⚡⚡। बहुत निर्लिप्त-सा
वह भी झूठ ही बोल रहा है
जिसके विरुद्ध,पूरी पेशेवर ताक़त से
किसी की वफ़ादारी में ही
तस्किरा कर रहा है।
बड़े शानदार अंदाज़ में अपने झूठ से
दूसरे सच का शिकार कर रहा है।
लैश हैं हमारे समय के कतिपय चिंतक, कवि-कलाकार और विचारक।
उतने ही निस्पृह लेकिन ये
साधारण जन भी हैं जो अपनी सरल स्वच्छ हृदयता के साथ, महज़ रखने के लिए
सत्य का मान रखते रहते हैं ।
अपने स्वजन का कहना मान कर सब सुनते हैं, और भरोसे से बरतते हैं।
प्रेरित हो जाते हैं और किसी तरफ धकेल दिए जाते हैं।
जिधर भी ठेल कर भेजे जाते हैं
उधर ही किन्हीं तिलिस्मी माहिरों के हाथों
सूर्यास्त तक ठगे जाते हैं।
दो तेवर-ओ-अंदाज़ में एक तरफ पहले और दूसरी तरफ दूसरे जुमले और भाषा में पगे जाते हैं ठगे जाते हैं।
अपनी-अपनी ताक़त लगाये,चल-चल कर अपने-अपने भरोसे पर जा मत्था टेकते हैं
अनगिन लोग !
गणतन्त्र को फिर सिर नवाते हैं।
तो क्या सभ्य सुभ्यस्थों का महावन हो गया लोकतंत्र!
°°
कहाँ है वह महाद्वार जहाँ
कोई पहला सूर्योदय कब से न प्रतीक्षा में खड़ा है,हम जिसे सदी भर हसरतों से तकते हैं !
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गंगेश गुंजन #उचितवक्ताडेस्क।
Thursday, May 30, 2024
निर्लिप्त सा झूठ
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