कई दुःख की कहानी लिख गया है। ख़ुशी की दास्तां कुछ गढ़ गया है। बहुत था बोझ कांधे सिर प' उसके थके धीमे कदम से घर गया है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
कई दुःख की कहानी लिख गया है। ख़ुशी की दास्तां कुछ गढ़ गया है। बहुत था बोझ कांधे सिर प' उसके थके धीमे कदम से घर गया है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
पृथ्वी गुड़का रहलि स्त्री !
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पुरुख कहि-कहि क'रहैए
स्त्री सहि-सहि क' रहैए।
पुरुष बहुत कम रहैए
स्त्री बेसी सं बेसी रहैए।
किछु पुरुष किछु ने सहैए
स्त्री एक टा शब्द सं ढहि जाइए
स्त्री आखिरी बेर किछु ने सहैए।
नहि रह' देबै,स्त्री तैयो रह' दैए।
पुरुष हर बरद, गाड़ी घोड़ा हांकि सकैए
स्त्रीक मूड भेलै तं पृथ्वी के नचा दैए।
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गंगेश गुंजन।
२७.१२.'२०.
विचार की आयु !
अवश्य ही विचार भी अमर नहीं है लेकिन वह मनुष्य की तरह नश्वर नहीं है। विचार की आयु हर हाल विचारक से लम्बी और दीर्घायु होती है। लेकिन प्रच्छन्न रूप में विचार में ही उस विचारक की आयु रहती है।जबतक कोई विचार वर्तमान और भावी सब समाज के लिए उपयोगी और प्रासंगिक बना रहेगा उसकी आयु उतनी कालजयी होगी। इसी अर्थ प्रसंग में विचार मनुष्य के बाद भी जीवित रह जाता है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
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यह जो दुनियादारी है समझें सब अख़बारी है।
सत्ता सब दिन कहती है लोकतंत्र सरकारी है
सीधा हक़ मेरा लेकिन उनकी पहरेदारी है।
हैलिकॉप्टर पर चलता लोकतंत्र सद्चारी है।
सत्ता के गलियारे में ज़्यादा तो दरबारी है।
और इधर अन्जान अवाम इसकी क़िस्मत न्यारी है
रौशन दिन चुंधियाते हैं अंधियारी लाचारी है।
वो उसको कहता है वो भ्रष्ट और व्यभिचारी है।
देसी लोकतंत्र में अब वैश्विक बुद्धि दुलारी है।
सत्ता या है भले विपक्ष भाषा अजब दुधारी है।
झा मंडल ख़ां शर्मा सिंह देश'ब महज़ तिवारी है।
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गंगेश गुंजन।
#उचितवक्ता डेस्क।
०२.१२.'२०.पा.टि-८.
शे-एर
छलनी होता रहे ख़ार से जिस्म मगर उफ भी न करे।अपने अहसासों से हमको ये भी ख़ूब तवक़्को है।
गंगेश गुंजन।०९.१०.'२०.पारस टि-८.
#उचितवक्ताडेस्क।
ग़ज़ल >>>>>>>
पिछली रुत की बात करे वो फूलों की बरसात करे वो।
वक़्त बड़ा मनहूस सामने ढल जाने की रात करे वो।
यही करिश्मा तो है उसका सहरा भी सौग़ात करे वो
किस सुकून से ठहरे मन को सैलाबी जज़्बात करे वो।
उथल-पुथल की दुनियादारी सड़ी सियासी बात करे वो।
सहर ख़ुशनुमा याद आ गयी। ख़िज़ां मिरी बरसात करे वो।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।
रोज़ नहीं होती कविता
दिनचर्या की तरह कविता रोज़ नहीं लिखी जा सकती है।छन्दोबद्ध कविता तो और भी नहीं। डायरी और निर्वस्त्र विचार के सिवा यों तो सुस्वादु सुपाच्य गद्य भी नहीं लिखा जा सकता।
हां कोई पहला ड्राफ़्ट तो शौचालय में भी किया जा सकता है।
गंगेश गुंजन
#उचितवक्ताडेस्क।