Sunday, December 12, 2021

रोज़ मेरे घर के आगे से गुज़रता है। ग़ज़ल

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    रोज़ मेरे घर के आगे से गुज़रता
    है
    बच के हसरत की नज़र से इधर
    तकता है।

    ख़त्म है सब कुछ जहांँ वीरानगी
    हर ओर
    बिया बाँ को या ख़ुदा गुलज़ार
    कहता है।

    लोग कुछ कहते हैं कैसा वक़्त है
    और क्या
    एक कवि क्या सोचता क्या
    लिखा करता है।

    सियासत पे तो नहीं ही अपनों
    पर भी अब
    भरोसा रख कर कोई शायद ही
    चलता है।

    चैन से कुछ चुस्कियाँ लेते घरों में
    लोग
    सुकूँ से फ़िक्रे अवामी ज़िक्र
    चलता है।

    तस्करा बेहाल लोगों पर तो कम
    ही अब
    संसदों में मज़हबी तक़रार
    चलता है।

    ड्राइंग रूमों में तो बेशक़ गर्म हैं
    चर्चे
    रहवरों से कौन सड़कों पर
    उतरता है।

    कह रहा था कोई बाँधे पाँव में
    चक्के
    वो शहर दर शहर में बेज़ार
    फिरता है।

    ग़म नहीं गुंजन न घबराना कि
    ऐसा दौर
    मेरा गौआंँ शिवजिया तक सब
    समझता है।
                       *
    गंगेश गुंजन,१३.१२.'२१.

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