Monday, October 30, 2017

भाषा की पीड़ा

भाषा की पीड़ा
*
सिर झुकाये भाषा, हाथ जोड़ कर खड़ी थी और
एक साथ मुझे अपनी लाचारी और
चेतावनी दे रही थी- मानुष कवि !
इतने असत्य,अन्याय और अंधियारा मैं नहीं बोल सकती अब। तुम्हारे दु:ख,शोषण और परिवर्तन कहते-कहते मैं बेअसर हो चुकी हूं। भोथड़ी हो गई हूं।
और तो और ऐसा लोकतंत्र भी मैं नहीं लिख सकती। इस तरह तो अभी तो भोथड़ी हो रही हूं,कल को तो गूंगी हो जाऊंगी।

-प्रेम से लेकर युद्ध और ध्वंस से निर्माण तक,असहयोग से सशस्त्र प्रतिरोध तक...लाठी-तलवार से  बंदूक कबसे ये सबकुछ कहती आ रही हूं।

देखने के तुम्हें इतने महाभारत और इतिहास दे दिए हैं दुनिया भर।सत्ता,शासन राजतंत्र-लोकतंत्र।
यह लोकतंत्र तुम्हारा ! और अब तुम चाहते हो कि तुम्हारे लिए इन्हें पढ़ूं भी मैं ही, मैं ही करूं ?

तुम लात-जूते खाते रहोगे,वक्त़-वक़्त पर‌ जेलों में तफ़रीह करने जाते-आते रहोगे। धरने पर बैठे फोटो लिवाते रहोगे, वहां से उठकर वोट देने जाते रहोगे।
भले शब्द-लोकतंत्र और परिवर्तन भी मैंने ही कहे, तो ?
    तुम सिर्फ़ इन्हें बोलोगे और बोल कर सोओगे ?...
*
-गंगेश गुंजन। ३१.१०.’१७.

Sunday, October 22, 2017

कमला नदी‌ की कहानी

यह मिथिला का लोक श्रुति-क़िस्सा है और मूलतः  मैथिली में ही लिखा गया।सुविधा के लिए यहां हिंदी में प्रस्तुत है:

।। कमला‌ की कहानी ‌।।
*
कहते हैं कि ईश्वर ने मां को धरती पर इसलिए भेजा क्योंकि पूरी दुनिया के प्राणियों जीव-जंतुओं की चिंता करने में उनको उनकी ही शक्ति वाला एक विकल्प मिले। सुविधा हो। यानी मां ईश्वर का प्रतिरूप होकर धरती पर आई।
    लगभग ऐसी ही कथा मैंने भारत की‌ दो महान नदियों के बारे में भी सुनी थी। गंगा और कमला। क़िस्सा मेरे बचपन‌ का है।
   गांव में मेरी एक दादी हुआ करती थीं। हम बच्चे उनको बाबी कहते थे -रंजनी बाबी। हम उनसे किस्से सुना करते थे।उन्हें बहुत दिक‌ किया करते। तब वह भी कभी कुछ कभी कुछ सुनाती रहतीं।‌जहां तक याद है,उस समय माघी सप्तमी/मकर संक्रांति‌ के दिन सुबह- सुबह सबों को कमला नदी में डुबकी लगाकर स्नान करने जाना पड़ता था। उस तिथि में नदी-स्नान करना ऐसा धार्मिक और पारिवारिक रिवाज था जिसे छोड़ा नहीं जा सकता था। जबकि भीषण ठंड के डर के मारे हमलोग नहाने से घबराते थे। लेकिन बड़े-बूढ़ों की‌ डांट-फटकार के कारण आखिर कमला कात जाकर उसमें डूब लगाकर नहाना ही पड़ता। क्या करते? हम बच्चे डरते-सिहरते कमला में डूब लगाने जाते।
    तो एक संध्या हम अपनी रंजनी बाबी से बातें कर रहे थे। बातें क्या, रोना रो रहे थे,क्योंकि सुबह-सुबह कल कमला धार में नहाने जाना था। माघी सप्तमी जो थी! हम बच्चों कै पास‌ कोई तर्क तो था नहीं तो हमने बाबी से कहा- ‘वैसे बाबी, कहते हैं कि सप्तमी नहाने का पुण्य तो गंगा में नहाने से मिलता है। गंगा में नहाने जाना चाहिए ना? कमला में नहाने से क्या फल  होगा?’ बाबी बूढ़िया हंसी से मुस्कुराईं। बाबी बहुत अच्छा मुस्कुराती थी। वह हमारी समस्या तो जान गई थीं। अपने पोपले मुंह से किसी तरह हंसती हुई बोलीं-
-’अरे बताह (पगले),कमला और गंगा में भेद थोड़े ही है। कमला भी गंगा ही है।’ अब यह बात तो हम बच्चों के मन में अंटी नहीं, तब फिर नाम क्यों अलग-अलग है? क्योंकि गंगा को तो हम समझते थे सिमरिया घाट, बनारस या भागलपुर में बहती है। यहां मधुबनी में तो गंगा माय नहीं बहती है। मेरे गांव में भी नहीं हैं। तब ? मैंने फिर सवाल किया-
-‘लेकिन बाबी,गंगा मैया तो सिमरिया घाट में हैं,काशी ‌में और भागलपुर में हैं। मधुबनी में और अपने गांव में तो‌ नहीं बहती हैं ?’
   बाबी फिर मुस्कुराईं‌ और कहने लगी-
'अरे बताह(पागल), कमला और गंगा दोनों एक ही तो हैं।अब यह भी मेरी समझ में नहीं आई बात। मैंने इस तरह कुछ समस्या बताई तो कहने लगी -
‘सुन। एक क़िस्सा सुनाती हूं...
किसी गांव में दलित जात की एक स्त्री रहती थी। उसका नाम सतबतिया (सत्यवती) था।
-’दलित माने क्या बाबी ?’ हमने टोका, तो बोलीं-
-मान ले अपने इस गाम‌ में एकदम से पच्छिम-उत्तर में जो लोग फूस की झोपड़ी में रहते हैं...
- वे जो ब्याह-उपनैन-दशहरे में ढोल-पिपही बजाने आते‌ हैं वे?’ मैंने बाल सुलभ उतावलेपन से पूछा।
-हां रे वेही। उसी दलित टोले में एक बड़ी भक्त स्त्री थी। बहुत अच्छे स्वभाव की और सब की मदद करने वाली। वैसे उस पर आये दिन बड़ी विपत्ति आती रहती थी। समाज के बड़े लोग उसको सताते भी थे। फिर भी वह सहती रहती थी और किसीका बुरा नहीं करती थी। तकलीफ और ग़रीबी में भी वह भगवान को भजती रहती थी। गांव में जैसे-तैसे गुजर करती थी।

