Saturday, August 31, 2024

फेसबुक पर कविता !

                   फेबु पर कविता !
फेसबुक पर आइ-कालि मिझाएल दीप जकाँ कविता बेसी भेटत आ कय टा बिनु लेसल दीप सन कविता।       
                     गंगेश गुंजन  
                #उचितवक्तडेस्क।

Thursday, August 29, 2024

हम सहरसा छी !

   ⛈️         हम सहरसा छी !
   काल्हि मुख़्तार आलम जीक सहरसा पोस्ट आकर्षित कयलक। हमरा स्मृति मे तँ १९७२-७३ई.क सहरसा अछि।सब सँ पहिने महिषीए गेल रही-राजकमल जी सँ स्मृति-भेंट ओ आदरणीया शशि भाभी जी केँ प्रणाम करऽ! 
  ई तँ सर्वथा नऽव सहरसा। सोचितहिं रही कि मित्र समाधान प्रसाद जीक फ़ोन आयल।किंचित स्मृति उदास किन्तु उल्लसित तंँ रहबे करी कि अपन सदाबहार अंदाज़ मे मित्रवर टोकलनि -
‘बड़ी कोमल स्वर भाषा फूट रही है कवि जी। का बात है ?’
‘एहन कोनो बात नै बन्धु परन्तु हँ, एखनहिं राजकमलजी,मायानन्दजी, जयानन्दजीक सहरसाक नवका फोटो देखलिऐ से कनी भावुक ठीके छी ! उचिते हेतैक यदि साहित्यिके टा नहिं,ई सहरसा सबजन रुचिक देशव्यापी ध्यानाकर्षक ‘पर्यटन स्थान’ बनि जइतैक…!’
‘कने ओ फ़ोटो पठाउ तंँ हमरो। देखिऐ हमहूँ कनी।’ 
ओ कहलनि अर्थात् हुकुम देलनि। हमहूँ तत्काल तामिल कयल। फोटो पठा देलिअनि आ प्रतीक्षा कर’ लगलौं। देखी समाधान बाबू कोन बम फोड़ै छथि।कि
पिठ्ठे पर फ़ोन आयल। कहलनि -
‘कवि जी,ई वैह सहरसा यौ जे सहरसा एक समय मे कोसीक बाढ़ि आ नोर सँ नहायल मैथिली साहित्य संँ बहैत छलय?’ 
 हमरा तँ एकर कोनो जवाब नहिफूरल। समाधान बाबूक ऐ पूछब पर यद्यपि तखने सँ गुनधुनि मे छी। 
  कोय गोटय कहि सकैत छी जे सहरसा द’ समाधान प्रसाद से किएक टिपलनि ?
  दुर्भाग्य जे प्रिय महाप्रकाश तँ छथिहे नहिं। तखन 
प्रो० नवीन अहाँ?
वियोगी जी? 
प्रो.सुभाष अहाँ? 
अहाँ प्रो.महेंद्र ?
                         🌼|🌼
                      गंगेश गुंजन 
                 #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, August 26, 2024

ख़ामोशी से डर लगता है : ग़ज़लनुमा

🌜🌛
       ख़ामोशी से  डर लगता है
       घर गपशप में घर लगता है।

       यह आलम है  तन्हाई का
       लम्हा एक पहर लगता है।

       जो कहते हैं बदले दुनिया 
       कुछ में तो गड़बड़ लगता है।

       इसके भी अफ़सोस करें क्या
       मेरा  गाँव  शहर  लगता  है।

       दुनिया को इस ढब से बदले  
       लोकतंत्र,तो  डर  लगता  है।

       हरियाली भर से उदास इक 
       पंछी बिना शजर लगता है।

       हम आजू -बाजू रहते हैं
       दूर-दूर  में घर  लगता है।

       थकन उम्र की कहे सहर अब 
       जब सूरज सिर पर लगता है।

       बहुत ख़ास की तर्क़-ए-मुहब्बत
       मुश्किल और बसर लगता है।
     🌛             ⛪🛖             🌜
      
                    गंगेश गुंजन
                 #उचितवक्ताडे.
                     25.8.'24.

Sunday, August 25, 2024

प्रोफ़ेसर कर्मेंदु शिशिर : जन्मदिन बधाई !

