Monday, October 31, 2022

दु:ख छोड़ि क' सब किछु बाँटल ।

 ⚡ दु:ख छोड़ि क' सब किछु बाँटल !

                         ** 

कोन इलाका छूटल अछि                     सब दिसि सबटा बांँटल अछि।

व्यर्थ वस्तु सब बात
-विचार नीकहुंँ तंँ
सब काटल अछि ।

दु:ख आब करबे लए की
युगेक माथ जे
साटल अछि।
बर्खहुंँ संयोगल पोथी
कोनो कोन में
राखल अछि।

बहुते दिन पर गप्प भेलय
एकसर मीत
निरासल अछि।
भरि पृथ्वीक
सुखाएल समुद्र
मेघ अपने पियासल अछि।

गामक लोक बताह हमर
एहन खेत कें चासल अछि।
कष्टक आगिक तापे दिव्य
दग्ध लोक
किछु  बॉचल अछि ।

सात रंग सब मिज्झर भेल
सबहक संस्कृति
भासल अछि।
महगीक विपदा मे बेहाल
देशक दिने
हतासल अछि।

सब बूझय अपने कें महान्
की मिथिलाँचल
भासल अछि।
                     *
             ।गंगेश गुंजन।                                   #उचितवक्ताडेस्क।

ग़ज़ल नुमा

                  🔥|
 मुत्मइन वो भी न था मैं भी नहीं
 था प्यार में।
 बाख़ुदा हर हाल थे बेहाल इस 
 संसार में।

 रोज़ कुछ बदले यहाँ ज़्यादा
 मगर सो टूट कर
 बाज़ शोहदे सरीखे थे घुसे कुछ 
 सरकार में।

 सियासत थी या कि डमरू पर
 थिरकते लोग थे
 एक से एक भालू-बन्दर मदारी 
 दरबार में।

 भूख थी लोगों में कब से ज़ेह्न
 में आज़ादीअत
 हर तरफ बेख़ौफ़ ग़ुंडे माहौले
 ख़ूंँख़्वार में।

 नग्न काँधों में सभा कौरव की
 द्रौपदियांँ खड़ीं
 तीर ना तलवार कोई गदा थी
 प्रतिकार में।

 ख़ून का दरिया बहाया चाहने में
 राजनीति 
 इधर निर्मल बह रही गंगा भी
 थी हरद्वार में ।

 लोक कल्याणों के क़िस्सों से
 पटी थी सरज़मीं
 और मचता जश्ने शाही रोज़ हर
 अख़बार में।

 आख़िरी वो भी ख़ुदा को दे
 रहा था कुछ सदा
 एक क़श्ती पार पाने फँसी थी
 मँझधार में।
                  गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।

Friday, October 28, 2022

किसी का ये बहाना है -२. ग़ज़लनुमा।

 किसी का ये बहाना है किसी का वो बहाना है
सियासत तो सियासत हमनवाँओं का
पुराना है।
 
शगल क्या है हुकूमत की इनायत चैनेलों पर ये
हक़ीक़त को छुपाना झूठ को दुल्हन बनाना है।

हमें कबतक बना रखेंगे अपने रेस का घोड़ा
बताए रहनुमा कबतक हमें बुद्धू बनाना है।

हुकूमत और जनता में ठनी रहती तो है अकसर
मगर क्या दिन दहाड़े आम जन यूँ बरग़लाना है।

ग़ज़ब है हुक्म में जादू अजब माया ज़ुबाँ में है
मगर मुतमइन हैं गुंजन कि अब जन-जन सयाना है।
                          💥                                                  गंगेश गुंजन।                                       #उचितवक्ताडेस्क।

Saturday, October 22, 2022

किसीका ये बहानाथा किसी का: ग़ज़ल नुमा

🐾🐾


 किसी का ये बहाना था किसी का वो बहाना था

 यहांँ उनका न आना था वहांँ उसका न जाना था।

                     *

    इस ग़ज़लनुमा रचना में एक छन्द के लिए दुष्यंत कुमार जी का कृतज्ञ हूँ।

  दूसरे, 

 इस तरह की रिकॉर्डिंग से बच नहीं सकता था क्योंकि मैं जिसओसारे में बैठा हूंँ ठीक मेरे पीछे और दाहिनी ओर गांँव की मुख्य सड़कें हैं...🙏!

