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अब गुम गया है वो भी बाक़ी था अपनापा
हर सिम्त बदलते में माहौल का बुढ़ापा।
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अब कोई नहीं हँसता खुलकर न कोई रोता
बेरूह ज़माना है दिलदार का बुढ़ापा।
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सब बाग़ बुज़ुर्गी में मायूस पत्ता बूटा
पानी वग़ैर तनहा हर पेड़ का बुढ़ापा।
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डगमग क़दम पे इनके है शर्मसार क़ुदरत
रहता है अपने घर में बाहर हुआ बुढ़ापा।
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बेदिल-से सबके सब हैं रफ़्तार में इरादे
औ' हार के बैठा है जीता हुआ बुढ़ापा।
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इस बन्द कोठरीमें फिर भी तो जान लेकिन
जल्लाद सर्द सड़कों का क्या हुआ बुढ़ापा।
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श्यामल हुआहै हर सच फैलाहै इकधुंधलका
एक लाल स्वप्न वाले का साँवला बुढ़ापा।
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#उचितवक्ताडेस्क।
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