° 
    जिन कुछ ऊँचे कारणों से समकालीन हिन्दी साहित्य मुझे ऐसा श्रेष्ठ और श्लाघनीय रहा है उनमें प्रोफ़ेसर कर्मेन्दु शिशिर हैं एक। अन्य भाषा को भी ऐसा लेखक उपलब्ध है या नहीं, मुझे नहीं पता। 
    किन्तु सब होते हुए भी,काश ! मैथिली भाषा को भी एक प्रोफ़ेसर कर्मेन्दु शिशिर मिलता ! बहुत दिनों की यह मेरी अपेक्षा रही है बल्कि प्रतीक्षा।
    आज कर्मेन्दु जी का जन्मदिन है। बधाई देता हूंँ और एक अग्रज की असीम मंगलकामनाएँ देता हूँ । 💐
                   गंगेश गुंजन 
             #उचितवक्ताडेस्क।
       फ़ोटो : उवडे अभिलेखागार।

Saturday, August 24, 2024

नहिं रहैत छैक कोय तँ...

                          🌼                                          नहिं रहैत छैक कोय तँ…
  कोइ जखन नहिं रहल तँ की रहैत छैक 
कोनो कोठली,कोठलीक पलंग,खाट- चौकी,बइसैक कुर्सी रिक्त रहैत छैक। 
बहुत दिन सँ एकहि ठाम गेंटल टेबुल पर किछु किताब रहैत छैक
एक टा कम्प्यूटर,किछु फाईल 
ककरो नंबर सब सँ भरल मोबाइल फ़ोन
रहैत हेतैक।
  क्रमशः ओकर लुप्त होइत बोल,भाव- भंगिमा ओ मिझाइत आकृति रहैत छैक।

हँ किछु टटका स्मृति सेहो रहैत छैक जे तत्काल लोक,समाज कें शोक मनयबाक काज आबि जाइत छैक आ आगाँ बर्खी इत्यादिक।
सम्प्रति फेसबुक सहित समस्त संचार माध्यम मे एक-दू दिन धार कात ओकर धधराक फ़ोटोमय शोकक उद्गार आ समाचार छपैत रहैत छैक… 
  देबाल पर माला पहिरने फोटो सेहो रहि जा सकैत छैक किछु बर्ख,ककरो नहिं रहलाक बाद।
 सेवा-समर्पित अपन लोकक शोकरिक्त समय,सम्भव जे समकालीन कय टा समानधर्मी प्रतिद्वंद्वी हल्लुक भेल अमानवीय हृदय रहैत छैक।
ककरा लय कतेक,की केहन कतेक रहि जाइत छैक ?
जकरा लय रहि जाइत छैक ओ सब टा नहिं रहि जाएब मे ओकरे टा मूर्त्त 
किछु गपशप करैत प्रस्तरीभूत मौन समय रहैत छैक जे  
विशेष लोक रहने सभ्य समाजक सभा सोसाइटीक मनाओल जाइत पुण्य तिथि- संस्कृति मे बजैत छैक
   किछु बर्ख धरि 
   बर्खीक भोज मे 💐   
                      गंगेश गुंजन 
                    #उचितवक्ताडे.

Sunday, August 18, 2024

दो पँतिया : दो ऐबों ने मुझको आख़िर...

  दो ऐबों ने मुझको आख़िर छोड़ा नहीं          कहीं का।
  सल्तनतों की मुलाज़िमत और शाइरी से 
   इश्क़ ने।
                         🌼🌼 
                      गंगेश गुंजन। 
                 #उचितवक्ताडेस्क।

Thursday, August 15, 2024

ग़ज़लनुमा : उस बार किससे साविक़ा पड़ा था मेरा...

🌻🌻
      🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾
 उस बार किससे साबका़ पड़ा था मेरा
 इस बार हुआ किससे ये राब्ता मेरा।

इतना महज़ कहा तो टोके है रहनुमा-
'कब से लगा सियासत में चस्का' मेरा।

आते उधर से देख के वो पूछने लगा 
'किस एमपी से मिलकर आना हुआ' मेरा।

चालाक मिरा रहबर कितना है देखिए 
मैं बेवक़ूफ बेसबब चेहरा झिंपा मेरा।

कहने में हिचके क्यों जयहिन्द भी जु़बान 
नेता अपन ही क्षेत्र का अनजान क्या मेरा।

बाज़ू उठाये ऊंँचा रेशम का झंडा 
हँसता है देख खादी तिरंगा मेरा।
                     🌾🌼🌾         
                    गंगेश गुंजन 
                       #उवडे.
               १५ अगस्त,२०२४.

Friday, August 9, 2024

बाँग्लादेश है या मेरा गाँव है धधकता हुआ!

🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥। 
       बाँग्ला देश या मेरा गाँव है 
               धधकता हुआ?
अभी बाँग्लादेश-विपदा का जल रहा  परिवेश देख कर मुझे बचपन के अपने गाँव की बेसंभाल याद आई है।कच्चे फूस घरों की बस्तियों में अक्सर आग लग जाती थी। विकराल अगिलग्गी !
   तब वही नहीं अगल-बगल सभी गाँवों में अगलग्गी का भय पसर जाता था। कोहराम मच जाता। खढ़मास तो हर साल इस अगिलग्गी के लिए रिजर्व-सा ही मान कर चला जाता था।
   मेरे गाँव के किसी भी टोले में ‘उतरवारी टोला’ हो कि पुबारी टोला अगलग्गी होती तो हम बालकों का मन तब जिस प्रकार भयभीत हो उठता और हम दहलने लगते थे,अभी इसे देख कर ठीक वैसा-वैसा ही महसूस हो रहा है। सद्य: भ्रम हो रहा है जैसे मेरे गाँव के पछवारी टोले में आग लगी है और इसकी ऊँची चौड़ी लपटें आसमान की तरफ लपक रही हैं। हवा के साथ इससे उड़ कर कुकराहे (ख़ास छोटी चिनगारियाँ जो फूस में पलक झपकते ही सुलगा देती हैं) मेरे टोले,फिर पास के मंगरौनी-मंगर पट्टी गांँव की तरफ़ पहुँच सकती हैं। फिर उधर राँटी तक। ऐसे में माँ के हुक्म पर एक घड़ा पानी लिए फूस के अपने घर की बाहरी बरेड़ी पर ठीक बीच में बैठा हूँ। कब किस तरफ़ से उड़ कर कुकराहा आ जाये  जिसे तुरत बुझा सकूंँ। तीसरी-चौथी में पढ़ने वाले छात्र थे तब हम।
   मेरे देश से इतनी दूर जलता हुआ यह बाँगलादेश,आख़िर किस तरह अपने गाँव का टोला लग रहा है ?
                      🔥|🔥         
                    गंगेश गुंजन 
                #उचितवक्ताडेस्क।

Monday, August 5, 2024

भवभूति विश्वास वाले लोग!

🛖

                  भवभूति-विश्वास का घर 
                                   °°
  डिजिटल युग में अनाज के गठ्ठरों की तरह रखी जा रही हैं किताबें,कभी बड़ी टंकियों में जमा पानी की तरह,कहीं अपने-अपने प्रकाशकों की साँठ गाँठ और प्रतीकों मेंं तैयार कूट पाण्डुलिपियों की फाइलें,रेत की मानिन्द ट्रकों में लादकर बहाये जा रहे हैं भाषा में- शब्द !
   साहित्य माफ़ियाओं के समय में गझिन राजनीति की छल-छल व्याख्याओं से इर्द-गिर्द घिरे हुए डगमग,बौद्धिक- --टापू-विचार भले ही अभी लेकिन फिर भी 
         ग़नीमत है !
भ्रम में हैं भवभूति-विश्वास वाले कलमकार !
                       ❄️
                 गंगेश गुंजन 
            #उवडे.१२.६.’२४.

Sunday, August 4, 2024

ग़ज़लनुमा : सबका ठौर ठिकाना था

🌼|
     सब का ठौर ठिकाना था
     कोई  इक बेगाना था।

     ऋतुएँ  भी वे रूठ गयीं 
     जिनका कुल अफ़साना था।

     कैसी मार वक़्त की थी
     किसका यह जुर्माना था।

     हमने तो समझा न कभी
     रिश्ता फ़क़त निभाना था।

     किसका था गुनाह वो फिर 
     सबब वही बतियाना था।

     क्यूँकर भला तवक़्को अब 
     याद  करें  याराना था।

     अकसर गुंजन भूल गये
     किसको क्या बतलाना था।
                    🌴🌴 
                 गंगेश गुंजन 
                     #उवडे.
                   ३१मई,'२४.

Thursday, August 1, 2024

लोकतंत्र का मण्डप !

🛖                  लोकतंत्र का मंडप !
  चीज़ें अपनी जगह हों तो अच्छी लगती हैं 
सबकुछ रखने का सलीक़ा है। 
बर्तन बर्तनों की जगह और अनाज 
अनाजों की तरह रखे हों।
किताबें किताबों की तरह रहें 
डिग्रियांँ भी उसी तरह,जिन्हें हैं।
सम्मान और प्रतीक चिह्न सब अपनी हैसियत और इज़्ज़त से घर में ऊँचे पर कहीं सजे रहें।
वृक्ष वनस्पतियाँ हवाओं की तरह रखी जाने वाली झूमती हुई हरियाली में। 
पक्षी को उनके स्वभाव और इच्छा के ही अनुरूप।
मवेशी को मवेशी के ही योग्य पाला जाना
ठीक होता है। और मनुष्य को बस्तियों घरों में मनुष्य की तरह रखा जाना चाहिए। 
   संसार तभी मुकम्मल घर होता है और व्यवस्थापक घर का रखवाला-
     सद्गृहस्थ कहलाता है।
                            . 
                       गंगेश गुंजन,
                  #उचितवक्ताडेस्क।
                        १०जून,’२४.