                                    प्रस्तुति :

                     #उचितवक्ताडेस्क।

🐾   🐾

किसी का ये बहाना था किसी का वो बहाना था                                                  यहाँ उनका न आना था वहाँ उसका न जाना था।

गिले-शिकवे बहुत से रूहके कितने फ़सानो में                                                  किसी का दिल दुखाना था किसी का मुस्कुराना था।

मुरादें कर चुके ख़ुद क़त्ल किस वीरान में जा कर                                                जहाँ प्रेतों के डेरे हैं उन्हीं से सब निभाना था।

फ़क़त अब सब गए माज़ी हुए हम भी तो सब खो कर                                    किसे मंज़िल प' होना औ किसे चलते ही जाना था।

नसीबे ज़िन्दगी सब का जुदा है और अपना ही .....

सफ़र में इश्क़ मिल जाए मुक़द्दर है बड़ा लेकिन                                              उसे पुल से गुज़रना था किसी का थरथराना था।                                              फ़क़त गुज़रे,गए सब,अब खड़ेहैं फ़िक्र में गुंजन                                              बला से है रहा जो भी किसी का हो बहाना था।

        गंगेश गुंजन, २९.०३.'२२.गाम।

              #उचितवक्ताडेस्क।

शुभाशुभ विचार!

🌀।         शुभाशुभ विचार !

    प्रकृति बहुत बड़ी है निस्संदेह किन्तु उतनी बड़ी नहीं कि मेरी शुभकामना का अनादर करे। सो अब इस अर्थ में भी स्वास्थ्य-शुभकामना भेजने की भावना
 ज़ब्त कर लेता हूँ। 
   असल में कोरोना काल में अपने एक से अधिक आत्मीय और स्नेही कवि, साहित्यकार के अस्वस्थ होने की सूचना पर मैंने अपनी शुभकामना भेजी और वे तब भी नहीं बचे। उस निराश सिलसिले के आख़िरी अनुभव कवि मंगलेश डबराल जी भी जब मेरी शुभकामना के बावजूद नहीं बचे तब से मैं अपने इस व्यवहार को ही अशुभ मानने लगा। उसके बाद से किसी को स्वास्थ्य के बारे में शुभकामना नहीं भेजता हूँ। स्वाभाविक है कि जब स्वस्थ होकर घर लौट आते हैं तब अपनी खुशी ज़ाहिर करता हूँ। 
   हाँ मैं यह मानता हूँ कि व्यावहारिकता में (जिसे मैथिली में लौकिकता कहते हैं)मैं बहुत पिछड़ा और पुराना हूँ।यह भी लगता है कि इस प्रसंग का ज़िक्र यहाँ बहुतउपयुक्त नहीं। फिर भी लिख गया हूँ।
                        *                                                 गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।

Sunday, October 16, 2022

वर्तमान भारतीय काल !

💥     विद्यमान भारतीय काल !

   वर्तमान विद्यमान भारतीय काल,
   काँग्रेस-भाजपा-वामपंथ-सपा-
   विचार से बहुत आगे निकल गया
   है।इसके बरक्स अभी यहाँके शेष
   विशेष प्रबुद्धोंके भोथड़े कालबोध 
   पर शगल-चिन्तन और विमर्श का 
   समय चल रहा है। जटिल रफ़्तार
   वाले इस वैश्विक परिवर्तन के दौर
   में यह वास्तव में है या भ्रम मेरा ?
                       🌒|                                                 गंगेश गुंजन 
             #उचितवक्ताडेस्क।                                  १६ अक्तूबर,२०२२.

Friday, October 14, 2022

पीले गुलाब से क्या कम भिंडी के फूल

•                                         •
   पीले गुलाब से क्या कम हैं ये
   भिंडी जैसी स्वादिष्ट सब्ज़ी के
   प्यारे फूल! आप ही देखें तो।

   गाँव में : #उचितवक्ताडेस्क।                                  १५.१०.'२२

रडार से बाहर

 ⚡          रडार से बाहर            ⚡
  एक दिन अपने ही सुखों की जेल
में बन्द रह कर वे सब सड़ जाएंँगे,
देख लीजिएगा
उनकी खुशियों की आंँधी उन्हें ही
बहाकर सात समुन्दर में डाल
आएगी
  वे सभी खुशियांँ हमारे सुखों को
हड़प कर पैदा की गई हैं
ख़ुद मालिक बन कर अपनी
अलमारियों में जमा की हुई हैँ।
वक्त की भी अपनी तरह से ईडी है
अवसर पर सब का हिसाब बराबर
कर ही देती है।
    कुछ तो बड़ा ज़बर्दस्त है कि पैदा करके दिखाये जा रहे इस तिलिस्म में भयावह फ़रेब है जो
उनके भी रडार से बाहर
अभी पोशीदा है।
ग़नीमत कि फ़ोटो ग्राफ़र है,
निगेटिव को पॉज़िटिव करना
जानता है 
डार्क रूम में मौजूद है जो
किसी घड़ी कर ले सकता है यह 
काम।