   कुछ ही समय बाद वह बीमार पड़ गई। फिर बीमार ही रहने लगी। अब उन जैसे दीन-हीन को डाक्टर-वैद और दवा कहां से हो ? तिसपर से उसके बच्चे भी उसे छोड़ कर रोजगार में निकल गये।सो बिन दवा-दारू वह‌ जीवन के दिन गिनने लगी। तब जैसा कि लोग मानते हैं कि गंगा किनारे आकर मरने से और वहीं जलाये जाने पर आदमी को मोक्ष मिलता है। सो सतबतिया की भी यही कामना थी कि वह भी गंगा कात में (किनारे)मरे।लेकिन वह सिमरिया गंगा कात जा कैसे सकती थी।ना रुपैया-पैसा न कोई वहां पहुंचाने वाला। बेचारी सिमरिया‌ कैसे जाती? सो जब बहुत बीमार हो गई और उसको लगने लगा कि अब नहीं बचेगी तो अंतिम समय उसने मन ही मन बहुत विकल होकर गंगा मां को पुकारा-
- ‘गंगा मैया तू क्या सिर्फ धनिक लोग के लिए ही है?डौढ़ी और जमीदार लोगों के लिए ही है जो इतना दूरस्थ सिमरिया घाट में रहती है ? यहां भी क्यों नहीं बहती ? अब इतनी दूर रहती है कि‌ हम तो आ नहीं सकते‌ हैं। फिर हम जैसे गरीबों को छुट्टी कैसे मिलेगी मैया ? मरने के बाद हम किस नदी के किनारे जलाए  जाएंगे, हमको मुक्ति कैसे मिलेगी? सो गंगा मैया,तुम अगर गरीब-गुरबा को भी प्यार करती है तो मेरे पास ही आकर रहने लग जा। मैं तो तुम्हारे पास नहीं आ सकती। मुझे कौन ले जाएगा तुम्हारे पास? बहुत दूर में तुम रहती हो!’

