* लेखक-आलोचक विवाद-संवाद !
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जिस क्षुब्ध मनोयोग और जितनी
गंभीरता से आजकल लेखक-
आलोचक-धर्म और परस्पर
सम्बन्ध पर चर्चा चल पड़ी है इन्हें
देखते और पहचानने की कोशिश
करते हुए मेरे मन में यह प्रश्न उठा
है कि आख़िर इसकी ज़रूरत क्या
है ? और जैसा समय चल रहा है
उसमें कहने की आवश्यकता
नहीं,मन में यह भी सवाल उठता
है कि व्यापार जगत में घमासान
चल रहे कॉर्पोरेट और ब्रॉडिंग
की लड़ाई के समान ही तो नहीं
यह भी।
अर्थात उत्पाद और विज्ञापन के
पारस्परिक संबंध के आधार पर
बाजार या पाठक-निर्माण की
प्रतिद्वन्दिता ? और ऐसा सोचना
कोई अस्वाभाविक भी नहीं लगता
है। क्यों न मान लेना चाहिए।
तो आलोचना के लिए लेखक
ऐसी बेचैनी क्यों महसूस करता
है ? बुनियादी प्रश्न है कि उसने
जब लिखना शुरू किया तो क्या
आलोचक से पूछ कर?हाँ लेखक
कई बार प्रकाशक की मांँग पर भी
सप्लाई-लेखन किताब करता है
जिसे प्रकाशक सज धज सेछापते
हैं। सब जानते हैं।
आजकल बाजार में कोई सामान/
वस्तु संबंधित व्यापारी पहले
उपभोक्ता-रुचि,रुझान का
सर्वेक्षण करवाता है तभी बाज़ार
में माल उतारता है।
लेखक क्या अपने पाठक की रुचि
का ऐसा पूर्व सर्वेक्षण का कार्य
करके लिखता है ? और अगर
नहीं तो फिर उसे इसकी क्या
अपेक्षा रहती है कोई आलोचक
उसकी किताब की आलोचना
करें ? लोकप्रिय साहित्य का
विचार दीगर क्षेत्र है। ऐसे में मांँग
और आपूर्ति के कार्य-कारण
संबंधित रचना और आलोचना का
लगभग वैसी ही युक्ति बनने लगती
है और तब दोनों में जिसका पलड़ा
भारी हुआ उपभोक्ता उसकी तरफ
आते हैं।
इसीलिए बतौर लेखक मैं ख़ुद से
यह प्रश्न सख़्ती से करने लगा हूंँ
कि
'आलोचना आवश्यक ही क्यों है ?'
यद्यपि,
आलोचना भी किसी रचना का
अपरिहार्य आनुषंगिक अंग है,मैं
इस मर्यादा को जानते और मानते
हुए यह प्रश्न उठा रहा हूँ।
आज के परिवेश/वातावरण में
प्राचीन और नैतिक मानस को
उत्तरोत्तर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
समझने और बरतने की जरूरत
है। लेकिन किस समझ के साथ ?
रचना-आलोचना-पाठक परिप्रेक्ष्य
में याकि जिनीस-बाज़ार-उपभोक्ता
के दायरे में? यह लेखक को तय करना है। आलोचक या पाठक की
इसमें कोई ख़ास भूमिका नहीं अतः दोष नहीं है।
यदि आपका लिखा साहित्य है तो
वह आलोचना-विवेचना के बिना
भी साहित्य ही रहेगा क्योंकि वह
अक्षरों में लिखा जा चुका है।
प्रकारान्तर से काल पर उत्कीर्ण
है। और यदि उपभोग की वस्तु है
तो अपने टिकाऊपन अर्थात आयु-
सीमा के साथ लोकरुचि-बाज़ार और सप्लाई के दायरे में
तो चलती रहेगी फिर एक दिन
सनलाइट साबुन या कोई कच्छा-
बनियाइन हो जाएगी। चुनना आपको है।
*
बहरहाल मैं तो आज अपनी ऐसी
ही आत्मग्लानि और पछतावे में
यह लिखने को विवश हुआ कि
मेरा हिन्दी कथा संग्रह 'भोर' भी है
जिसका लोकार्पण कुछ वर्ष पहले
प्रो०नामवर निवास पर उनके ही
द्वारा हुआ था और सौभाग्य से
डॉ.गंगा प्रसाद विमल,प्रो०
देवशंकर नवीन,प्रशस्त कवि मदन
कश्यप जी,जेएनयू के प्रो. सुशान्त
प्रो.सविता ख़ान समेत अन्यान्य
विशिष्टों की उपस्थिति में सम्पन्न
हुआ था।
कालान्तर में पुस्तक कुछेक तो
विद्वानों के औपचारिक स्नेहाग्रह
पर और कतिपय महोदयों को मैंने
अपने आग्रह से स्वयं पुस्तक दी
थी।कतिपय अनुज पीढ़ीके लेखक
को भी।
अब उसके कई वर्ष बीत चुके।
इन महानुभावों को पुस्तक की सुध
न रही। लिखना या कुछ कहना भी
ज़रूरी नहीं लगा। अतः अब
स्वच्छ मन और स्वविवेक से मैं उन
कुल चार-छ: विद्वान आलोचकों से
इस पर लिखना स्थगित कर देने के
विनम्र आग्रह के साथ अपना उक्त
हिन्दी कहानी संग्रह सादर वापिस
लेता हूँ जो विद्वान कदाचित् देखते
ही देखते स्वर्गीय आचार्य नलिन
विलोचन शर्मा,डॉ.नामवर सिंह,
डॉ.राम विलास शर्मा,प्रो.नगेन्द्र
और प्रो.सुरेंद्र चौधरी से भी बड़े हो
गये।
साथ ही,
उन विद्वान आलोचकों एवं प्रमुख
हिन्दी पत्रिकाओं के सम्पादकों का
हृदयसे कृतज्ञ हूँ जिन्होंने
यथासमय 'भोर' पुस्तक पर लिखा
और प्रकाशित करने का सहयोग
किया। स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएंँ !
💐💐
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। १४ अगस्त,२०२२.
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