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कुछ गुज़रता है और कुछ गुज़ारते हैं
बोझ हम एकेक दिन यों उतारते हैं।
किसी उन्माद ग्रस्त सियासत में अब
एक दूजे की टोपी भर उछालते है।
सामने अभीके प्रश्नोंका उमड़ा सैलाब
और वो हसरत से माज़ी निहारते हैं।
नाम भूले हुए भी ज़माना गुज़रा
हुए जो तन्हा तो उसी को पुकारते हैं।
आज तो देख-सुन के दिल में आया
चलें संसद भवन जा कर बुहारते हैं।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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