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धुंधलका और बढ़ने दो ज़रा-सा
मज़ा कुछ और बढ़ जाये मज़ा का।
बहुत संकोच में लगता है दिनकर
महिन आँचल ओढ़े कुहासा का।
सर्द से गर्म फिर ठंढी जुदाई
बढ़ाए दर्द जिस्म-ओ-दिल का ख़ासा
झाँकना यौं दुबक के सूरज का
लगे बीमार को इक भरोसा-सा।
एक मासूम हैरत आसमाँ पर
दोपहर में सूरज है दीया-सा।
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गंगेश गुंजन,०७.फ़रवरी,’२४.
#उचितवक्ताडेस्क।
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