Sunday, August 29, 2021

तानाशाह और हिंसा का विकल्प

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      हिंसा तानाशाह का प्रिय
      आहार है।उसे हिंसा का
      विकल्प चाहिए ही नहीं।विस्मय
      क्या कि अपनी महत्त्वाकांँक्षा
      के अलावा उसके आगे कोई
      विचार,विचार रहता ही नहीं।
                     
     जिस दिन हत्या का अहिंसक
     विकल्प मिल जाएगा उस दिन
     लोकतंत्र निर्दोष होकर सबजन
     आदर्श राज्य संस्था बन जाएगा
     इसमें शायद ही किसी को कोई
     संदेह हो।          
            #उचितवक्ताडेस्क।

                  गंगेश गुंजन

Friday, August 27, 2021

साधारण और श्रेष्ठ

         ।।  सामान्य और श्रेष्ठ ।।

   किसी बहुत विशेष दिन-तिथि में जन्म लेकर भी साधारण मनुष्य,उस दिन-तिथि को ऐतिहासिक नहीं बना पाता। जबकि महान् व्यक्ति अपने मरण से भी किसी साधारण तिथि-दिन को ऐतिहासिक बना जाते हैं।        |🌍|      

           #उचितवक्ताडेस्क। 

                 गंगेश गुंजन

Monday, August 23, 2021

विचार भी बूढ़ा होता है !

                     |🌳|        
         विचार भी बूढ़ा होता है  !
                      *
   समाज का ऊंँचा से ऊंँचा,सुन्दर
   से सुन्दर सिद्धांँत भी बिना प्रश्न
   और किसी अड़चन के,किसी
   मान्य आस्था की पुरानी निर्धारित
   लीक पर बहुत दिनों तक चल-
   चल कर रूढ़,मूढ़ या जड़ हो ही
   जाता है।
   और विचार जब रूढ़ हो जाता है
   तो वही सुन्दर से सुन्दर सिद्धांँत
   एवं बुरे से बुरा नेता की तरह बन
   जाता है। ऐसे में ही राजनीतिक
   विचार-दर्शन आदर्श भी
   पतनशील हो कर रहते हैं ।
      कहा ही जा सकता है कि जड़
   विचार भी समाज को उसी तरह
   हाँकने लगता है जैसा कोई बुरा
   राजनेता।
                        **   

                 गंगेश गुंजन         
            #उचितवक्ताडेस्क।

Wednesday, August 18, 2021

मिल जाय यदि क़िस्मत।


      मिल जाए तुम्हें क़िस्मत,
      जिस दिन ये
      समझ लेना।
      औरों के ग़ैर थे ही
      अपनों के भी हो गए अब।
           #उचितवक्ताडेस्क।

                गंगेश गुंजन।

Sunday, August 15, 2021

मजनू दिल रहनुमा

   जिस पल जिस दिन मजनूं-दिल              रहनुमा मिल जाएगा
   क़ाफिला बिखरा हुआ एक                कारवाँ बन जाएगा।
              #उचितवक्ताडेस्क।  

                   गंगेश गुंजन 

Saturday, August 14, 2021

स्वतंत्रता और कविता

||       स्वतंत्रता और कविता       || 
                      *
    परतंत्र भाषा की भी अच्छी
    कविता स्वाधीन होती है। स्वतंत्र
   भाषा की सही कविता तो चेतना
   की स्वाधीनता का भावी स्वरूप
   ही होती है।
      एक मात्र कविता में ही प्रायः
    मनुष्य का यह कला-सौष्ठव
    निरन्तरता से प्रतिष्ठित रहता है।
                 जयहिन्द !
           #उचितवक्ताडेस्क।

                गंगेश गुंजन

Sunday, August 8, 2021

प्रेम में उपहार

                 आजकल
प्रेम में उपहार परोक्ष रूप से सम्बन्ध में  निवेश जैसा लगता है ।
                   |🌼|
         #उचितवक्ताडेस्क।

