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सुख भी बोझिल करता है
मेरा दिल यह कहता है।
ग़ैर नहीं लगने लगता
दुःख गर ज़्यादा टिकता है।
जिसको भूल चुका हूँ मैं
वह मेरे ग़म सहता है।
गरम लहू कुछ यादों का
ठंढे तन में बहता है।
रहते - रहते सहरा में
मन भी रमने लगता है।
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क। रचना : १२.५.'२४.
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