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मुत्मइन वो भी न था मैं भी नहीं
था प्यार में।
बाख़ुदा हर हाल थे बेहाल इस
संसार में।
रोज़ कुछ बदले यहाँ ज़्यादा
मगर सो टूट कर
बाज़ शोहदे सरीखे थे घुसे कुछ
सरकार में।
सियासत थी या कि डमरू पर
थिरकते लोग थे
एक से एक भालू-बन्दर मदारी
दरबार में।
भूख थी लोगों में कब से ज़ेह्न
में आज़ादीअत
हर तरफ बेख़ौफ़ ग़ुंडे माहौले
ख़ूंँख़्वार में।
नग्न काँधों में सभा कौरव की
द्रौपदियांँ खड़ीं
तीर ना तलवार कोई गदा थी
प्रतिकार में।
ख़ून का दरिया बहाया चाहने में
राजनीति
इधर निर्मल बह रही गंगा भी
थी हरद्वार में ।
लोक कल्याणों के क़िस्सों से
पटी थी सरज़मीं
और मचता जश्ने शाही रोज़ हर
अख़बार में।
आख़िरी वो भी ख़ुदा को दे
रहा था कुछ सदा
एक क़श्ती पार पाने फँसी थी
मँझधार में।
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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