Wednesday, October 31, 2018

नफ़रत की सरहद

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ख़त्म होती हैं कहीं नफ़रत की  सरहदें।
प्रेम का मार्ग बहुत आगे तक जाता है।
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-गंगेश गुंजन

ज़रा सी बात पर

ज़रा-ज़रा-सी बात में भर आये,
रक़ीब हो गईं  अपनी ही आंखें।
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-गंगेश गुंजन.

Tuesday, October 23, 2018

प्रसाद में केक

।। केक ।।
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प्रसादी की जलेबी खाती हुई एक छोटी-सी बच्ची मुझसे अचानक पूछ बैठी:
-दादा जी,अमेरिका और इंग्लैंड में जो रहते हैं वे पूजा में भगवान को प्रसाद क्या चढ़ाते हैं ? काहे कि वहां मिठाई तो बिकती नहीं है। तब?’
-’हां यह तो है। तुम ही कहो तो वे लोग प्रसादी क्या चढ़ाते होंगे?’ मैंने उसीसे पूछा तो वह एक क्षण सोचती रही। फिर बोली-’शायद दादा,पूजा में दुर्गा माय को वे लोग केक चढ़ाते होंगे ! और सुंदर-सुंदर बिस्किट टॉफी! है न?’
   मुझे स्वाभाविक ही हंसी आ गई। बच्ची की मासूम कल्पना पर आनंद आ गया! बच्ची गांव में एक पूजा- पाठी धर्म प्राण परिवार में वह जन्मी है।संस्कार में ये ही सब हैं किन्तु उसकी बाल सुलभ कल्पना में वैज्ञानिकता लगी। 
-’सो तो ठीक है लेकिन तुमको कैसे मालूम है कि वहां अमेरिका इंग्लैंड इत्यादि देश में मिठाई नहीं मिलती है ?’ मैंने उससे पूछा।
-’नमो काका जो कहते हैं न !’उसने तपाक से कहा।
-’नहीं बेटी अब तो दुनिया भर देश में हर देश का का खानपान चलता है। इसीलिए चाहने पर मिल भी जाता  है। इसलिए इंग्लैंड-अमेरिका में भी मिठाइयां मिलती हैं।हां,थोड़ी कठि- नाई से और महंगी।अपने यहाँ जो बाजार में मिठाई की दुकानें भरी पड़ी हैं,वहां इतनी नहीं। मगर मिठाई मिलती वहां भी है।परंतु बेटा,आपका यह प्रसाद में केक चढ़ाना मुझे भा गया! और मैं यह मानता हूं सच में यदि वे लोग  वहां पूजा करते हैं तो उन्हें प्रसाद में केक ही चढ़ाना चाहिए क्योंकि वहां की मिठाई है और केक भी इतने-इतने प्रकार की मिठाई है कि खाते-खाते आदमी का जी ना भरे,इतना स्वादिष्ट।
-'लेकिन दादा,दुर्गा माँ तो बहुत गुस्सा वाली हैं,तो प्रसादी में केक चढ़ाने पर दुर्गा माय नाराज़ नहीं हो जाएंगी?’
-’मां कहीं अपने बच्चे पर नाराज होती है !’ मैंने कहा।
बच्ची दिल से प्रसन्न थी।
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-गंगेश गुंजन,17अक्टूबर'18

Thursday, October 18, 2018

सबकुछ बीच में है !

