंजन।

Wednesday, February 21, 2018

भाषा की पीड़ा

भाषा की पीड़ा
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सिर झुकाये भाषा, हाथ जोड़ कर खड़ी थी और
एक साथ मुझे अपनी लाचारी और
चेतावनी दे रही थी- मानुष कवि !
इतने असत्य,अन्याय और अंधियारा मैं नहीं बोल सकती अब। तुम्हारे दु:ख,शोषण और परिवर्तन कहते-कहते मैं बेअसर हो चुकी हूं। भोथड़ी हो गई हूं।
और तो और ऐसा लोकतंत्र भी मैं नहीं लिख सकती। इस तरह तो अभी तो भोथड़ी हो रही हूं,कल को तो गूंगी हो जाऊंगी।
-प्रेम से लेकर युद्ध और ध्वंस से निर्माण तक,असहयोग से सशस्त्र प्रतिरोध तक...लाठी-तलवार से  बंदूक कबसे ये सबकुछ कहती आ रही हूं।
देखने के तुम्हें इतने अनगिन महाभारत और इतिहास दे दिए हैं दुनिया भर।सत्ता,शासन राजतंत्र-लोकतंत्र।
यह लोकतंत्र तुम्हारा ! और अब तुम चाहते हो कि तुम्हारे लिए इन्हें पढ़ूं भी मैं ही ? मैं ही करूं भी-
-लोकतंत्र !

लात-जूते खाते रहोगे,वक्त़-वक़्त पर‌ जेलों में तफ़रीह करने जाते-आते रहोगे। धरने पर बैठे फोटो लिवाते रहोगे,वहां से उठकर वोट देने जाते रहोगे।
भले-लोकतंत्र और परिवर्तन शब्द भी मैंने ही कहे।
       तुम सिर्फ़ इन्हें बोलोगे और बोल कर सोओगे ?
*
-गंगेश गुंजन। ३१.१०.’१७.

भाषा मर्म :विश्व मातृभाषा दिवस

।। भाषा का मर्म ।।
*
दु:ख पहले बहुत छोटा था।भाषा उसे समो लेती थी।
दु:ख जितना बड़ा होता था भाषा की गोद उससे बड़ी होती थी। धीरे-धीरे दु:ख अनुभव और बुद्धि का हिस्सा होने लगा।अब अनुभव के साथ मिलकर दु:ख कुछ ज्यादा सयाना होने लगा।मां होने तक भाषा ने युवा संतान की तरह मां होकर संभाला। दु:ख उससे भी बड़ा होने लगा।भाषा के कद से बाहर होने लगा। बात उससे बाहर और दुख इतना बड़ा हो गया कि भाषा उसके सामने असहाय और बूढ़ी हो गई। अनुभव का सिलसिला कम नहीं हुआ। रुका नहीं ।फैलता गया । पहले एक या दो दिशाओं में,फिर अनेक दिशाओं में ।शरीर की नसों के स्नायु संजाल की तरह दुख अपने स्वरूप को संचालित करने लगा ।भाषा स्वयं उस में बहने लगी । मां जो थी! भाषा स्वयं दुख का हिस्सा हो गई। ऐसा क्या हुआ कि भाषा जो अंतिम मां है,वह भी थक गई । ऐसा क्या हुआ कि भाषा अनुभव की अपनी ही संतान से पराजित हो गई ?
एक दिन मैं बहुत परेशान हो गया । बहुत ही चिंता और तकलीफ में भाषा से पूछा भी:
‘-तुम तो मां हो ! मैं इतना उद्दंड और आवारा कैसे हुआ कि तुम्हारी गोद,तुम्हारी बांहें और तुम्हारे कंधों से बाहर हो गया ?तुम तो मां हो तुमने क्यों नहीं संभाला ?’
भाषा ने माँ की ही तरह शांत धैर्य से कहा :
‘-बच्चे बड़े हो जाते हैं तो मांएं निश्चिंत हो जाती हैं।
माँ भी थकती हैं। उन्हें भी विश्राम चाहिए। मेरे गर्भ में वात्सल्य है प्रेम है करुणा है और मनुष्य की मनुष्य के सबसे बड़े,सर्वोच्च आनंद की सवारी-भाषा ! उसके योग्य शब्द शब्दों की सामर्थ्य।अब यह उसे लेकर तुमने जाति,संप्रदाय, धर्म,अंचल और खुद मेरी-भाषा की भी जितनी भीषण समस्याएं पैदा कर ली हैं, जैसे-जैसे अनुभव तुमने पैदा किए हैं इनके लिए तो मेरी मां ने मुझे बना कर भेजा नहीं था ! यह अनुभव ऐसे अंगारों वाले हैं इतने विकराल और सृष्टि भर मनुष्यता को नष्ट कर देने वाले हैं कि जिनके समाधान का मेरा कोई अभ्यास नहीं है । मेरी मां ने मुझे इन सब के लिए तैयार करके कहां भेजा था। यह अनुभव, यह मार्ग, यह प्राथमिकताएं तुम्हारी अर्जित की हुई हैं। सो इनकी जटिलताओं को इन के संघर्षों इनके दुष्परिणामों को कहने-सुनने-समझने और भुगतने लायक भाषा तो अब तुमको खुद बनानी होगी।अब तुमको ऐसी भाषा का आविष्कार करना होगा। मैं तो अपनी भूमिका पूरी कर चुकी हूं ।अब तुम्हें सर्वजन सुलभ सुंदर जीवन के लिए आवश्यक विवेक तक पहुंचाकर मैं जरा करवट लेकर विश्राम क्या करने लगी कि तुमने मुझे किनारे ही कर दिया ।
तो अब जाओ अपने इन महाविनाशी अनुभव के योग्य आकार, और  शिल्प-सांचा का भाषा विज्ञान तलाशो ! योग्य हो गए हो। तुम्हारे दु:खों ने तुम्हें योग्य बना दिया है। मैं भाषा हूं ।मां हूं किंतु अब तुम्हारे ऐसे सयाने हो जाने के बाद गूंगी बन गयी।

