Monday, January 28, 2019

मौत इक तमाशा है !

                   💐
    मौत का तमाशा  है ज़िन्दगी।
    शामिले तमाशागर हैं हम भी।
                    🌻
               -गंगेश गुंजन

Wednesday, January 23, 2019

मिल्कीयत है मुल्क सियासी लोगों की

🦂🦂
शरीके ग़ालिबों* से बाख़बर हुशियार रहना लोगो !                          
मुल्क को मिल्कीयत अपनी समझते हैं सियासी ‌लोग।
                      🌻 -गंगेश गुंजन

Wednesday, January 16, 2019

प्रेम

प्रेम नागफनी में फूल खिलना है !
🌹
-गंगेश गुंजन-

Saturday, January 12, 2019

महादेव बनाती हुईं स्त्रियां !

महादेव बनाती हुई स्त्रियां !
*
ये सैया महादेव बनाती हुई स्त्रियाँ
गुंधी गीली मिट्टी से छुड़ा रही हैं-
हजार-हजार वर्षों की अपनी मैली हथेली के कलंक। मानो,
उबटन का रस्म कर रही हैं
महादेव बना रही हैं।

स्त्री एक हथेली पर रखी माटी की छोटी लेई पर
दाहिने हाथ की उंगलियाँ घुमाती हुई
आकार दे रही है!
शिवरात के ऐसे भगवानजी वाले मौके में वह भी की जाएगी शामिल
यह कैसे हुआ !

बनाएगी घृणित हाथों से अछूत
एक ही पंगत में बैठ कर वह
एक साथ सवा लाख शिवजी !
स्त्री देर से बैठी लगी हुई है। उसके छूने पर गंदे नहीं हो रहे हैं महादेव बाबा।
भरोसा हो रहा है

जानती है कि बहुत बदल गई है दुनिया,
महादेव रचती हुई वह स्त्री।

लेकिन यह जो अपना -
भारत देश कहते हैं, यहां
धर्म प्रार्थनाओं के इस तेंतीस कोटि देवि-देवताओं की
पूजा-अर्चना करने वाली एक अरब से भी कितनी ज्यादा
आबादी ! करोड़ों अपने ही समान लोगों से जी-जान से करती है नफरत।आज भी रहती है दूर
उनकी छाया से भी बच-बचकर।

सोचती है महादेव बनाती स्त्री -
हर तरह दलित-वंचित-कलेसित ये लोग युग-युग से किस सराप को झेल रहे हैं,झुलस रहे हैं

सुबह से शाम, रात-रात तक गर्हित गरीबी और दमघोंट ज़िल्लत झेल रहे हैं।अपने ही जिगर के टुकड़ों के साथ
दाना-पानी के लिए जानवरों-से रेेंग रहे हैं,बूढ़े सास-ससुर के साथ खुद को रोज जैसे दोज़ख में धकेल रहे हैं

अभी महादेव बना़ रही है जैसे,
इतिहास में दफ्न अपने मान-सम्मान कोड़ के फिर से अपने आगे रख रही है !
माटी के महादेव जोड़ती स्त्री !

हल्की नीली साड़ी और गाढ़े आसमानी रंग ब्लाउज में
कितनी सुन्दर लगती है ! और पावन !
सिर से फिसल आए आँचल को
माटी सनी कलाई से माथे पर चढ़ाती हुई महादेव में महादेव जोड़ती है ।

हरेक जोड़ने की कड़ी में हर बार
अपने डरावने अतीत को तोड़ती है,
कोई मनहूस धरती, एक कदम और पीछे छोड़ती है-
घिनौने कर्म कलंक की परछाँई,
मन में कुंडली मारे बैठे संस्कारों के
बुरे, डरे हुए यक़ीन ताकत लगा कर
जोर से तोड़ती है ।
एक और महादेव जोड़ती है-स्त्री !

महादेव बनाती हुई साफ-सुथरी सम्भ्रान्त स्त्री-पुरुषों की पाँत में
वह अपनी जगह पहचान करती है
और समझ पाती है-अधिकार की यह इतनी बड़ी दुनिया अबतक रखी गई छीन कर उससे-
उसके सभी लोगों से।
वही सब वापिस पाती हुई महसूस करती है,पर
किसी रोमांच से आँसू नहीं बहने देती आँखों से बाहर ।
इस खुशी में नहीं रोती है,
खुशी की पहली सीढ़ी पर पड़े हैं कदम मन ही में मन को धोकर
तोलती है,
एक और महादेव जोड़ती है!

लिथरे हुए मन-बुद्धि और ज़ंग लगे संस्कारों की गाँठ पड़ गए सिरे को खोलती है खुद से ही बतियाती-बोलती है-
एक कहा भी ना जा सके ऐसे अहसास में भीतर ही भीतर रोमाँच बटोरती है- स्त्री।

स्त्री के भीतर सड़े हुए सैवाल, पोलिथिन, अगड़म-बगड़म
शहर भर की गंदगी से भरी
अतीत की सड़ाँध पसारती लहराती हुई झील है।
किसी स्वर्ग के जल से इसी के जहर
अदृश्य धोती है मन ही मन-
जिन्दगी का पहला पवित्र स्नान करती है।
जिस नदी में उतरने का भी खुला हक़ न था कभी,
उस अहसास की गंगा में बार-बार
सचमुच आजाद डुबकी लगाती है ।

स्त्री, अपना पूरा जिस्म भीतर आत्मा तक डुबोती है
इसमें समाई है पूरी जमात इनकी
शिवजी के भभूत मल-मल कर अपना तन झक-झक करती है,
जाने कितने युगों से सताये हुए
जख़्मी मन को खंगाल-खंगाल कर धोती हुई खुद पर चन्दन के लेप चढ़ाती है
दशाश्वमेध घाट में धंस कर
जी भर नहाती है।
इस बार जिस्म को कुछ और लक दक बनने की सलाह देती है,
स्त्री असली गंगा नहा रही है!