सब कुछ बीच में है।
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सब कुछ बीच में है। एक काम अभी पूरा हुआ है ।आगे कोई अधूरा खड़ा है।आज का दिन आज समाप्त हुआ है ।अगले दिन फिर शुरू होने वाला है ।कोई पुस्तक एक पृष्ठ पढ़ी गई है ।आगे भी पढ़ी जाने वाली है ।जहां अंत है वहां दूसरी पुस्तक प्रकाशित होकर समाज में आने वाली है। यही क्रम है जीवन का। नित्य निरंतर। आज मैंने कहा- हम बीच में हैं ।कल थे । ‘आज’ आने वाले कल के बीच में हैं। सब दिन सब काम आधा है जिसे तमाम सृष्टि पूरा करने के चक्र में निरंतर चलती रहती है। जाने कब से सृष्टि स्वयं भी बीच में ही है ।जब भी शुरू हुई अतीत में शुरू हुई है ।और अगर समाप्त होगी तो वर्तमान में नहीं भविष्य में कभी। इस प्रकार वर्तमान विगत कल और आने वाले कल के बीच में संपूर्ण भी है और असंपूर्ण भी है । हर वर्तमान की अर्थात हर एक वर्तमान ही यथार्थ जो आपके विवेक और कर्म के अधीन है। और पूर्व पर है सर्जक या विनाशक है ।प्रकाश है । जीवन को सिर्फ आज और आज के ही दायरे में अपने विवेक अपनी बुद्धि अपनी आशा आकांक्षा के साथ भविष्य से जोड़ना चाहिए। वर्तमान को जहां तक संभव हो अपने आचरण से,अपने कर्म से,प्रयास से,सोच और आदर्श से सचमुच का आदर्श बनाना चाहिए। आदर्श में त्याग की भूमिका मेरे विचार से सर्वोपरि है। अपेक्षा हीनता की प्रेरणा बड़ी है ।संबंध कोई हो वह पत्नी, पुत्र,पिता, माता ! सबसे संलिप्त रहकर भी सबसे निरपेक्ष रहना। एक प्रकार सबमे होते हुए भी सबसे निर्लिप्त रहना एक प्रकार से सबसे बड़ा विवेक है। मन प्राण में अपने साथ अपने परिवार के साथ अपना गांव भी रहे,अपना सकल समाज भी रहे । आदर्श स्थिति है यही ।परंतु यह सब कुछ आप अतीत को सुधारने में नहीं लगा सकते। भविष्य को बनाने के लिए नहीं कर सकते। सिर्फ और सिर्फ वर्तमान को सुंदर से सुंदरतम बनाने की प्रक्रिया चलाए रख सकते हैं।यही आपकी विवेक का तकाजा है यही श्रेष्ठ मनुष्य का लक्ष्य है।
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गांव।-gangesh Gunjan विजयादशमी। १९.१०.’१८

Saturday, October 13, 2018

स्नातक नहीं हुए हैं अभी शब्द

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शब्द अभी उत्तीर्ण नहीं हैं। फिर भी हमारा बड़ा से बड़ा काम चल रहा है। कहां तक सोच गए हमारे पुरे ! कहां तक कर गये और इन्हीं इन्हीं अनुत्तीर्ण शब्दों ने बीच इतना कुछ करने का प्रारूप नहीं बना दिया, ज्ञान-विज्ञान का कितना पुख़्ता आधार  भी तैयार नहीं कर दिया? हम सुविधा से और सुविधा जनक स्थिति में आते चले गए हैं।

सोचिए कि शब्द जिस दिन उत्तीर्ण हो जाएंगे अर्थात जिस दिन अपना संदर्भ,योजना,आशा एकनिष्ठ कर लेंगे,शब्द उसी दिन उत्तीर्ण हो जाएंगे। शब्द तब अपनी वास्तविक परिणति भाषा पर पहुंचेंगे और ऐसी कहीं एक जगह रह लेंगे ।अभी जो संदर्भों के साथ शब्दों में आश्रित होते हुए भटक रहे हैं अस्थिर रहते हैं और भटक रहे हैं, तब ये निश्चिंत घर में रहने लगेंगे और तब जैसे सही सही नाम पता के साथ डाक से चिट्ठी आती थी तार आ जाता था,आज लेखक विचारक का आशय, अभिप्राय रही संदेश भी उसी तरह भेजें जाएंगे और संबोधित पते तक ठीक ठीक एक ही व्याख्या और एक ही व्यक्तित्व के साथ पहुंचा करेंगे ।अभी तो यही लाचारी है कि न्याय में भी शब्द स्नातक नहीं है नहीं हुए हैं। शब्द इसीलिए तो एक न्यायालय की देखना है जिला न्यायालय की व्यवस्था ऊपर का न्यायालय खारिज कर देता है और यहां तक न्यायालय के न्यायाधीशों में भी परस्पर विरोध और विरोधाभास होता है इससे कई बार न्याय तक उत्तीर्ण नहीं हो पाता है ।अंततः शब्द को उत्तीर्ण होना चाहता है,जो होना है । आज भी उत्तीर्ण नहीं है। होना है।

इस घड़ी मन में यह भी उपजा है कि शब्द को ब्रह्म इसीलिए तो नहीं कहा गया है ? शब्द अभी आज जिस स्थिति में है स्नातक नहीं हो पाया है। जिस दिन शब्द अपनी वास्तविक परिणति-'बह्म’ मैं पहुंचेगा उस दिन पूरे विश्व मानव की भाषा एक होगी। मानव का लक्ष्य भी एकात्म और वैश्विक हो जाएगा!
वसुधैव कुटुंबकम् !

गंगेश गुंजन 14 अक्टूबर 2018.

Friday, October 12, 2018

प्रेम एक वचन है !

प्रेम में बहुवचन नहीं होता !
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गंगेश गुंजन
१३ अक्टूबर 2018.