बस। सुनते हैं कि सत्यवती की इस पुकार‌ पर गंगा मैया का दिल भर आया है।अपने इस बुढ़िया की पुकार पर उन्हें बहुत ममता हुई। रात बहुत हो‌ रही थी। और रोते-रोते थक कर उसकी आंख लग गई। कि तभी सपने में क्या देखती है कि-गंगा मैया साक्षात‌ उसके पैरों के पास खड़ी हैं और कह ‌रही ‌हैं-
‘-रो मत सत्यवती। तू अभी आराम से सो जा।कल से मैं तेरे गांव होकर ही बहूंगी।मैं तेरे लिए ही यहां आऊंगी। लेकिन हां मैं यहां गंगा नहीं,कमला होकर बहूंगी। अभी तू सो जा।’
   उस भयावह अंधियारी रात,झमाझम वर्षा होती रही थी। रात भर बादल गरजते रहे,बिजली कड़कती रही।
  बाबी बोलीं- कहते हैं उस पहली बरसात में ही‌ भोरे-भोर लोगों ने एक चमत्कार देखा। क्या देखा कि गांव के बाहर पूरबी बाध में आगे से कल-कल करती हुई पानी की धारा बह रही है !
     तभी से लोग उसको कमला धार कहकर‌ पुकारने लगे।
 *
-गंगेश गुंजन। गांव। ९.१०.२०१७.

फेसबुक ज़िम्मेदारी

वैसे कल से तनिक उद्विग्न हूं।मेरे एक प्रिय बंधु जो सुपठित हैं सुलझे हुए हैं,एक पोस्ट पर उनकी  प्रतिक्रिया पढ़कर चिन्तित भी। हालांकि अभी उनका उपकृत भी हो रहा हूं कि उन्हीं के उकसावे या प्रेरणा से यह टिप्पणी लिख रहा हूं।

  मेरे हिसाब से तो Facebookबहुत बड़ी दुनिया है। हमारी अच्छी-बुरी नशीली-विषैली,आनंद और दु:ख की बहुत बड़ी दुनिया रोज़ इस पर अपने आकार लेती है। हमारी मानवीयता,विचार और भावुकता के साथ अपनों तक पहुंचती-पहुंचाती है।आज जब कि साधारण जीवन से पारंपरिक त्योहार भी जीवन से लुप्तप्राय हैं,इस शुष्क जीवन-परिस्थिति-शैली की उद्विग्नता व्यग्रता के बीच ये पृष्ठ कुछ पल के लिए हमें हमारी मनपसंद दुनिया रचने का ख़्वाब याद दिलाते चलते हैं।

  तो ऐसे में हमें, किसी पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए इसका शऊर, इल्म और अंदाजा अवश्य ही रखना नहीं चाहिए कि हम यह टिप्पणी कहीं हरबड़ी में अतः ऐसी टिप्पणी तो नहीं कर रहे जिस अनुभव, विद्या-विधा के हम अधिकारी नहीं हैं, जो हमारा क्षेत्र नहीं है? जो हमारा विषय नहीं है जो हमारी विशेषज्ञता नहीं है या जो हमारे मन की भी बात नहीं है।उसपर हरबड़ी में या क्षणिक किशोर भावुकता के ज्ञान बघारू उत्साह‌में तो ‌नहीं कर रहे? फटाफट और कुछ भी कह देने से क्या हमें बचना नहीं चाहिए?

   हम जानते हैं सभी सब कुछ नहीं जानते परंतु ‘सभी’ कुछ न कुछ विशेष, अवश्य जानते हैं।तो हम यदि अपनी टिप्पणियों को अगर अपनी सीमा को समझते हुए उसी से नियंत्रित और प्रेरित करें तो कदाचित Facebook पर टिप्पणियों के चलते जो बदमज़गी आये दिन होती रहती है,जैसी कुरूप चर्चा चल पड़ती है वह थम सकती है।अत: हम इसके लिए मुनासिब संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से तत्पर रहते‌ हुए, अपने ज्ञान,अपनी जानकारी, विचार और अपने आदर्श का प्रयोग नहीं कर सकते जो लक्षित समाज लक्षित विषय और सर्वसाधारण उद्देश्य की रुचि,बुद्धि और भावना के अनुसार भी बन पड़े ?

‌‌   इस दुश्वारी के चलते ही अपने कतिपय वैसे योग्य,गुणी और आवश्यक आत्मीयों को उनकी सुंदर और मूल्यवान  टिप्पणियां पढ़ कर भी अपनी पसन्द, सराहना भावना को भी संप्रेषित नही कर पाने की मेरी भावनात्मक समस्या तो अलग है।

  ‌  अपने फेबु साथियों के सम्मुख यह मेरा प्रस्ताव,निवेदन है, कोई परामर्श नहीं। शुभकामनाएं।

सस्नेह,

-गंगेश गुंजन ।२२.१०.२०१७ ई.