               गंगेश गुंजन

Wednesday, August 4, 2021

दूब मध्यवर्गीय

🌊       
            मध्यवर्गीय दूब !
                   🌿
    आज मुझे अभी सुबह मैं
    अपेक्षाकृत बहुत मुलायम दूब
    पर चलते-टहलते हुए सहसा हरि
    उप्पल जी की याद हो आई।
    वे भारतीय नृत्य कला मंदिर, 
    पटना के संस्थापक आजीवन
    अध्यक्ष थे। निश्चित ही संगीत-
    सांस्कृतिक परिवेश परिवेश को
    उनसे बहुत कुछ मिला। इस क्षेत्र
    में बिहार और खासकर पटना
    को उनकी देन अपूर्व है। इसके
    लिए उन्हें पटना के इतिहास में
   आदरपूर्ण स्थान भी मिला और
   जो उचित भी है। भारत सरकार
   की पद्मश्री से पुरस्कृत भी थे।
   परंतु प्रसंग ऐसा कि मुझे उनकी
   एक नकारात्मक याद आई ! परंतु
  आदरपूर्वक ही,किसी भी
  अवहेलना-अवमानना वश नहीं।
    मैंने अभी-अभी कहा कि आज
  सुबह मुलायम दूबों पर चलते
  हुए।अनादर या विरक्ति की
  भावना से नहीं। सिर्फ अपनी एक
  वैचारिक विकलता में। यह सवाल
  हठात् आया कि सामाजिक वर्ग
  भेद के प्रकार का विचार कहीं दूब
  में भी तो नहीं होता है-’सामन्त
  वर्गीय दूब' और सर्वहारा वर्ग ?
  आपको हंँसी आ सकती है । परंतु
  यह मुझे इतने वर्षों बाद सवाल
  की तरह आया कि हम दूब में भी
  ‘सामंत दूब’ पर चलने के 
  अधिकारी नहीं। हैं तो बस यही
  सर्वहारा दूबों पर ही चलने का
  हक़ रखते हैं। हरि उप्पल साहब ने
  भारतीय नृत्य कला मंदिर के
  मुख्य द्वार और मुख्य सभागार
  प्रवेश के बीच की जगह को बहुत
  ही आकर्षक लंबे-लंबे और
  कोमल हरी दूबों की सज्जा से
  सजा रखा था। बहुत ही प्यारा
  और आकर्षक लगता था। बल्कि
  उस समय तो मोहित करता था।
  सामने ही आकाशवाणी पटना का
  भी मुख्य द्वार होने से और विविध
  सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आमंत्रित
  होने के कारण भी,जब-जब जाऊंँ
  तो हर बार इच्छा हो कि दो-चार-
  दस क़दम नंगे पैर इन दूबों पर
  चलूंँ ! इस लॉन में एक-दो चक्कर
  लगाऊंँ। रख-रखाव से वहांँ प्रतीत
  होता था कि प्रतिबंधित है।
  इर्द-गिर्द भले ही निगाहों का
  लेकिन चौकीदारों का सुरक्षा
  कवच तैनात रहता। ख़ुद तो हरि
  उप्पल जी को कभी-कभार उस
  पर आराम कुर्सी में बैठे चुरूट/
  पाइप पीते हुए देखा जा सकता
  था किंतु और किसी को कभी भी
  उन दुबों पर पैर रखते नहीं देखा।
  बिना कहे भी एक वर्जित प्रदेश
  था जो आकर्षित तो करता था
  परंतु स्वीकार नहीं कर सकता
  था। सो स्थिति ऐसी थी कि बिना
  अनुमति के हम अपने मन का
  वह कर नहीं सकते थे।उप्पल जी
  से साधारणतः स्नेह पूर्ण और
  सहज संबंध ही था।
    एक शाम मुख्य द्वार पर ही मिल
  गये। कुशल-क्षेम शिष्टाचार में
  'कैसे हो गुंजन !...काफ़ी दिनों
  बाद दिखाई दिये।कहीं बाहर गये
  थे क्या ?’ इत्यादि,स्नेह सौजन्य से
  पूछा।उत्तर देते और अवसर
  सहज देखते हुए मैंने अपनी इच्छा
  बताते हुए कहा-
