Thursday, September 17, 2020

** ग़ज़ल **

*                   ग़ज़लनुमा                    *

  मेरी मुश्किल उसकी मुश्किल अब होती है 
  अलग-अलग।
  उसकी आंखें मेरी आंखें,शब रोती हैं अलग-
  अलग।            
  दीवारों को तोड़ ढहा देने का जज़्बा कहां गया।
  मंसूबे क्यों बदले साथी निकल पड़े हम अलग-
  अलग।
  लोगों से हम पूछ रहे हैं इतना भर बस एक
  सवाल।
  जीओगे यूं तन्हा कबतक और मरोगे अलग-
  अलग।
  अब ठट्ठा है क़सम तोड़ना तब लेकिन ऐसा ना
  था।
  कहां अकेलापन था ऐसा और रिहाइश अलग-
  अलग।
  चूस रहे जिस्मों की हड्डी सदियों के ये जो
  भुक्खड़। 
  रूहानी लफ्ज़ों पे है और पहरेदारी अलग-  
  अलग। 
  मेरे तसव्वुर को होना था इस तरह' से भी
  शमशान।
  रुख़्सत हुई रूह अपनों से बनी सियासत अलग 
  -अलग।
  बढ़ी तीरगी रातों की दिन भी कितने कम रौशन
  हैं।
  मजबूरी-ए-फ़ितरत गुंजन भी तन्हा हैं अलग-
  थलग।
                                 **
                           गंगेश गुंजन
                      [ #उचितवक्ता डेस्क ]

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