Wednesday, October 10, 2018

कोई भी धर्म समग्र संपूर्ण नहीं।

कोई भी धर्म संपूर्ण मनुष्यता को संतुष्ट करने वाला नहीं।
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कोई भी धर्म संपूर्ण मनुष्यता को संतुष्ट करने वाला धर्म नहीं है।और यदि कोई धर्मावलंबी विशेष अपने धर्म में यह दावा करता है तो उसे यह भी मानना चाहिए कि वेही तत्व उसके अलावा भी अन्य सभी धर्मों में उतनी ही मात्रा और व्यावहारिक संभावना में पूर्णत:  विद्यमान हैं।
  वास्तविकता यह लगती है कि धर्म संबंधी जो आपसी मतभेद की लड़ाई है वह संबंधित धर्मों के धर्मावलंबियों के अपने ही धर्म से किसी न किसी कारण असंतोष की अभिव्यक्तियां हैं जो अधिकांशत:अन्य धर्मों काविरोध
-प्रतिरोध करने में व्यक्त होती रहती हैं और समय-समय पर कुछ दुर्राजनीतिक गतिविधियों से सामाजिक समरसता को आंदोलित करके कुछ क्षण के लिए दिग्भ्रमित कर देती हैं।इसीलिए मुझे तो लगता है कि जिसे हम वैश्विक मानव धर्म कहते हैं उसका असली समय अब आज बन रहा है और उपस्थित हो रहा है। बशर्ते यह विश्व मानव विकास की अपनी इस मदान्ध दौड़ में एक पल ठहर कर,सामाजिक सदाशयता के साथ इसे सोचे समझे और करना चाहे, बनाना चाहे।

   जाहिर है अभी तक का तमाम धर्म कहीं ना कहीं मनुष्य को कम पड़ रहा है। इसीलिए अब इस विश्व मानव का एक नया और सर्वव्यापी धर्म चाहिए ताकि सब उसमें समा सकें।श्री और  यह मानव सृष्टि,समस्त पर्यावरण और जीवन के नए आदर्श और इनके उच्चतम लक्ष्य सुरीले ढंग से चल सके। जीवन आनन्द में चले।
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-गंगेश गुंजन

स्त्री,पुरुष और ब्रह्मा

कलशस्थापन
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स्त्री ब्रह्मा का निवेदन हैं !और पुरुष ब्रह्मा का आदेश।
                             -गंगेश गुंजन
बुधवार,
10 अक्टूबर,2018 ई.

Monday, October 8, 2018

सूर्य का अहंकार

सूर्य का अहंकार
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सूर्य बड़ा पराक्रमी और सृष्टि का परम उपकारी है परंतु जब अपने ताप के घमंड में दोपहर होकर आग बरसाने लग जाता है तो यही धरती जो उस पर निर्भर और उससे उपकृत है, धीरे-धीरे ले जाकर उसे रसातल में पहुंचा देती है। घमंडी सूरज को अंधकार में डुबो देती है। उस समय सूरज की दीनता देखने लायक होती है।
-’तुम मुझे यूं ढकेल कर अंधेरेमें क्यों डुबो रही हो?’ अस्त होते हुए निस्तेज सूरज ने बड़े दीन स्वर में धरती से पूछा।
-’तू अपने अभिमान में आग उगलने लगा था ! उसे तोड़ना ज़रूरी था मेरा बच्चा! जो बड़ा़ होता है वह अभिमानी नहीं होता। इसका ध्यान रख।’
कहती धरती मां की आंखें ओस रोने लगीं।ओस के अपने आंसुओं से सूरजको नहला कर शीतल किया और मातृत्व की अपनी शीतल रात्रि-छाया में सुलाने लगी।
    अहंकार होने पर सूरज तक को धरती अपनी ओट में डुबो देती है। ध्यान रहे।
-गंगेश गुंजन
8.10.'१८.

Wednesday, October 3, 2018

बुद्धि जीवियों का अमेरिका रुझान

अमेरिका-रुझान
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-‘सुनते हैं इधर वाम बुद्धिजीवी का अमेरिका-रुझान बढ़ रहा है।विस्मित करने वाली संख्या में वाम बुद्धिजीवी अब अमेरिका में रहने लगे हैं या वहीं रहना पसंद करते हैं। वहां की आवा- जाही बढ़ रही है।इसे क्या अनायास या आकस्मिक भर माना जाए,कवि जी ?’
  मित्र समाधान प्रसाद ने पूछने के तेवर में अकस्मात यह फरमाया है और मैं निरुत्तर हूँ।अब इस कथन के प्रतिरोध के लिए अपेक्षित तथ्य और जानकारी का स्रोत मेरे पास क्या है कि मैं उनसे उलट कर ऐसा माननेका आधार पूछूं।
  समाधान प्रसाद जी समाधान कम, मेरी समस्या ही अधिक बनते हैं।
  अब यह ताजा समस्या है।
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-गंगेश गुंजन.