Friday, August 31, 2018

देश फिर से दास ना हो यह अंदेशा है

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देश फिर से दास ना हो  ये अंदेशा है।
देखकर के सियासत का रंग जैसा है।

वे बहुत मशरूफ़ संसद संविधानों में।
क्या पता उनको सभी जा डर कैसा है?
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-गंगेश गुंजन
रचना: २०१३ ई.

Thursday, August 30, 2018

सीबीआई !

कभी-कभी लगता है कि देश में कुछ संस्थाएं जैसे सीबीआई अगर नहीं बनी होती तो इस देश में लोकतंत्र के प्रतिपक्ष का भविष्य सदा-सर्वदा अंधेरे में ही डूबा रहता। खास तौर से सत्ताच्युत दलों की संजीवनी ही है यह सीबीआई।अब आप देखिए कि जो भी विपक्ष में होता है,उसके लिए सीबीआई,सरकार को घेरने का एक औज़ार-झुनझुना बनकर हाथ लग जाता है। सीबीआई सरकारी झुनझुना है,सुग्गा है,मैना है या पालतू कोई जानवर ! यह तो समय पर निर्भर रहता है परंतु साधारणतया राजनीतिक दलों की जो वैचारिकताएं हैं और उनके दलीय आग्रह-दुराग्रह हैं उसमें,CBI तत्कालीन सरकार की है तब भी देश की सभी मुद्दा विहीन राजनीतिकों का प्राण है और जब प्रतिपक्ष ही सरकार होकर देश के सिंहासन पर बैठे तो वैसे अवसरों पर उसका अधिकृत प्राण है। मगर है दिलचस्प। कम से कम सभी पार्टियों के लिए सीबीआई सरकारी चाबुक या शासकीय नकेल का सदा तैयार मुद्दा तो है। यही तो वह छायादार हरा महावृक्ष है जिसके नीचे राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार बैठ कर,जी भर सुस्ता कर नई ताकत और ऊर्जा प्राप्त करती हैं।अपने-अपने सत्ताच्युत दुष्काल की गर्म तप्त दोपहरी गुज़ारती हैं।इसी की छाया में विश्राम करके अगले आम चुनाव की अपनी राह पकड़ लेती हैं ।
  बाकी सीबीआई की वास्तविकता तो‌ यह है कि किसी भी भारी घोटाले पर जब निष्पक्ष जांच की जरूरत होती है तो तमाम विपक्ष भी प्रामाणिक जांच और अपेक्षित दण्ड के लिए सीबीआई से ही जांच कराने के मोर्चे लेता है। यह फंडा आज तक मेरी समझ में नहीं आया।
    लगता है कि, हमारे लोकतंत्र‌ में बहुतों से बहुत ऊपर है -सीबीआई ! यह बड़ी हैसियत है।
-गंगेश गुंजन।

Monday, August 27, 2018

इस लोकतंत्र को अब 'विदेह' प्रधानमंत्री चाहिए

सत्ता की राजनीतिक व्यवस्थाओं में लोकतंत्र अनुपातत: अच्छा है परंतु अलोकप्रियता के जोखिम भरे हुए तत्त्व सबसे अधिक इसी लोकतंत्रीय सांचे-ढांचे में ही हैं। स्वतंत्रता के बाद अधिकतर फेल प्रधान मंत्रियों के इतने लंबे अनुभव की रोशनी में कभी-कभी तो मुझे लगता है कि अब कोई  'विदेह चेतन’ प्रधान चाहिए। 'देह चेतन' नहीं। लोकतन्त्र में राजा तो नहीं,प्रधान मंत्री। कर्तव्या ऐसे लोकतंत्र में राजा का ही संवैधानिक अनुवाद-पद प्रधान मंत्री भी माना ही जा सकता है।और सो बनाता है विश्व बाज़ार ! प्रत्यक्ष या परोक्ष ऐसे या वैसे। इस विचार से या उस विचार से। सो देह-चेतना वाले किन्हीं भी औसत महान् इन्सान प्रधान मंत्री से तो ये जोखिम उठाकर सत्ता प्रमुख बने रहना असंभव सिद्ध हो चुका है। अब सत्तर साल से अधिक का यह बुढ़ाया लोकतंत्र पराजित भले नहीं किंतु थकी हुई आवाज़ में कह तो रहा ही है। सुनना चाहिए।
   इसीलिए अब कोई  ‘विदेह चेतन’ मानवीय नेतृत्व दरकार है!
   कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले युग में संसार को गणतंत्र का उपहार देने वाले (बिहार) मिथिला
के ‘विदेह’ फिर लोकतंत्र की अगुआई करने आयें।
इसे आप मेरा मिथकीय विश्वास भर मत मानिए।

गंगेश गुंजन।
२७ अगस्त,२०१८ई.

Tuesday, August 21, 2018

लिए लुकाठी हाथ !

