** रह लूंँगा **
थोड़ा - थोड़ा भी रह लूंँगा
कुछ तो दुनिया को कह दूंँगा।
कितना प्यारा है यह जीवन झेलूंँगा सब दु:ख सह लूंँगा।
बदल रहा है सबकुछ कैसे
समझाऊंँगा ख़ुद बदलूंँगा।
सब बेमानी व्यर्थ नहीं हैं
मक़्सद देकर मानी दूंँगा।
तन्हा कोई बुला रहा है
पहले उसकी सदा सुनूंँगा।
अब समझे हैं लोकतन्त्र का
पत्ता हूंँ पत्ते-सा गिरूंँगा।
रहे चांँद बादल में घिर कर
मैं तो रवि जैसा ही ढलूंँगा।
नयी लहर की इस दुनिया में
अंँधियारी तक जल-बूझूंँगा।
कविता है खु़द असमंजस मे
इसको भी इसमें बदलूंँगा।
🍂 ! 🍂
गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
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