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सोच समझ कर लिक्खा कर
दिल से दिल तक बोला कर।
•
लफ़्ज़ों को ख़ंज़र न बना
लहू न' काग़ज़ उजला कर।
•
रस्ते और हैं इफ़रात
काँटों पर क्यूंँ टहला कर।
•
जो भी कर रूहानी कर
वफ़ा यार भी पहला कर।
•
तुल जा ख़ुद यही बेहतर
रिश्ते ना यूंँ तोला कर।
•
घर,मन्दिर मस्जिद गुम्बद
ऊँचा तनिक मझोला कर।
•
मौसम अपने हाथ में धर
जी को उड़न खटोला कर।
•
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। ३० अगस्त,२०२२.
Tuesday, August 30, 2022
सोच समझकर लिक्खा कर : ग़ज़लनुमा
Friday, August 26, 2022
चन्द अशआर
|⛺|
यह तो कुछ भी नहीं उस दिन
देखना रुतवा मेरा
उठाने आएगा ख़ुद आसमां
मुझको हथेली पर।
.
मुल्क को मिल्कियत समझें कुछ
सियासी लोग अपनी।
बाख़बर हुशियार रहिएगा शरीक़े
ग़ालिबों से। .
लोग अपना ही बदल लेते हैं
उन्वाने किताब
मुल्क में अब नहीं बिकने लगे हैं
उनकेे रिसाले
.
बाज़ार में आया नहीं है कोई नया
ब्राण्ड
नया एक दिल है मेरा मैं इसे
बेचूंँगा नहीं।
.
चल तो जाती है किसी तरह से
रोटी और दाल
मगर रिश्ते मेरी क्रय-शक्ति के
बाहर हो गये हैं।
.
हमारे दौर में सबसे बड़ा ईमान
ग़ायब है।
बची मोटर में आदमी की पेट्रोल
नहीं है।
.
कोई दुखड़ा लगे सुनाने तो
इज़्ज़त से सुनना
मत करना नाराज़ दुःख ख़ुद्दार
बहुत होता है।
.
हाथ में लिफ़ाफ़ा देखा नहीं कि
दोस्त कुछ अपने
झपट के हाथ से ख़त भाग जाते
थे कहीं, कैंटीन।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
Thursday, August 18, 2022
शे'र
कहीं से ढूँढ़ कर लाओ मुझको लोगो !
सुबह ही निकला था लौट कर नहीं आया।
🏚️
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
Monday, August 15, 2022
मैं १५ अगस्त मनाता हूंँ
मैं पन्द्रह अगस्त मनाता हूंँ
जैसे कोई बहुत ग़रीब बाप क़र्ज़ लेकर भी बेटी का व्याह धूमधाम से करता है, मैं १५ अगस्त मनाता हूँ।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडैस्क। १५.०८.२०२२
Sunday, August 14, 2022
लेखक आलोचक विवाद-संवाद
* लेखक-आलोचक विवाद-संवाद !