आगे छोटी-छोटी मेरी अनंत संतान हैं ।उनका पाठ बनना है । उनके पाठ को समझना है। उनके लिए तैयार रहना है। उनके नन्हे मुन्ने दु:खों के आकार प्रकार का कोई नया सांचा तैयार करना है । उन्हें बड़ा होने के लिए,अब की इस खू़ख़ार इच्छा आकांक्षाओं से भरे जीवन को समझने के लिए ।तैयार करना है ।और अब मेरी यही भूमिका है।

-गंगेश गुंजन

Tuesday, February 20, 2018

वसंत ग़ज़ल

ग़ज़ल-सी
*
जिस पल से वो रूठ गया  है
मन  कैसा  बेज़ार   भया  ह‌ै।

यूं तो गया  बरिस  भर पहले
यह  क्यूं  लागे अभी गया है।

मैं  कर  दूं  तो फ़रज हमारा
वो कर दे जो  भयी  दया है।

लो  वसन्त के  रिश्ते  देखो
भाभी-देवर  पिया-पिया है।

पतझर में मायूस शजर था
फूटी कोंपल अभी जिया है।
-
-गंगेश गुंजन। १९ फ़रवरी,२०१८.

Sunday, February 18, 2018

स्थानीय दैनिक में एक समाचार पढ़ कर

स्थानीय दैनिक में एक समाचार छपा है -
‘सकरी को हराकर जयनगर सेमीफाइनल में’।
यह पढ़ कर मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। सकरी का हारना। इस बात से मेरा खेल-स्वाभिमान आहत ‌है। सकरी हार कैसे सकता है?असंभव !
    विजयी जयनगर भी मेरे किसी ग़ैर राज्य या देश का नहीं है। सकरी और जयनगर दोनों ही मेरे आजू-बाजू हैं। दोनों तरफ लगभग समान दूरी पर। उत्तर का जयनगर एक‌ ही‌ ओर सिग्नल वाला रेल स्टेशन,जहां गए भी तो जाने कितने बरस बीत गए। उसी तरह सकरी गए हुए भी। फिर ? मेरी समझ में यह नहीं आता कि तब फिर सकरी का हारना मुझे क्यों बुरा लगा? याद आया है सकरी चीनी मिल प्रबंधन के‌ खेल का वह फ़ुटबॉल मैदान! इसमें देखे हुए कितने ही मैच।खेल। लेकिन आज तो मुझे यह भी नहीं मालूम कि वह फुटबाल फील्ड है भी‌ या किसी व्यावसायिक सोसायटी कालोनी की भेंट चढ़ चुका।फिर?       
    और तो कोई कारण नहीं। सिवाय इसके कि वहां दहौड़ा है। और दहौड़ा मेरे मित्रम् का गांव है। दीदी का सासुर भी। बचपन के बहुत‌ दिन और अवसर मित्र के साथ वहां की स्थानीय बाल आवारगी में अभिभावकों की डांट-पीट के बावजूद अच्छे गुज़रे हैं। कैसे भूल सकता हूं। लेकिन आज तो मित्रम् भी यहां नहीं रहता। कभी दिल्ली कभी काठमाण्डौ करता रहता है। अलबत्ता बड़े शौक़ से गांव में सभी सुविधाओं वाला नया सुन्दर घर बना रखा है। ताला लटका रहता है।बंद।
    दीदी भी कहां रहती हैं अब यहाँ।अपने बच्चों के साथ कभी रांची,कभी भागलपुर कभी मुंबई में रहती हैं। फिर इस सकरी से जहां दहौड़ा गांव है,अब मेरा क्या रिश्ता ?
सकरी की हार फिर से चुभी-
...कितने गोल से हारा होगा ? मैंने तसल्ली की कि ज्यादा से ज़्यादा जयनगर एक गोल से जीता होगा।इससे अधिक नहीं। फिर खीझ है- सकरी हारे या जीते ! इससे मुझे ? खीझा तो लेकिन चाहकर भी रोक नहीं पाया। बचा हुआ समाचार जो पढ़ने लगा तो पाता हूँ कि मैच विकेट और रन का यानी क्रिकेट का था !
-'वही तो ! फुटबाल में सकरी कैसे हार सकता है भला?
और क्रिकेट को कौन पूछता है।असली तो खेल 'फुटबाल’ है। उसमें सकरी नहीं न हारा है। मैंने ख़ुशी की लंबी सांस भरी है।
     इस अहसास के साथ ‌ही अब ‌मैं अपना अभिमान सुरक्षित महसूस कर रहा हूँ।         
*
 -गंगेश गुंजन।१८.२.’१८.

