Sunday, January 23, 2022

जैसी है ये,जो है !

🌾🌾      जैसी है यह जो है !

      इस सियासत और मेरे दोस्त में
      इक फ़र्क़ है
      एक नंगी हो  चुकी है  दूसरा
      पर्दे  में  है।

      देखिए यह दौर भी चलता है
     आगे तक कहाँ
     सज रहा किरदार मेक-अप रूम
     के पर्दे में है।

     अब कहाँ जाकर रहोगे दोस्तों
     के शहर में
     गाँव-क़स्बा-देश का भूगोल तक
     पर्दे में  है

     देखते हैं  अबकी  बारी
     कूटनीतिक  वार्ता
     ऊँट किस करवट में बैठे आज
     तो परदे में है।

     बहुत है अफ़सोस जी को पर
     करे तो क्या करे
     अपना खुद का भी इरादा तो
     छुपा पर्दे में है ।

              #गंगेश गुंजन।

Saturday, January 22, 2022

मज़ाक और पॉलिटिक्स


🔅         मज़ाक और पॉलिटिक्स
                          ✨
  मज़ाक को एक दिन यह महसूस
  हुआ कि लोग बाग उसे सीरियसली
  नहीं लेते हैं। उसे यह बात खल गई।            उसी दिन मज़ाक ने पॉलिटिक्स ज्वाइन      कर ली।                                                    आख़िर शब्द का भी आत्म सम्मान         होता है।         |💐|

               #उचितवक्ताडेस्क।

Tuesday, January 18, 2022

कोहिनूर हो गया

                     🌍 

           कोहिनूर हो गया          ..
    अपने इस जर्जर तन के वासन
    में मैं,
    इस तरह रहता हूंँ जैसे,
    संसार के विशाल भव्य विशाल
    अभिलेखागार में रहता है
    सुरक्षित-
        कोहिनूर।
    कविता से लेकर,विचार,आदर्श
   और राजनीतिक दर्शन के जीवन
   यथार्थ को परख,भोग-भाग कर
   ही नतीजे पर पहुँचा कि रहूँ इसी
   रूप में अब मैं
          कोहिनूर होकर रहूँ।                                          ⚡

            #उचितवक्ताडेस्क।                                     गंगेश गुंजन

Saturday, January 15, 2022

....लगता है हूँ

                  🌑
 
       आजकल ऐसा लगता
       है कि हूंँ नहीं,मैं अपनी
       कहानी पढ़ रहा हूंँ।
                   🌀

               गंगेश गुंजन

           #उचितवक्ताडेस्क




                   

Tuesday, January 11, 2022

किसी सियासत का मारा है : ग़ज़लनुमा

                   |🔥|
    किसी  सियासत का हारा है
    किसी जम्हूरियत का मारा है।
    
    इश्क़ में सब फ़रेब चलता है
    उसे तो और जो कुंँआरा है।

    जायज़ मुहीम पर भी सख़्ती
    सल्तनत का सब इज़ारा है।

    बड़े मज़े में हैं मार्केट-मॉल
    रहे जिनका, क्या हमारा है।

    रहा इस मंज़र में अब क्या
    गांँधी को भी कठघरा है।

    बचा है हौसला गुंजन का
    नहीं थका अभी न हारा है।
                🌱🌱
        #उचितवक्ताडेस्क।                     

              गंगेश गुंजन

Monday, January 10, 2022

कुछेक दुपँतियाँ


🌱🌱   कुछेक दुपँतियाँ    🌱🌱
 

   दु:ख से दोस्ती जो कर ली                     जल गया सुख भागता आया।                                     .

    तमाम ज़िन्दगी की तीरगी।
    सामने एक जुगनू  उम्मीद।
                   .
    यह जीवन इतना भर अपना।
    रिश्तों का अनुदान रह गया ।
                    .
    सुबह रफ्त़ार से यूंँ आई।
    रात चुपचाप घर से भागी।
                    .
    ज़िन्दगी से डर गये तुम भी।   
    रास्ते में ठहर गये  तुम भी ।            
                    .
    यों मुकम्मल  नहीं होता।
    पत्थरों से हल नहीं होता।
                    .
    उनकी बावस्तगी भी न रही ।
    और हम भी अब कहांँ जाते !                🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱

             गंगेश गुंजन 
                   ..
         #उचितवक्ताडेस्क। 

Thursday, January 6, 2022

काल हाथी और रचना सामर्थ्य

                     ⚡
    काल हाथी और रचना-सामर्थ्य !

   ऐसा क्यों लगता रहता है कोई
   एक हाथी है जो चैन से सूंँढ़ उठा
   कर मुंँह में लिए निश्चिंत लेटा है।
   उस पर मक्खियाँ भिन-भिना रही
   हैं,मच्छर उस पर बैठ-उड़ रहे हैं,
   डंँस भी रहे हैं। हाथी को कोई
   फर्क नहीं पड़ता ! उसे अपनी
   कँटीली पूँछ तक डुलानी नहीं
   पड़ती।
      ऐसा क्यों लगता है इतनी सारी
    फुफकारती हुईं कविताएँ,
    प्रतिपक्ष की जलती हुई जिह्वा से
    उतरते ओजस्वी विचार इन सब
    का कोई असर क्यों नहीं हो रहा
    है? बदलाव के आसार तक क्यों
    नहीं दिखाई देते? क्या लक्ष्य मूढ़
    और विपथ हो गया ? क्या भाषा
    निस्तेज,अचेत हो गई है? क्या
    साहित्य लेखन महज़ एक शगल
    एक रिवायत हो कर रह गया है?
        बैठे-बैठे आज यही कुछ मन
    में आया और कह गया। 
    हालांँकि यह सच है कि आज
    कहा जाता हुआ लग कर भी यह
    वस्तुत: पिछले वर्षों के निरंतर
    अतीत में निरन्तर घेरे खलता
    रहा है। मुखर स्वरूप में एक मूर्त
   बिंब के तौर पर यह आज आया
   है कि वक्त का,व्यवस्था का यह
   कैसा विशाल काला हाथी है जो
   तमाम इतने सचेष्ट सक्रिय
   विचारक,नेता,कवि-कलाकार के
   होते हुए भी चैन से बैठा हुआ है !
   ये सब के सब बेअसर क्यों लगते
   हैं? भाषा से बाघ ग़ायब क्यौं है।
   भाषा बकरी कब हो गई ?
      और
   यह कोई अचानक हो गया भी
   नहीं लगता। चिंता यह है। जायज़
   है या नहीं यह वक्त ही तय करे।
                      |🔥|
            #उचितवक्ताडेस्क।

                  गंगेश गुंजन

Wednesday, January 5, 2022

गाँव अकेला

                गाँव अकेला

सच के साथ खड़े रहते थे दोस्त                कई रहने वाले

आज खड़ा था गांँव अकेले देखा तो        जी भर आया। 

           #उचितवक्ताडेस्क।    

                गंगेश गुंजन

Tuesday, January 4, 2022

नफ़रत को गंगा-स्नान !

                       🌊
   मुहब्बत की जगह बैठूंँगा ख़ुद मैं
   अभी नफ़रत को गंगा नहाता हूँ।
                      |🌸|
            #उचितवक्ताडेस्क।

                 गंगेश गुंजन