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मैं भी इसी ज़मीन का हिस्सा था एक समय
मेरा भी कभी इससे वास्ता था एक समय
हम भी कभी भागे - दौड़े थे यहाँ-वहाँ
इस धूल औ मिट्टी का हिस्सा था एक समय
है आज न पत्थर ये सड़क गांँव भर यहांँ
पगडंडियों में दफ़्न फरिश्ता था एक समय
निकलें भले न दोस्त वो आँगनसे अपनेअब
इन ड्योढ़ियों तक मेरा रस्ता था एक समय
आंँगन हों बाड़ियाँ हों या खेतो खलिहान
अपना ही नहीं सब से रिश्ता था एक समय
अब के न कुशल पूछने आईं कोई काकी
यूँ घर खड़ा काका का मेरा था एक समय
अब के तो बची भाभियाँ भी छोड़ गयीं सब
जो दोपहर के ताश का अड्डा था एक समय
आये हैं टिकोले जुनूँ में लुभाते न क्यूँ
आमों की डाल पे ही जो डेरा था एक समय
जेबें न थीं रखे भी नहीं छुपा के अमियांँ
किसके लिए किस जतन से लाता था एक समय
अब कोयलें भी गाँव छोड़ जा बसीं कहीं
कूकोंकी जिनसे छेड़ का जज़्बाथा एक समय
अब ज़िक्र क्या किसी का कि कौन थे वे, हांँ
इक दूसरे का कोई फ़रिश्ता था एक समय।
हैरान हूँ इस फ़िक्र में जब सब मिरे ही थे
किसने यूँ बेदख़ल किया है हमको इस समय।
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#उचितवक्ताडेस्क।
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