Sunday, March 11, 2018

गाँव अब भी समझता है शहर को खुशहाल है।

ग़ज़ल सन
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गाँव अब भी समझता है शहर को खुशहाल है।
अब भी जब कि शहर आकर गाँव खुद बेहाल है।  

वह समझता है कि दलहन खेत से गायब कहाँ
पता चलता है   यहाँ   दो   सौ  रुपैये दाल  है               

गाँव हो या शहर हो या हो भले कुछ भी कहीं
धर्म  भाषा  जाति वर्गों का सुलगता सवाल है।

बहुत उन्नत बहुत सक्षम विश्व के हम हैं गुरु
कितना फूहड़ कैसा लिजलिज देश का अब हाल है।

सबके हाथों में कोई  जम्हूरीअत का तमंचा
शांति गायन कर रहे हैं बुद्धिजीवी,कमाल है।  

हाथ में सत्ता सरोकारों के कुछ अब है नहीं
जो है इक ना इक सियासी सोच का जंजाल है।

सल्तनत  बेचारगी  में   सैर  करती   टहलती
टी वी चैनल ख़बर में यह मुल्क मालामाल है।   

अपने दिल का दु:ख जो बोला गया गुंजन जरा
मेरा साथी कहे ‘अब ये अपना-अपना ख़याल है।’

-गंगेश गुंजन

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