|🌀|
जिस क्षुब्ध मनोयोग और जितनी
गंभीरता से आजकल लेखक-
आलोचक-धर्म और परस्पर
सम्बन्ध पर चर्चा चल पड़ी है इन्हें
देखते और पहचानने की कोशिश
करते हुए मेरे मन में यह प्रश्न उठा
है कि आख़िर इसकी ज़रूरत क्या
है ? और जैसा समय चल रहा है
उसमें कहने की आवश्यकता
नहीं,मन में यह भी सवाल उठता
है कि व्यापार जगत में घमासान
चल रहे कॉर्पोरेट और ब्रॉडिंग
की लड़ाई के समान ही तो नहीं
यह भी।
अर्थात उत्पाद और विज्ञापन के
पारस्परिक संबंध के आधार पर
बाजार या पाठक-निर्माण की
प्रतिद्वन्दिता ? और ऐसा सोचना
कोई अस्वाभाविक भी नहीं लगता
है। क्यों न मान लेना चाहिए।
तो आलोचना के लिए लेखक
ऐसी बेचैनी क्यों महसूस करता
है ? बुनियादी प्रश्न है कि उसने
जब लिखना शुरू किया तो क्या
आलोचक से पूछ कर?हाँ लेखक
कई बार प्रकाशक की मांँग पर भी
सप्लाई-लेखन किताब करता है
जिसे प्रकाशक सज धज सेछापते
हैं। सब जानते हैं।
आजकल बाजार में कोई सामान/
वस्तु संबंधित व्यापारी पहले
उपभोक्ता-रुचि,रुझान का
सर्वेक्षण करवाता है तभी बाज़ार
में माल उतारता है।
लेखक क्या अपने पाठक की रुचि
का ऐसा पूर्व सर्वेक्षण का कार्य
करके लिखता है ? और अगर
नहीं तो फिर उसे इसकी क्या
अपेक्षा रहती है कोई आलोचक
उसकी किताब की आलोचना
करें ? लोकप्रिय साहित्य का
विचार दीगर क्षेत्र है। ऐसे में मांँग
और आपूर्ति के कार्य-कारण
संबंधित रचना और आलोचना का
लगभग वैसी ही युक्ति बनने लगती
है और तब दोनों में जिसका पलड़ा
भारी हुआ उपभोक्ता उसकी तरफ
आते हैं।
इसीलिए बतौर लेखक मैं ख़ुद से
यह प्रश्न सख़्ती से करने लगा हूंँ
कि
'आलोचना आवश्यक ही क्यों है ?'
यद्यपि,
आलोचना भी किसी रचना का
अपरिहार्य आनुषंगिक अंग है,मैं
इस मर्यादा को जानते और मानते
हुए यह प्रश्न उठा रहा हूँ।
आज के परिवेश/वातावरण में
प्राचीन और नैतिक मानस को
उत्तरोत्तर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
समझने और बरतने की जरूरत
है। लेकिन किस समझ के साथ ?
रचना-आलोचना-पाठक परिप्रेक्ष्य
में याकि जिनीस-बाज़ार-उपभोक्ता
के दायरे में? यह लेखक को तय करना है। आलोचक या पाठक की
इसमें कोई ख़ास भूमिका नहीं अतः दोष नहीं है।
यदि आपका लिखा साहित्य है तो
वह आलोचना-विवेचना के बिना
भी साहित्य ही रहेगा क्योंकि वह
अक्षरों में लिखा जा चुका है।
प्रकारान्तर से काल पर उत्कीर्ण
है। और यदि उपभोग की वस्तु है
तो अपने टिकाऊपन अर्थात आयु-
सीमा के साथ लोकरुचि-बाज़ार और सप्लाई के दायरे में
तो चलती रहेगी फिर एक दिन
सनलाइट साबुन या कोई कच्छा-
बनियाइन हो जाएगी। चुनना आपको है।
*
बहरहाल मैं तो आज अपनी ऐसी
ही आत्मग्लानि और पछतावे में
यह लिखने को विवश हुआ कि
मेरा हिन्दी कथा संग्रह 'भोर' भी है
जिसका लोकार्पण कुछ वर्ष पहले
प्रो०नामवर निवास पर उनके ही
द्वारा हुआ था और सौभाग्य से
डॉ.गंगा प्रसाद विमल,प्रो०
देवशंकर नवीन,प्रशस्त कवि मदन
कश्यप जी,जेएनयू के प्रो. सुशान्त
प्रो.सविता ख़ान समेत अन्यान्य
विशिष्टों की उपस्थिति में सम्पन्न
हुआ था।
कालान्तर में पुस्तक कुछेक तो
विद्वानों के औपचारिक स्नेहाग्रह
पर और कतिपय महोदयों को मैंने
अपने आग्रह से स्वयं पुस्तक दी
थी।कतिपय अनुज पीढ़ीके लेखक
को भी।
अब उसके कई वर्ष बीत चुके।
इन महानुभावों को पुस्तक की सुध
न रही। लिखना या कुछ कहना भी
ज़रूरी नहीं लगा। अतः अब
स्वच्छ मन और स्वविवेक से मैं उन
कुल चार-छ: विद्वान आलोचकों से
इस पर लिखना स्थगित कर देने के
विनम्र आग्रह के साथ अपना उक्त
हिन्दी कहानी संग्रह सादर वापिस
लेता हूँ जो विद्वान कदाचित् देखते
ही देखते स्वर्गीय आचार्य नलिन
विलोचन शर्मा,डॉ.नामवर सिंह,
डॉ.राम विलास शर्मा,प्रो.नगेन्द्र
और प्रो.सुरेंद्र चौधरी से भी बड़े हो
गये।
साथ ही,
उन विद्वान आलोचकों एवं प्रमुख
हिन्दी पत्रिकाओं के सम्पादकों का
हृदयसे कृतज्ञ हूँ जिन्होंने
यथासमय 'भोर' पुस्तक पर लिखा
और प्रकाशित करने का सहयोग
किया। स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएंँ !
💐💐
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। १४ अगस्त,२०२२.
Monday, August 8, 2022
एक पुरानी ग़ज़लनुमा
🛖
ग़ज़लनुमा! एक पुरानी
क़िस्मत क़िस्मत रो-रो कर के
जीना भी क्या जीना है।
ज़हर को आशीर्वाद समझ कर
पीना भी क्या पीना है।
जो कहते हैं पूर्व जनम के कर्मों
का फल भोगते तुम
दोस्त समझ लो उन्होंने ही
सबकुछ तुमसे छीना है।
मौसम की रंगीन मिज़ाजी कुछ
दीवारों में है रखेल
उसे मुक्त करने का यारो यही तो
सही महीना है।
इनके सुनहले जाल को समझो
मंदिर-मस्जिद-गिरजा घर
इनके धर्म अँधेरे में अब ख़ूब
सम्भल के चलना है।
|🔥|
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
Saturday, August 6, 2022
एक मित्र सलाह
💐
एक मित्र सलाह !
ख़ामख़्वाह घर में बैठे बोर हो रहे
हों चाहे ज़बरदस्ती भी बौद्धिकता
न उपज पा रही हो,दाम्पत्य क्लेश
से,मित्र की उदासीनता से या
जिस भी स्थिति में हों कुछ नहीं
सोचिए बस फेसबुक पर हिंदी-उर्दू
भाजपा-कांग्रेस-कम्यूनिस्ट,आदर्श
और बिक गई पत्रकारिता पर एक
दो जुमले छोड़ दीजिए। बस।
दो-तीन दिन आराम से रहिए
साहित्य संस्कृति और राजनीति
के सब रस की हज़ार दो हज़ार
फेसबुक प्रतिक्रियाएँ पढ़ते हुए
चैन से पान-ज़र्दा चबाइए,मनमर्जी
खाइए पीजिए मस्त रहिए।
तब तक तेज़ प्रगति कर रहे
देश काल में मौजूद शैक्षणिक
पतन, स्कूलों में छुट्टी का दिन
सरकारी जीएसटी की गूढ़
विसंगति भ्रष्टाचार आदि पर कई
जलते-उबलते हालात पैदा हो
लेंगे। कोसते रहिएगा।कोई चिन्ता
नहीं। गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
Friday, August 5, 2022
कुछेक हालिया अशआर
🔥| ..
इससे पहले कि खु़शामद लगे
लगने यारी
बदल लेना चाहिए लहजा और
वफ़ादारी।
.
ज़रा से शौक़ में ज़्यादा मगर
सदाक़त में
हम भी मारे गये फ़ितरते
वफ़ादारी में।
.
उतने बेचारे भी नहीं हैं जितना
उन्हें समझते हो
किसी सुबह उठ्ठेंगे लेंगे अंगड़ाई
इन्क़्लाब होगा।
.....🔥..
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।