🛖 ••
पुराने घर में रातें काटते हैं।
काटते क्या अंँधेरा छांँटते हैं।
रौशनी ही नहीं जब घर में अपने
तीरगीयाँ सहर तक हाँकते हैं।
ख़ुशी अब तक मयस्सर ही नहीं जब
मिले हैं दु:ख तो दुख ही बाँटते हैं।
वो जो बूढ़े हैं उस घर के दादा
वक़्त बेवक़्त कितना खाँसते हैं।
अजब मातम का डेरा जग हुआ है
लोग जीने को दु:ख भर काटते हैं।
बड़ा सुकुमार है दादी का पोता
कहे दादी को- 'दादा डाँटते हैं।'
किसी पल मरने वाले ज्योतिषीजी
अजब है भाग्य मेरा बाँचते हैं।
अनर्गल करने तक कविता में हमको
वो ख़ुद को कवि निराला आँकते हैं।
नहीं आते अब उसके छलावों में
रात भर खुली आँखों जागते हैं ।
छुपा कर रौशनी रक्खेंगे कबतक।
हम उनके अंधेरे जब फाँकते हैं।
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गंगेश गुंजन
-गाँव से।०७.१०.'२२.
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