* ग़ज़लनुमा *
मेरी मुश्किल उसकी मुश्किल अब होती है
अलग-अलग।
उसकी आंखें मेरी आंखें,शब रोती हैं अलग-
अलग।
दीवारों को तोड़ ढहा देने का जज़्बा कहां गया।
मंसूबे क्यों बदले साथी निकल पड़े हम अलग-
अलग।
लोगों से हम पूछ रहे हैं इतना भर बस एक
सवाल।
जीओगे यूं तन्हा कबतक और मरोगे अलग-
अलग।
अब ठट्ठा है क़सम तोड़ना तब लेकिन ऐसा ना
था।
कहां अकेलापन था ऐसा और रिहाइश अलग-
अलग।
चूस रहे जिस्मों की हड्डी सदियों के ये जो
भुक्खड़।
रूहानी लफ्ज़ों पे है और पहरेदारी अलग-
अलग।
मेरे तसव्वुर को होना था इस तरह' से भी
शमशान।
रुख़्सत हुई रूह अपनों से बनी सियासत अलग
-अलग।
बढ़ी तीरगी रातों की दिन भी कितने कम रौशन
हैं।
मजबूरी-ए-फ़ितरत गुंजन भी तन्हा हैं अलग-
थलग।
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गंगेश गुंजन
[ #उचितवक्ता डेस्क ]
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