Thursday, January 6, 2022

काल हाथी और रचना सामर्थ्य

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    काल हाथी और रचना-सामर्थ्य !

   ऐसा क्यों लगता रहता है कोई
   एक हाथी है जो चैन से सूंँढ़ उठा
   कर मुंँह में लिए निश्चिंत लेटा है।
   उस पर मक्खियाँ भिन-भिना रही
   हैं,मच्छर उस पर बैठ-उड़ रहे हैं,
   डंँस भी रहे हैं। हाथी को कोई
   फर्क नहीं पड़ता ! उसे अपनी
   कँटीली पूँछ तक डुलानी नहीं
   पड़ती।
      ऐसा क्यों लगता है इतनी सारी
    फुफकारती हुईं कविताएँ,
    प्रतिपक्ष की जलती हुई जिह्वा से
    उतरते ओजस्वी विचार इन सब
    का कोई असर क्यों नहीं हो रहा
    है? बदलाव के आसार तक क्यों
    नहीं दिखाई देते? क्या लक्ष्य मूढ़
    और विपथ हो गया ? क्या भाषा
    निस्तेज,अचेत हो गई है? क्या
    साहित्य लेखन महज़ एक शगल
    एक रिवायत हो कर रह गया है?
        बैठे-बैठे आज यही कुछ मन
    में आया और कह गया। 
    हालांँकि यह सच है कि आज
    कहा जाता हुआ लग कर भी यह
    वस्तुत: पिछले वर्षों के निरंतर
    अतीत में निरन्तर घेरे खलता
    रहा है। मुखर स्वरूप में एक मूर्त
   बिंब के तौर पर यह आज आया
   है कि वक्त का,व्यवस्था का यह
   कैसा विशाल काला हाथी है जो
   तमाम इतने सचेष्ट सक्रिय
   विचारक,नेता,कवि-कलाकार के
   होते हुए भी चैन से बैठा हुआ है !
   ये सब के सब बेअसर क्यों लगते
   हैं? भाषा से बाघ ग़ायब क्यौं है।
   भाषा बकरी कब हो गई ?
      और
   यह कोई अचानक हो गया भी
   नहीं लगता। चिंता यह है। जायज़
   है या नहीं यह वक्त ही तय करे।
                      |🔥|
            #उचितवक्ताडेस्क।

                  गंगेश गुंजन

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