और लोगों के साथ,मन में कविता
है जो
आदमी के मन का बैरोमीटर है,
और जो सदा उनके रडार से
बाहर रहती है।
                      *
                गंगेश गुंजन ‌                                     #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, October 12, 2022

ग़ज़ल नुमा : मताए वायदा उसका दिया है

      🌸 ग़ज़लनुमा 🌸
                  •
 मता-ए वायदा उसका दिया है 
 ज़रा सी ज़िन्दगी में कम क्या है।
                   •
 कहेगा और कौन वो ही तो ये
 तबस्सुम है तो चश्म-ए-नम क्या है।
                   •
 मुसल्सल चल रहा है मुल्क भर जो
 मौसमे ठंढ ऐसे गरम क्या है।
                   •
 वो जो सिंहासनों पर बैठे हैं 
 थोड़े मुजरिमों पर नरम क्या है।
                    •
 क़त्ल करता है और पूछता है
 बता मक़्तूल तेरा धरम क्या है।              
                   ••                
             गंगेश गुंजन                                       #उचितवक्ताडेस्क।

Sunday, October 9, 2022

कुछ अशआर

।🌔              अष्टदल !               🌔।

हम बोलते रहे मगर समझा न वो ज़ुबाँ
ख़ामोश इक ज़रा हुए औ' सब समझ गया।
                    •
    इश्क़ से इश्क़ किसको नहीं है
    पता चलता है जब होता है।
                    •   
      इश्क़  में  मुआवज़ेदारी
    ग़ज़ब है दौर अजब यारी।
                    •
सफ़र में सामांँ  समेट रहा है वो यूंँ            कि जैसे बहुत पास हो उसका स्टेशन।
                   •
रोने लगो तो दिल भी रम जाए उसी में।    
लेकिन खु़शी भी आएगी आंँसू में नहायी।
                   •
सफ़र में साथ नहीं ख़ास कुछ मेरे असबाब
एक जुदाई है दूसरा मिलने का ख़्वाब।
                    •
दु:खकी गाड़ीपर सुख इक थका हुआ सफ़र
ज़िन्दगी अजब उलटबांँसी है तमाशा घर।                          •
लालसा हर पल जीने की यूँ न की जाये।
कभी मरने का हौसला भी रक्खा जाये।
                        **
                  गंगेश गुंजन                                      #उचितवक्ताडेस्क।                                   १०.१०.२०२२

शे'र

असर ही छीन ले दरकार नहीं है वो बहर,
न हो ग़ज़ल सुन्दर कविता हो ये ज़रूरी है।
                     🌿🌿                                             गंगेश गुंजन 
          #उचितवक्ताडेस्क।

लेखक कवि नायक...

लेखक,कवि नायक तो हो सकते हैं        कोई साधारण और कोई महान् लेकिन खलनायक नहीं हो सकते।
                     🌀                                                गंगेश गुंजन 
         #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, October 6, 2022

ग़ज़लनुमा: पुराने घर में रातें काटते हैं

🛖                                      ••
    पुराने  घर में  रातें  काटते हैं।
    काटते क्या अंँधेरा छांँटते हैं।

    रौशनी ही नहीं जब घर में अपने
    तीरगीयाँ सहर तक हाँकते हैं।

  ख़ुशी अब तक मयस्सर ही नहीं जब 
  मिले हैं दु:ख तो दुख ही बाँटते‌ हैं।

   वो जो बूढ़े हैं उस घर के दादा
   वक़्त बेवक़्त कितना खाँसते हैं।

  अजब मातम का डेरा जग हुआ है
  लोग जीने को दु:ख भर काटते हैं।

   बड़ा सुकुमार है दादी का पोता
   कहे दादी को- 'दादा डाँटते हैं।'

  किसी पल मरने वाले ज्योतिषीजी
  अजब है भाग्य मेरा बाँचते‌ हैं।

  अनर्गल करने तक कविता में हमको
  वो ख़ुद को कवि निराला आँकते हैं।

  नहीं आते अब उसके छलावों में
  रात भर खुली आँखों जागते हैं ।

  छुपा कर रौशनी रक्खेंगे कबतक।
  हम उनके अंधेरे जब फाँकते हैं।
                        •
   गंगेश गुंजन 
    -गाँव से।०७.१०.'२२.