Friday, May 20, 2022

चाक से उतर कर धूप में थी।आवाँ में जा रही है

🌩️      चाक से उतर कर धूप में थी।
          आवाँ में जा रही है !             
                   *
   मैं जब
   अहिंसा और प्रेम की भाषा लिख
रहा था तो मेरे पीछे,आजू-बाजू
   नुकीली नफरतों के हथियार लिए
कितने ही लोग जमा हो रहे थे।वे
कितनी ही पोशाकों वेशभूषाओं में
थे।
   मैं अपने तलबों के नीचे धरती में
   दिन भर सूरज और आकाश में
भर रात चाँदनी की हसरत बो रहा
था
   विपरीत कुविचारों की मज़हबी
आँधियाँ बह रही थीं और अपनी
तनी हुई भवों पर रखे दुनिया भर
का निर्मम क्रोध
   किसी भी पल विस्फोट कर मृत्यु
ताण्डव तहलका मचा देने कुछ
लोग ।

   कितना विचित्र है
   किस कंजूसी से क़ुदरत ने
आदमी को बिल्कुल न जी सकने
लायक़ जीने का अधिकार दे रखा
है
   उतनी ही अधिक उदारता से
  मरने के अधिकार से वंचित उम्र
का ख़ाली पात्र।

   प्राकृतिक भर जो है,बस उतना
ही सम्पूर्ण हो सकता है मान कर मैं
लिखने लगा था-न्याय जिस वक़्त,
   ज़िम्मेदार ईमानदार अदालतें
सुना रही थीं अपने-अपने इन्साफ़
जो फ़ितरतन
   अच्छे-बुरे थे
  किसी-किसी के लिए थे,लेकिन
  हरगिज़ सब के लिए नहीं थे।
  तब मैंने लिखा-
   तराज़ू मनुष्य की,मनुष्य के ही
बटखरे,
   दिमाग़ मनुष्य का और न्याय का
नज़रिया
  बिना बेईमानी किये भी नहीं दे
सकती है
  यह व्यवस्था निष्पक्ष और
ईमानदार सबजन हितकारी न्याय

  खुली हुई क़लम अभी
   कैमरे की तरह मेज़ पर रख दी है
   आज पन्द्रह मई,२०२२ई. है।
                      🌍।   
                 गंगेश गुंजन,                                     #उचितवक्ताडेस्क।



 

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