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ग़ज़लनुमा
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सियासत में यहांँ जबसे बखेड़े
हो गए हैं
गांँव के गांँव तब से ही अंँधेरे हो
गए हैं।
विचारों में यहाँ जब से हुई है
सेंधमारी
दलों मे ज़ात औ' मज़हबी फेरे
हो गये हैं।
रात खा और पीके सभी सोये
एक ही घर
इबादत और पूजाघर सबेरे हो
गये हैं।
कहांँ थी बात ऐसी दूरियांँ भी
इतनी तब
कहांँ ये थे कि जैसे मेरे-तेरे हो
गये हैं।
अगरचे उखड़ने ही हैं तम्बू
राजनीतिक
अभी ख़ूंँख़्व़ार नफ़रत के बसेरे
हो गये हैं।
*
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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