  'भाई जी,मैं इन दूबों पर थोड़ा
  चलना चाहता हूंँ ।’
  मेरी आशा के विपरीत उन्होंने
  लगभग विरक्त भाव से कहा-
  'नहीं ऐसा करने की अनुमति नहीं
  है। मैं किसी को इस दूब पर नहीं
  चलने देता।’
  ’मैं इन पर चप्पल पहन कर नहीं
   चलूंँगा।दूब पर नंगे पैरों तलवों से
   चलने की बड़ी इच्छा है। इससे
   दूबों की कोमलता को कोई
   नुकसान नहीं होना चाहिए।’ मैंने
   दोबारा इसरार किया।
   उन्होंने उसी रुक्षता से इनकार
   किया।और मैं अप्रतिभ हुआ लौट
   आया ‌।
     असल में उस प्रजाति की दूब
   पटना में उस समय दुर्लभ और
   अकेली दिखाई देती थी।शायद
   राजभवन में भी थी। अब २५
   जनवरी तक उसकी प्रतीक्षा कौन
   करे ‌?
    ऊपर से उस माहौल के अपने
   प्रोटोकालिक नख़रे थे। नंगे पैरों
   दूब पर चलने का साधारण जन
   आनंद असंभव रहता। उसकी
  ख़लिश रह गई मन में।मगर ...
  संयोग से,जहां तक याद आता है,
  वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन का कोई
  विशेष रात्रि-भोज था जिसमें मैं
  भी आमंत्रित था। मुख्य पटना के
  बहुत बाहर जाकर पटना-दानापुर
  मार्ग पर शायद उनका कोई एक
  फॉर्म हाउस है।(उस समय)।वहांँ
  जाने का अवसर मिला। वहांँ जो
  गया तो देख कर मुझे मेरे हर्ष की
  इंतिहा नहीं रही। वहांँ तो लॉन में 
  भारतीय नृत्य कला मंदिर की
  समृद्ध सामन्त सम्भ्रान्त दूबों से
  भी अधिक उन्नत विशिष्ट और
  मोहक प्रजाति की दूब तमाम
  बिछी हुई थी ! मेरे लिए संयम या
  धीरज रखना मुश्किल हो गया।
  मैंने चप्पल उतारी और बिजली-
  बत्तियों की आकर्षक रोशनी में
  खिली-सी,बिछी हुई मुलायम दूबों
  के लान में मैं बेधड़क चलने लगा।
  जी भर कर देर तक नंगे पांँव उन
  दूबों पर चलता रहा ! ...उस वक्त
  मिले अपने संतोष का आनन्द
  आज सुबह अभी-अभी,पारस
  टियरा सोसायटी के इस उद्यान में
  दूबों पर चलते हुए शिद्दत से याद
  आया !
  आज मैं उसे एक प्रश्न की तरह
   झेलता हूंँ।
   'तो क्या,दूबों का भी बुर्जुआ और
    सर्वहारा वर्ग होता है ?
        आपको बताना ही चाहिए कि
    यहांँ पारस टियरा की दूबें,
    मध्यवर्गीय दूबें हैं !
                     *
              गंगेश गुंजन
            ३१.०७.२०१८.

           #उचितवक्ताडेस्क।

Sunday, August 1, 2021

ग़ज़ल नुमा। वो किधर गया

                      🌍 |
    वो उस तरफ़ अगर गया होगा
    जानिए और मर गया होगा।

    हम ये समझे समझ है उसमें
    अबके अपने घर गया होगा।

    आशियाँ कहाँ कहाँ मयख़ाना
    दरम्याँ क्यूँ ठहर गया होगा।

    चल रहा था उसूल पर चर्चा
    बाज मौक़े प'अड़ गया होगा।

    अब सुहाए भी कुछ नहीं उसको
   अपनी जिद ही पकड़ गया होगा।

    नाक फटती है आम लोगोें की
    हाले माहौल सड़ गया होगा।

    ठीक इतनी भी नहीं बेज़ारी
    इस अहद में किधर गया होगा।

              गंगेश गुंजन।
                    ##

           #उचितवक्ताडेस्क।