Friday, February 16, 2018

कितना छोटा उन्वान हुआ


    क्या कुछ टूट गया इक पल में
                      🍂
फिर नजरें हैं झुकी कि उसका फिर हम पर एहसान हुआ
दो पल ही के लिए भले मेरे घर वो मेहमान हुआ                                                 ना उसके ही दिल में ना मेरे ज़ेह्न को है कुछ याद    
क्या कुछ टूट गया इक पल में क्या अपने दरम्यान हुआ

अब फ़ुर्सत के लाले हैं हरदम सांसत में जान रहे                                कैसे ज़ालिम वक्त में हमको मिलने का अरमान हुआ
                                                 हम भी तो अब मन के मारे बैठे हैं तब से तनहा      
किए तसल्ली यह कि उसका जीनातो आसान हुआ  
                          
रिश्तोंके खिलवाड़ में आख़िर वो भी क्या शातिर निकला
और देखिए इसमें भी मैं ही कितना नादान हुआ
                                   
अब तो फ़क़त शिकायत की क़श्ती में बैठे अलग-अलग
दुःख की बड़ी कहानी का कितना छोटा उन्वान हुआ !
                    🍁🍁
(गंगेश गुंजन) 10 अप्रिल,2014 ई.

अब की दुनिया कैसी दुनिया ‌

ग़ज़ल-सी
*
अबकी  दुनिया   कैसी   दुनिया
अलग-अलग   एक-सी  दुनिया।

लहू  के  छींटे   भरा   है दामन
यहां  से  वहां    ख़ूनी   दुनिया।

सुख - सुविधा  के  बनते पर्वत
एक  तरफ़   अध नंगी दुनिया।

बच्चों   की   अंधियारी   बस्ती
माँ-बहनों की   जलती दुनिया।

अंतरिक्ष  तक   सफ़र  संभाले
धरती   भर   कंगाली   दुनिया।

उन    होठों   से    मुस्काते  हैं
इन   अधरों  से  गाली  दुनिया।

कितने   सभ्य  समाचारों  की
कैसी    जंगल  वाली  दुनिया।

बुद्धि  और  विज्ञान  से उजली
वाह री  ऐसी  काली  दुनिया।

जुड़ी - जुड़ी  है युद्ध  के लिए
शान्ति-कामना  वाली  दुनिया।

महाशक्ति  से   महाशक्ति   के
समझौतों  की  साली  दुनिया।

वहशी  चाहत   छद्म   विचारों  
की  बनती   रूपाली   दुनिया।

आधा मधु और आधे  विष की
घुली-मिली यह  प्याली दुनिया।

पी  लेने   को   देखो    गुंजन
दौड़  पडी  मतवाली दुनिया।
-गंगेश गुंजन.

Wednesday, February 7, 2018

सफ़र में सामान

मेरे सफ़र में साथ ख़ास नहीं कुछ असबाब
एक जुदाई है और दूसरा मिलने का ख़्वाब।
*
०९ नवं.२०१५./ गुंजन g.

Sunday, February 4, 2018

राजपथ पर साहित्य

राजपथ पर साहित्य की सवारी सुभ्यस्त अति बौद्धिकों के तर्क में ही संभव हैे अन्यथा यह एक जुमलेबाज़ी भर है।
*
गंगेश गुंजन,५फ़रवरी,२०१८ ई.

Saturday, February 3, 2018

कविता सृष्टि का प्रारूप

कविता नई सृष्टि,नये ब्रम्हांड का प्रारूप (सिनोप्सिस) है !
-गंगेश गुंजन।
०३फ़रवरी,२०१८‌ ई.

Thursday, February 1, 2018

हमारा लोकतंत्र

लोकतंत्र
*
मैं जिस ज़मीन पर खड़ा हूं मेरी नहीं है।
कभी भी खिसक सकती है पैर के नीचे से।
यह जमीन उस लोकतंत्र की है जो भी खुद
अपनी ज़मीन पर खड़ा नहीं,
किसी न किसी राजनीतिक दल के कंधे पर रहता है।
जैसे ही सत्ता बदलती है,लोकतंत्र भी बदल कर
उसी के आकार-प्रकार और स्वभाव-धर्म का हो जाता है।
हमारा लोकतंत्र स्वदेशी है, कि
बुद्धि-विचार की तरह आयातित ?
*
-गंगेश गुंजन।