Wednesday, October 10, 2018

कोई भी धर्म समग्र संपूर्ण नहीं।

कोई भी धर्म संपूर्ण मनुष्यता को संतुष्ट करने वाला नहीं।
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कोई भी धर्म संपूर्ण मनुष्यता को संतुष्ट करने वाला धर्म नहीं है।और यदि कोई धर्मावलंबी विशेष अपने धर्म में यह दावा करता है तो उसे यह भी मानना चाहिए कि वेही तत्व उसके अलावा भी अन्य सभी धर्मों में उतनी ही मात्रा और व्यावहारिक संभावना में पूर्णत:  विद्यमान हैं।
  वास्तविकता यह लगती है कि धर्म संबंधी जो आपसी मतभेद की लड़ाई है वह संबंधित धर्मों के धर्मावलंबियों के अपने ही धर्म से किसी न किसी कारण असंतोष की अभिव्यक्तियां हैं जो अधिकांशत:अन्य धर्मों काविरोध
-प्रतिरोध करने में व्यक्त होती रहती हैं और समय-समय पर कुछ दुर्राजनीतिक गतिविधियों से सामाजिक समरसता को आंदोलित करके कुछ क्षण के लिए दिग्भ्रमित कर देती हैं।इसीलिए मुझे तो लगता है कि जिसे हम वैश्विक मानव धर्म कहते हैं उसका असली समय अब आज बन रहा है और उपस्थित हो रहा है। बशर्ते यह विश्व मानव विकास की अपनी इस मदान्ध दौड़ में एक पल ठहर कर,सामाजिक सदाशयता के साथ इसे सोचे समझे और करना चाहे, बनाना चाहे।

   जाहिर है अभी तक का तमाम धर्म कहीं ना कहीं मनुष्य को कम पड़ रहा है। इसीलिए अब इस विश्व मानव का एक नया और सर्वव्यापी धर्म चाहिए ताकि सब उसमें समा सकें।श्री और  यह मानव सृष्टि,समस्त पर्यावरण और जीवन के नए आदर्श और इनके उच्चतम लक्ष्य सुरीले ढंग से चल सके। जीवन आनन्द में चले।
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-गंगेश गुंजन

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