महादेव बनाती हुई स्त्री कुलीन स्त्री-समाज के साथ
बराबरी के ताजा विश्वास में
शिव वंदना गाती है
गुंधी हुई मिट्टी से स्त्री
बहुत नज़ाकत और मुहब्बत बरतती है,मुरव्वत से पिरोती है। कुछ कहती है,
इस बार चुपचाप ज़रा-सा रोती है
अभी इस दम जैसे पूरे इतिहास-पुराण-धर्म के बोझ
अकेले ढोती है
अनादि अनन्त अपने सताए गये पुरुखों के ताप धोती है,
महादेव पिरोती है।
फरियाद करती है-‘ईश्वर हो आप ।
अब भी तो करो हमारा इन्साफ’ !
स्त्री अपने सिर और काँधों पर लदी,सदियाँ उतारती है,
उनके बोझ !
अपना छीना हुआ नन्हा-सा कच्चा आँगन,खुशबू छोड़ते ताज़ा बेलपत्रों से बुहारती है
अपनी हथेली पर घर,तितली,दरख्त, पानी वाले नये नक्षत्र,
ग्रह-तारा सूरज-चाँद
सिरजती है,बतियाती है,
जरा भी नहीं सकुचाती है,
अपनी जैसों को रस्ता बतलाती है,
स्त्री महादेव बनाती है
खुद को मंदिर से बाहर टुकुर-टुकुर दूर से निहारती अभी मजबूर नहीं पाती
धरधराती हुई बेझिझक ज़ीना चढ़ती है,
जी करे तो उतर आती है,
सहेली को आवाज लगाती है
अधिकार के सुकून से ऐन शिवाले के बीच प्रार्थना कर रही मिलती है,

ताजे-हरे बेलपत्रों पर स्त्री लिखने बैठी है-
ऊँ नमः शिवाय !
सवा सौ बेलपत्र लिखेगी ।
आखिर लिखना आ गया है जब तो,
यह क्यों न करेगी ।
भले एकदम जल्दी-जल्दी नहीं,
जितना लिख लेती है अब अपनी ही यह दसवीं पढ़ रही
लाडो बेटी-जोली !

बेटी किशोर होठों पर महीन मुस्कुराती है। एक और बेलपत्र पर
'ओम बाबा साहेब' लिखती है और
छुपा कर बड़ी बहन को दिखाती है-'मैं तो यह लिख रही हूँ दीदी !' कोमल शरारत से मुस्कराती है। दीदी सशंकित हो अगल-बग़ल देखती है। सहमी हुई मुस्कराती है।
बेटी रफ्तार से पत्ते पर लिखे जा रही है-रक्त चंदन के
लाल लाल अक्षर !

स्त्री हवन कुण्ड के आगे बैठी इत्मीनान से सारे कलेस,
जमाने से पाई घृणा-अवहेलना,
धिक्कार की कंटीली यादें,
मन में सुलगते प्रतिशोध
एक साथ अँजुरी में लेती है और
लपलपाते हवन कुण्ड में कर रही है-
स्वा ऽ हा ऽ ऽ ऽ

ऐसी ही बन रही है वह स्त्री!
एक बार महादेव एक बार अपने को गढ़ती है।

जिस्म के सूने सब अंग पर दमकती इज्जत जड़ रही है
स्वयं को एक नए ही साँचे में मढ़ रही है ।
और तो और आदमी की बगल में खुद को पार्वती कह रही है !

स्त्रियाँ,
सहने लायक़ धीरज से सुनाती हैं विपदा-
दिखलाती है शिवजी को एक-एक ज़ख़्म !

उन्हें भी माफ़ कर देने की विनती करती हैं जिनने नीलाम रखा सदियों उनके हिस्से का उजाला।
मन से उतार देने की गाती हैं आरती !

सैया महादेव बनाती हुई  
पहले से बैठीं स्त्रियाँ बहती हुई गंगा हैं
जिसमें यमुना की तरह मिल रही हैं-
गाढ़े आसमानी रंग ब्लाउज और हल्के नीले रंग साड़ी में

ये स्त्रियां यहाँ,

हजूरी गेट से आई अलवर और टोंक की स्त्रियाँ इस धरती पर एक नया प्रयाग बना रही हैं
इसे देश का असली संगम बता रही हैं।
नए ही तर्ज-तेवर में ‘हजूरी गेट का कोरस’ गा रही हैं !

Saturday, January 5, 2019

आलोचना और आलोचक !

आलोचना और आलोचक !
*
ज्ञान का साहसिक बुद्धि-प्रयोग ही आलोचना को सम्यक् श्रेष्ठ और प्रासंगिक बनाता है।
    ज्ञान-साहसी रचनाशील दक्षता किसी आलोचक का मेरुदंड है। पूर्वग्रह मुक्त और निष्पक्ष होना यहाँ अपरिहार्य नैतिकता है।
*
 -गंगेश गुंजन 2 दिसंबर,२०१८.