लिए लुकाठी हाथ !
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कबीराहा चरित्र के व्यंग्य की यह प्राकृतिक लाचारी है कि वह हरदम सत्ता के विरुद्ध होता है। हर वर्तमान में सही व्यंग्य, संपन्नता सामर्थ्य उसके दुरुपयोग और जनसाधारण की पीड़ा के हवाले से ही किया जा सकता है और किया जाता रहा है । साहित्यिक व्यंग्य की यही सार्थकता है। इसलिए हर वर्तमान में वह सत्तासीन राजनीतिक कार्यवाहियों का प्रतिरोध करने के लिए खड़ा होता है ।तब जाहिर है कि वह व्यंग्य सत्ता के द्वारा प्रताड़ित और दंडित किया जाता ही रहता है। कुछ रचनाकारों का यह भ्रम है कि वर्तमान राजनीतिक व्यंग्य पारस्परिक वैमनस्य पैदा करता है। असल में व्यंग्य के वास्तविक खतरे,सत्ता की ओर से ज्यादा होते हैं जबकि अधिकांश रचनाकार भी सत्ता का सुख और सुविधा पाना ही चाहते हैं।तो मेरे विचार से इस प्रकार के परहेज की भावना को रचनाकार की सीमित स्वार्थपरता का एक रूप माना जा सकता है।सत्साहित्य की समस्त विधाओं में व्यंग्य कदाचित सबसे अधिक जोखिम झेलता है ।यदि उसमें सिर्फ मनोरंजन का तत्व न हो तो।जिस सीमा तक इमानदारी से सामाजिक  प्रतिबद्धता, सामाजिक सरोकार के दु:ख सुख और सत्ता के शोषण का कठोर यथार्थ जिक्र होता है उस सीमातक व्यंग्यकार हर युग में प्रताड़ित किया जाता है,सुविधा-सुखसे वंचित रखा जाता है और जाहिर है कई प्रकार के सृजन-सांस्कृतिक संकटों में भी पड़ा रहता है। सो व्यंग्य अंततः व्यक्ति या वर्तमान सत्ता शासन संस्था मात्र पर नहीं होता वह सम्मुख वर्तमान, समय की पूरी समझ,उसे चलाने वाले सुख संपन्न सामाजिक नेतृत्व के विरोधाभासी चारित्रिक व्यवहारों पर लक्षित होता है।
   कबीरदास ने यूं ही नहीं कहा था 'कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ’!
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गंगेश गुंजन 23 जुलाई 2018

Monday, August 20, 2018

परिवर्तन भी उम्मीद की आंधी भर ।

परिवर्तन भी उम्मीद की आंधी भर ।

अब लगने लगा है कि छोटा से छोटा और बड़ा से बड़ा कोई परिवर्तन भी उम्मीद की आंधी की तरह है।आंधी आती है और अपनी छोटी बड़ी उम्र के साथ धीमे-धीमे पस्त होकर गुजर जाती है। राजनीतिक और सत्ता परिवर्तन की आंधी का यही हाल है। आंधी आती है और चली जाती है। वैसे ही जन साधारण की उम्मीदों से भरी राजनीति और सत्ता-परिवर्तन की आंधी भी होती है जो आकांक्षा पूरी होने की प्रतीक्षा में ही उतर जाती है। राजनीतिक परिवर्तन की वह आंधी अपने स्वभाव और उम्र के अनुसार छ: माह से लेकर तीन-चार साल तक में ठंडी पड़ जाती है।तीन-चार साल अर्थात हमारी तरह के इस लोकतंत्र में,अगले राज्य अथवा आम चुनाव आते-आते !
     सो मेरे अनुभव में अब तो अपने यहां सारे परिवर्तन साधारण जन की उम्मीदों का श्मशान-क़ब्रिस्तान भर होकर रह गए हैं। देश के अवाम की जिंदगी में अब इनका और कोई मतलब नहीं बचा दिखता है,फूस, लुगदी और सिट्ठी भर हैं !
     राजनीतिक और सत्ता परिवर्तन,कतिपय रिक्त हृदय, तृप्ति कामी क्षुधित, बौद्धिकों का, इंपोर्टेड च्विंगम है !
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-गंगेश गुंजन।२७ फ़रवरी,२०१८.

Tuesday, August 7, 2018

कमल

कमल !
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जबसे कमल राजनीतिक दल का प्रतीक चिह्न हो गया है तब से बहुत सारे कवियों की प्रगतिवादी मुश्किलें बढ़ गई हैं। कवि-कर्म बेतरह प्रभावित हुआ है।

    साहित्य-सांस्कृतिक कारणों से भारत में कमल आज भी ज़्यादातार कवियों का वैसा ही प्रिय फूल है। मैथिली के तो अधिकतर कवियों की कलम इसी के कारण लुढ़की पड़ी है। वजह भी है। बिना कमल के उनमें कविता का स्फुरण ही कुंठित हो गया है। ऊपर से देश में विविध राजनीतिक वैचारिक रुझान और प्रदर्शनीय प्रतिबद्धता पर संकट है।   

      ज्ञात हुआ है कि इसी डर से कुछ कवि अपनी पुरानी कवितायें जिनमें “कमल” का प्रयोग है उसे प्रकाशित ही नहीं कर रहे। अपनी-अपनी ‘कमल-कविता’ओं को दबा कर बैठे हैं।
कविता में तो मानो कमल का ‘देख दिनन को फेर’-काल चल रहा है।
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     -गंगेश गुंजन, 10 जुलाई 2018.