।। ग़ज़लनुमा ।।
गाँव अब भी समझता है शहर को खुशहाल है। अब भी जब कि शहर आकर गाँव खुद बेहाल है।
गाँव हो या शहर हो या हो भले कुछ भी कहीं । धर्म भाषा जाति मार्गी सुलगता सवाल है।
बहुत उन्नत बहुत सक्षम विश्व के हैं गुरु हम कैसा फूहड़ कितना डगमग क़ौम का हाल है।
हाथ में सबके कोई जम्हूरिअत का तमंचा शांति गायन कर रहे बुद्धिजीवी,कमाल है।
हाथ में सत्ता सरोकारों के कुछ अब है नहीं जो है इक ना इक सियासी सोच का जंजाल है।
सल्तनत बेचारगी में सैर करती टहलती टी वी चैनल ख़बर में यह मुल्क मालामाल है।
अपने दिल का दु:ख जो बोला गया मुझसे ज़रा कहे साथी ‘ ये तो अब अपना-अपना ख़याल है।’ *
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
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