ग़ज़लनुमा
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गर्दिशमें उम्र गुज़री तब जा के असर आया
कम्बख़्त कहाँ आकर जीने का हुनर आया।
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इसका मैं क्या करूंँ अब रक्खूँ इसे कहाँपर
मायूस अंधेरे में किस मुफ़लिस घर आया
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सबने उसे देखा तो ख़ुशियों के उजालों में
जो ज़ीस्त दिखा मुझको रातोंमें नज़र आया
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हम तो चलेथे कहने आज़ाद कुछ अदब में
जाने किस जानिब से आगे में बहर आया।
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हम गाँव छोड़ आये तब से ही चल रहे हैं
और राह में अभी तक न कोई शहर आया
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कुछ छोड़ आये हम्ही कुछ ने मुझे ही छोड़ा
हम पा न सके वो भी क़िस्मतसे अगरआया
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मैं आदमी हूँ रहना भी समाजों में चाहा
इस ज़िद में अबके तो दुश्मन के घर आया
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किन ख़ास ढब में देखे चेहरे भी सल्तनतके
ये किस निज़ाममेअबके गुज़र-बसर आया
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ख़्वाबों में पर लगे हैं तो लेंगे ही उड़ानें
आज़ाद वो इलाक़ा जबतक न नज़र आया।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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