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भवभूति-विश्वास का घर
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डिजिटल युग में अनाज के गठ्ठरों की तरह रखी जा रही हैं किताबें,कभी बड़ी टंकियों में जमा पानी की तरह,कहीं अपने-अपने प्रकाशकों की साँठ गाँठ और प्रतीकों मेंं तैयार कूट पाण्डुलिपियों की फाइलें,रेत की मानिन्द ट्रकों में लादकर बहाये जा रहे हैं भाषा में- शब्द !
साहित्य माफ़ियाओं के समय में गझिन राजनीति की छल-छल व्याख्याओं से इर्द-गिर्द घिरे हुए डगमग,बौद्धिक- --टापू-विचार भले ही अभी लेकिन फिर भी
ग़नीमत है !
भ्रम में हैं भवभूति-विश्वास वाले कलमकार !
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गंगेश गुंजन
#उवडे.१२.६.’२४.
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