[ दलित जीवन-बोध पर लिखे अपने 'हजूरी गेट का कोरस' काव्य से। ** इस काव्य की केन्द्रीय किरदार नई पीढ़ी की जॉली नाम की बहुत सचेत और स्वप्न दर्शी एक अहिंसक जुझारू लड़की है।यह अंश जॉली की डायरी से।]
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मतलब था बस होने में। इस घर के इक कोने में।
यूं ही कटती गई चली। उम्र बरोबर होने में।
हां लेकिन तमाम मुश्किल। काटी नहीं य' रोने में।
था ही क्या बतौर पूंजी डर क्या था कुछ खोने में।
संघर्षों की सख़्त ज़मीन। तोड़ी काटी बोने में।
माटी का मानुष माटी। लोभ नहीं था सोने में।
तैरे तो क़श्ती संभली। थे कुछ लोग डुबोने में।
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गंगेश गुंजन। रचना : २३.२.'११. बाटे-घाटे।
#उचितवक्ता डेस्क।
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