आज भी कितने ही अनुभव और दु:खों को यथार्थ शायरी और कविता में लिखा ही जा रहा है जो अब हमारे वास्तविक जीवन से बाहर जा चुके हैं। या हैं भी तो प्रसंगहीन हैं। उन कविता/शायरी की प्रशंसा और सराहनाएं भी हो रही हैं।
साहित्य में इस सच को कैसे देखा जाना चाहिए ?
गंगेश गुंजन
[उचितवक्ता डेस्क]
No comments:
Post a Comment