Friday, August 9, 2024

बाँग्लादेश है या मेरा गाँव है धधकता हुआ!

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       बाँग्ला देश या मेरा गाँव है 
               धधकता हुआ?
अभी बाँग्लादेश-विपदा का जल रहा  परिवेश देख कर मुझे बचपन के अपने गाँव की बेसंभाल याद आई है।कच्चे फूस घरों की बस्तियों में अक्सर आग लग जाती थी। विकराल अगिलग्गी !
   तब वही नहीं अगल-बगल सभी गाँवों में अगलग्गी का भय पसर जाता था। कोहराम मच जाता। खढ़मास तो हर साल इस अगिलग्गी के लिए रिजर्व-सा ही मान कर चला जाता था।
   मेरे गाँव के किसी भी टोले में ‘उतरवारी टोला’ हो कि पुबारी टोला अगलग्गी होती तो हम बालकों का मन तब जिस प्रकार भयभीत हो उठता और हम दहलने लगते थे,अभी इसे देख कर ठीक वैसा-वैसा ही महसूस हो रहा है। सद्य: भ्रम हो रहा है जैसे मेरे गाँव के पछवारी टोले में आग लगी है और इसकी ऊँची चौड़ी लपटें आसमान की तरफ लपक रही हैं। हवा के साथ इससे उड़ कर कुकराहे (ख़ास छोटी चिनगारियाँ जो फूस में पलक झपकते ही सुलगा देती हैं) मेरे टोले,फिर पास के मंगरौनी-मंगर पट्टी गांँव की तरफ़ पहुँच सकती हैं। फिर उधर राँटी तक। ऐसे में माँ के हुक्म पर एक घड़ा पानी लिए फूस के अपने घर की बाहरी बरेड़ी पर ठीक बीच में बैठा हूँ। कब किस तरफ़ से उड़ कर कुकराहा आ जाये  जिसे तुरत बुझा सकूंँ। तीसरी-चौथी में पढ़ने वाले छात्र थे तब हम।
   मेरे देश से इतनी दूर जलता हुआ यह बाँगलादेश,आख़िर किस तरह अपने गाँव का टोला लग रहा है ?
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                    गंगेश गुंजन 
                #उचितवक्ताडेस्क।

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